अकबर की तथाकथित महानता की वास्तविकता को उजागर करती चाँदबीबी की गाथा।




इतिहास का तटस्थ आंकलन होना चाहिए। केवल विजेता होना महानता नहीं है, वरन मानवीय सद्गुण ही महानता की कसोटी हो सकते हैं। क्या शहंशाह अकबर इस कसौटी पर खरा उतरता है। आइये इसी परिप्रेक्ष में हम आज अहमदनगर की सुल्ताना चाँदबीबी की गाथा पर नजर डालते हैं। चाँदबीबी की अलौकिक आभा केवल इसलिए चर्चित नहीं हुई क्योंकि वह इतिहासकारों की अकबर महान की थ्योरी को झुठलाती है। चाँदबीबी का नारीत्व बुर्के के भीतर कैद नहीं था, चाँदबीबी हमारे सामने एक वीरांगना के रूप में आती है। उसके अधिकारों का अपहरण उसे अबला समझकर किया जाए, यह उसे सह्य नहीं था। भले ही फिर यह घृणित कार्य करने वाला सर्वजेता अकबर ही क्यों न हो।

अकबर की सत्ता उन दिनों परवान पर थी। चारों और उसकी विजय दुंदुभी बज रही थी। उत्तर भारत में अपना जीत का झंडा बुलंद करने के बाद उसने दक्षिण का रुख किया। 1595 के आसपास उसने दक्षिण के सुल्तानों के पास अपनी अधीनता स्वीकार करने के पैगाम भेजे। खानदेश तो पैगाम पाते ही शरणागत हो गया, किन्तु अहमद नगर, बीजापुर और गोलकुंडा के सुल्तानों ने कोई जबाब नहीं दिया। है न हैरत की बात ? मुस्लमान अकबर दक्षिण के मुस्लिम शासकों को भी नहीं बख्श रहा था। सचमुच उसकी साम्राज्य लिप्सा असीम थी। बीजापुर की शासन सत्ता उन दिनों चाँदबीबी के हाथों में थी, जबकि अहमदनगर पर उसके छोटे भाई का अवयस्क बेटा गद्दीनशीन था। कालिंजर और रणथम्भौर जैसे अभेद्य किलों को जीतने के बाद अकबर अपने सामने किसी को कुछ गिन ही नहीं रहा था। दक्षिण विजय की शुरुआत के लिए उसने अपने बेटे आजम को सबसे पहले अहमदनगर पर हमले के लिए विशाल सैन्य दल के साथ भेजा। खानदेश की शरणागति के बाद उसने शायद सोचा होगा कि अहमदनगर का बालक सुलतान तो भभके में ही आ जाएगा और सेना के पहुंचते ही घुटने तक देगा।

लेकिन ऐसा हुआ नहीं, अपने भतीजे की ढाल बनकर सामने आ गईं बीजापुर की चाँद बीबी। चाँदबीबी स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व कर रही थी। उसकी लपलपाती तलवार विरोधी सैनिकों के लिए साक्षात् मौत का पैगाम बन चुकी थी। मुराद को सपने में भी गुमान नहीं था कि उसे ऐसी आफत से दो चार होना पडेगा। शहंशाह अकबर की सेना का मुकाबला करने एक औरत न केवल आएगी बल्कि उसकी ताकत के सामने शहंशाह की सेना बौनी प्रतीत होगी। मुराद को अंततः अहमदनगर जीतने का ख्वाब छोड़ना पड़ा और वह हिम्मत हारकर घुटने टेकने को विवश हुआ। इज्जत बचाने के लिए उसने समझौते की पेशकश की और केवल बरार का सूबा मांगा। इतने बड़े फौजफाटे के साथ आये थे अहमदनगर को जीतने, लेकिन नाक बचाना भारी हो गया। भागते भूत की लंगोटी भली। बेआबरू होकर बिना कुछ लिए वापस होने से अच्छा है, कुछ तो मिल जाए। यह भी तब संभव हुआ जब कूटनीति से चाँद बीबी के कुछ सरदार गुपचुप खरीद लिए गए।

मुराद चाँदबीबी से परास्त हो अपना सा मुंह लेकर वापस लौटा। इस अपमानजनक पराजय के कुछ समय उपरांत ही मुराद की मौत भी हो गई। अकबर के तनबदन में आग लग गई। अब उसने मोर्चा खुद संभाला और बुरहानपुर जीतने के बाद अहमदनगर का किला भी घेर लिया। बुरहानपुर उसने छल छद्म से कैसे जीता था, उसका वर्णन हम पूर्व में कर ही चुके हैं। उस कथानक की लिंक आप नीचे देख सकते हैं। जो रणनीति उसने बुरहानपुर में अपनाई थी, उसीका प्रयोग उसने अहमदनगर में भी किया। उसके खरीदे हुए सरदारों ने विश्वासघात किया और चाँदबीबी की हत्या कर दी गई। चाँदबीबी के जीवनकाल में अकबर की शक्ति स्तंभित ही रही। वह उसे पराजित नहीं कर पाया। चाँदबीबी सच्ची वीरांगना थी, वह अकबर जैसी कुटिल नहीं थी। लेकिन इतिहासकार तो विजेता को ही महान मानते और बताते हैं, वह कुटिल हो, धूर्त हो या दुष्ट, उससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन भारतीय चिंतन में तो महानता की परिभाषा मानवीय सद्गुण ही हैं।

अकबर की झूठी महानता को बेनकाब करती अन्य गाथाएं -






एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें