जब शहंशाह अकबर को शर्मिंदा किया शिवपुरी की एक बेटी ने।




शिवपुरी जिले की तहसील पिछोर का एक छोटा सा गांव है बरधुंआं। झांसी भोपाल रेलवे लाइन के बीच का छोटा सा स्टेशन है बसई। बसई से पिछोर आने वाले सड़क मार्ग पर ही हैं ग्राम नयाखेड़ा। इस नयाखेड़ा से तीन किलोमीटर दूरी पर स्थित है उपरोक्त गाँव बरधुंआं। इसी बरधुंआं में है एक तालाब प्रवीण सागर। कहने को तो यह गाँव भी छोटा है और इसका यह तालाब तो और भी छोटा होने को ठहरा। लेकिन इसका इतिहास महान है। क्योंकि इसी गाँव में एक लोहार के घर जन्मी थी हमारी वह महान कथानायिका, जिसने तथाकथित महान कबर की एक बारगी तो सिट्टीः पिट्टी ही गम करदी थी। तो आइये िसीमाहाँ नायिका की चर्चा करते हैं। अब तालाब का नाम प्रवीण सागर हमने बताया है, तो निश्चय ही यह हमारी कथानायिका के नाम पर ही होगा, यह तो आप समझ ही गए होने।

बुदेलखंड के वरिष्ठतम साहित्यकार एवं कवि डॉ. कन्हैयालाल कलष ने अपनी कृति श्रुतिलेख में लिखा है-

राजा कछौआ की धरती पै,गांव आय बरद्वारौ,

ताको बासी मैं लुहार हों माधौ नाम हमारौ,

आंगू खड़ी मजीर लै जो,मोरि लालित छोरी,

रूचि राखत गायन वादन में,है मन की अति भोरी,

उक्त पद के अनुसार रायप्रवीण के पिता माधो लुहार अपनी बेटी का परिचय दे रहे हैं। पद में कछौआ के राजा अर्थात वहां के तत्कालीन जागीरदार ओरछा के महाराज वीरसिंह जू देव के अनुज इन्द्रजीत सिंह का उल्लेख है तथा माधो लुहार के गांव का नाम बरद्वारा बताया गया है। लेकिन अंचल के प्रख्यात उपन्यासकार स्व. रामनाथ नीखरा अपने एक उपन्यास में उनके पिता का नाम सुखलाल लुहार तथा गाँव का नाम बरधुंआं लिखते हैं। वे यह भी उल्लेख करते हैं कि बसई तथा पिछोर के मध्य स्थित नयाखेड़ा से लगभग तीन किलोमीटर दूर उत्तर पूर्व दिशा में बसे इस गाँव में आज भी प्रवीण सागर विद्यमान है, जो राय प्रवीण की स्मृति को संजोये हुए है।

अधिकांश विद्वानों द्वारा यह स्वीकृत तथ्य है कि वह लोहार की बेटी थी। अब उस लोहार का नाम जो भी हो। यह भी निर्विवाद है कि कछौआ जिसका तत्कालीन नाम कक्ष्वाकमल था, के जागीरदार इन्द्रजीत ने जब उसे देखा तो उसके रूप सौन्दर्य पर मुग्ध हो गए । लोकाचार के कारण एक लुहार की बेटी से विवाह तो कर नहीं सकते थे, अतः उसके पिता की सहमति से गन्धर्व विवाह किया। तत्पश्चात इन्द्रजीत ने उसकी शिक्षा दीक्षा की समुचित व्यवस्था कराई । महाकवि केशव दास मिश्र के मार्गदर्शन और शिक्षादीक्षा ने उसे बहुत जल्दी ही कलामर्मज्ञ, विदूषी, कवयत्री बना दिया । वह शीघ्र ही वह वीरसिंह देव के दरबार की राज नृतकी हो गई । महाकवि केशव दास ने उसी को काव्य संरचना का ज्ञान कराने के लिये रसिकप्रिया और उसकी प्रशंसा में कविप्रिया जैसे महाकाव्यों की रचना की । महाकवि ने अनेक स्थानों पर और अनेक बार उसकी प्रशंसा में छन्द लिखे है ।

रायप्रवीण नृत्यांगना थी, किन्तु इन्द्रजीत की विवाहिता पत्नी भी थी । महाकवि केशव दास उसके बहुत बड़े प्रशंसक थे । वे अपने इन छन्दो में उसकी प्रशंसा करते हुए लिखते हैं-

सुबरन जुत,सुर बलित बरनि पुनि,

भैरो सी मिलित गति ललित बितानी है ।

पावन प्रगट दुति दुजन की देखियत,

दीपति दिपति अति श्रुति सुखदानी है ।

शोभ शुभ सानी,परमारथ विधानी दीह,

कलुष कृपानी मानी सब जग जानी है ।

पूरब के पूरे पुन्य सुनिये प्रवीनराय,

तेरी बानी मेरी जानी गंगा कैसो पानी है ।

सार यह कि महाकवि केशवदास जी उससे इतने प्रभावित थे कि उसकी वाणी उन्हें गंगा के समान पवित्र प्रतीत हो रही थी।

धीरे धीरे रायप्रवीण के सौंदर्य और गुणों की चर्चा फैलती चली गई । बादशाह अकबर ने जब उसकी तारीफ सुनी तो उसका विलासी मन व्याकुल हो गया और उसने प्रवीण को भेजने हेतु बुंदेला नरेश महाराज वीरसिंह जू देव को फरमान जारी कर दिया । रायप्रवीण को जब बादशाह के इस फरमान की जानकारी मिली तो उसने अपने पति इन्द्रजीत से भरे दरबार में इस छन्द के माध्यम से अनुरोध कर अपना विरोध प्रगट किया-

आई हो बूझन मंत्र तुम्हैं नित,शासन सों सिगरी मति गोई,

देह तजों कि तजों कुलकानि,हियें न लजों लजिहें सब कोई,

हे प्रभु मुझे आप ही बताओ कि मैं अपने प्राण दूँ या अपने कुल की मर्यादा छोड़ूँ। इसमें मेरी लाज नहीं जाएगी, सबकी जाएगी। उसने आगे कहा -

स्वारथ औ परमारथ कौ गथ,चित्त विचारि करौ तुम सोई,

जामैं रहे प्रभु की प्रभुता, अरू मोर पतिव्रत भंग न होई ।

कुछ ऐसा उपाय करो स्वामी कि जिसमें आपका सम्मान भी बना रहे और मेरा पतिव्रत धर्म भी भांग न हो।

अपने पतिव्रत की चिंता करने वाली वह विदुषी भरे दरवार में पूछ रही है - देह त्यागूँ या कुल की मर्यादा छोड़ूँ ? स्वाभाविक ही बादशाह का यह फरमान किसी को भी स्वीकार नहीं हुआ । जब महाराज वीरसिंघ जू देव ने उसे आगरा नहीं भेजा तो स्थिति भारी अर्थ दंड के बाद युद्ध तक आ पहुंची । महाकवि केशव दास रायप्रवीण के लिये पूरे ओरछा राज्य को युद्ध की आग में नहीं झोंकना चाहते थे । इस लिये उन्होंने वहां रायप्रवीण को भेजने का आग्रह किया । उन्हें अपनी शिष्या की बुद्धिमत्ता और योग्यता पर पूरा विश्वास था ।

पहले वे स्वयं आगरा पहुंचे और सबसे पहले बीरबल से मिलकर अर्थदंड माफ कराया उसके बाद आगरा में जब रायप्रवीण का बादशाह अकबर से सामना हुआ तो उसने बादशाह अकबर को भरी सभा में कुछ इस प्रकार लज्जित किया -

विनती रायप्रवीण की सुनिये शाह सुजान,

झूठी पातर भखत हैं,वारि,वायस,स्वान ।

इन दो पंक्तियों में इतना गंभीर अर्थ छुपा हुआ था कि राय प्रवीण न केवल बुंदेलखंड में बल्कि पूरे देश में सदा सर्वदा के लिए अमर हो गई। इस व्यंग ने विलासी अकबर को भी शर्मिन्दा कर दिया। हे सर्वज्ञाता बादशाह रायप्रवीण की विनती को सुनिये,झूठी पत्तल को कौवे,सुआर और कुत्ते ही खाते हैं । अपने आप को कौवे,सुआर और कुत्ते से तुलना सुनकर शर्मिन्दा अकबर ने रायप्रवीण को ससम्मान ओरछा वापिस भेज दिया। शिवपुरी गौरवान्वित है कि अकबर को लज्जित करने वाली उस कवियत्री की जन्मभूमि शिवपुरी है।

इस घटना से यह तो सिद्ध होता ही है कि वह एक उच्चकोटि की कवयत्रि थी । उसकी वाणी में रीति कालीन साहित्य के उद्गम एवं स्वस्थ सरसता की सुखद अनुभूति की जा सकती है। एक बानगी -

सीतल समीर डार,मजन के घनसार,अमल अंगोछे आछे मन सुधारिहों,

देहों ना पलक एक,लागन पलक पर,मिलि अभिराम आछी तपनि उतारिहों, ।

कहत प्रवीनराय,अपनी न ठौर पाय,सुन वाम नैन यावचन प्रतिपरिहों,

जब ही मिलेंगे मोहि इन्द्रजीत प्रान प्यारे,दाहिनों नयन मूंद,तोही सौ निहारिहों ।

रायप्रवीण ने नायिका भूषण और प्रवीण विनोद ग्रंथों की रचना की है ।
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें