एक महामानव के कुण्डलिनी जागरण अनुभव - 1 - प्रस्तावना आमजन का आजादी के संघर्ष में योगदान



आपको उक्त शीर्षक अचंभित कर रहा होगा। भला आजादी के संघर्ष का योग साधना और वह भी सर्वाधिक प्रभावशाली कुण्डलिनी जागरण का क्या सम्बन्ध हो सकता है। अभी पिछले दिनों ही कांग्रेस के अध्यक्ष ने प्रश्न उठाया कि जब आजादी का संघर्ष चल रहा था, तब विपक्ष के लोग कहाँ थे। बैसे तो यह सवाल ही मूर्खतापूर्ण है, क्योंकि देश को आजाद हुए 75 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं, अतः आज की किसी राजनीतिक जमात का कोई व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि उसने आजादी के संघर्ष में भाग लिया। और जहाँ तक पूर्वजों का सवाल है, तो उस दौर में तो देश के नब्बे प्रतिशत लोग केवल कांग्रेसी ही थे। और जो नहीं थे उनके वंशज आज ज्यादा जोर शोर से कांग्रेसी हैं। स्वनामधन्य राजसाहेब दिग्विजय सिंह जी के पिताश्री घोषित हिंदूवादी थे। तो मेरे आगामी कथन में शीर्षक के दोनों अंश स्पष्ट हो जायेंगे।

दक्षिण भारत की प्रमुख आध्यात्मिक विभूति अर्थात ईशा फाउंडेशन के सद्गुरू जग्गी वासुदेव के अनुसार कुण्डलिनी जागरण योग साधना सर्वाधिक शक्तिशाली होने के साथ सर्वाधिक खतरनाक भी है। जैसे कि परमाणु ऊर्जा, जो सृजन और विध्वंश दोनों कर सकती है। स्वाभाविक ही साधकों के मन में भी आमतौर पर यही धारणा है कि इस साधना को किसी गुरू के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए। लेकिन शिवपुरी में एक महापुरुष ऐसे भी हुए हैं, जिन्होंने न केवल स्वतः यह अनुभव पाया, वरन स्वशक्ति साधना के नाम से आमजन को भी इस हेतु प्रेरित किया। उनके अनुभवों की चर्चा के पूर्व प्रस्तावना के रूप में आईये तत्कालीन परिस्थितियों और स्वयं उन महापुरुष के जीवन वृत्त पर एक नजर डालते हैं -

आपमें से बहुत से वन्धुओं ने संभवतः मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले का नाम भी नहीं सूना होगा। यहाँ की मुख्य पहचान है तो केवल इसलिए कि यहाँ 1857 के महान सेनानायक तात्या टोपे को फांसी दी गई थी। तो इस अचर्चित जिले की ही सबसे पिछड़ी तहसील है और इस पोहरी में भी छर्च गाँव को तो सबसे पिछड़ा कहा जाता है। उसी छर्च कस्बे में 9 जुलाई 1900 को श्री गोपाल कृष्ण पौराणिक जी का जन्म हुआ था। जब महज तीन वर्ष के थे, तभी पिता श्री केशव प्रसाद जी का स्वर्गवास हो गया। अब उनके लालन पालन का दायित्व आ गया उनके पितामह पंडित वासुदेव जी पौराणिक पर। लेकिन ईश्वर तो परीक्षा लेने पर आमादा थे। अभी गोपाल मात्र आठ वर्ष के ही थे कि तभी उनके एकमात्र अभिभावक उनके दादाजी का भी आकस्मिक निधन हो गया। गोपाल पर तो मानो पहाड़ ही टूट पड़ा। लेकिन दिल पर पत्थर रखकर हिम्मत न हारते हुए 1910 में वेद एवं शास्त्रों का अध्ययन करने हेतु काशी विश्वनाथ की शरण में जा पहुंचे।

बनारस में अध्ययन करते समय ही उनका संपर्क उस समय के प्रकांड विद्वान व राष्ट्रभक्त डॉ. केशवदेव शास्त्री से हुआ। वे उनके मानो अभिभावक ही बन गए। उनकी प्रेरणा व सहयोग से पौराणिक जी अंग्रेजी का अध्ययन करने हेतु 1912 में ब्रिटिश इण्डिया की नई राजधानी दिल्ली जा पहुंचे। किशोर अवस्था में ही इनका संपर्क उस समय की महान विभूतियों से हो गया था, जिनमें प्रमुख थे लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, विपिन चन्द्र पाल, राय बहादुर प्यारेलाल, स्वामी सहजानंद, पंडित मोतीलाल नेहरू, एनी बेसेंट, डॉ. एन.एस. हार्डीकर । उसी दौर में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में भाग लिया और गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा स्थापित श्री निकेतन संस्थान एवं ग्रामोत्थान कार्यों का भी अध्ययन किया।

गांधी जी के साबरमती आश्रम में छः महीने रहकर वहां की कार्य पद्धति का अध्ययन किया, प्रथम असहयोग आन्दोलन में नागपुर जाकर भाग लिया और फिर वापस पोहरी लौटे तो लक्ष्य निर्धारित करके। 12 जनवरी 1921 को पोहरी के ग्राम भटनावर में बच्चों को प्राथमिक शिक्षा व सुसंस्कार देने हेतु मात्र सात बालकों के साथ प्रथम “आदर्श विद्यालय” की स्थापना की। इतना ही नहीं तो पौराणिक जी ने काकोरी काण्ड के रामप्रसाद बिस्मिल आदि क्रांतिकारियों को गुप्त रूप से पूर्ण सहयोग प्रदान किया। कुछ को तो आदर्श विद्यालय में नाम बदलकर छात्र दर्शा दिया गया। बिहार के मोस्ट वांटेड क्रांतिकारी ब्रह्मचारी को आदर्श विद्यालय में अध्यापक बनाकर रखा गया।

पौराणिक जी ने शिवपुरी श्योपुर व ग्वालियर पोहरी के चौराहे पर एक झोंपड़ी बनाई और नाम दिया कल्याण कुटी। आदर्श विद्यालय के पूर्व छात्र श्री वैदेही चरण पाराशर को कल्याण कुटी की व्यवस्था का दायित्व दिया गया। उसी दौरान एक सार्वजनिक सभा में पौराणिक जी ने छुआछूत को लेकर उसकी हानि बताते हुए एक उद्बोधन दिया और कहा कि हम सब एक ईश्वर की संतान हैं, अतः जिन्हें अछूत माना जाता है, उनके साथ भोजन करने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए। बस फिर क्या था, हंगामा खड़ा हो गया। उस सभा में कोलारस के एक पंडित जी भी थे, उन्होंने श्री वैदेही चरण पाराशर जी के घर जाकर उनके माता पिता से कहा कि तुम्हारा बेटा तो अब भंगी चमारों के हाथ का खाना खाने लगा है। धर्म भ्रष्ट हो गया है। बस पाराशर जी के माता पिता कोलारस से पोहरी आ धमके और आमरण अनशन की धमकी देकर वैदेही चरण पाराशर जी को अपने साथ वापस ले गए।

पौराणिक जी ठहरे धुन के पक्के, काम तो चालू रखना ही था, तो विचार किया कि अब कौन व्यक्ति इस कार्य के लिए उपयुक्त हो सकता है, तो उन्हें श्री नारायण दास जी त्रिवेदी का ध्यान आया, जो उन दिनों हिन्दू कालेज दिल्ली में अध्ययनरत थे। उन्होंने नारायण दास जी को सन्देश भेजा तो वे अपनी पढाई बीच में ही छोडकर देवोत्थान एकादशी के पवित्र दिन पोहरी आ भी गए। कुछ ऐसा ही श्रद्धा भाव था उस जमाने की युवा पीढी में श्री गोपाल कृष्ण पौराणिक जी के प्रति। नारायण दास जी त्रिवेदी ही वे महामनाव हैं, जिनका वर्णन हम अगले एपीसोड में करेंगे, उनके कुण्डलिनी जागरण अनुभव आपसे साझा करेंगे। अब चलते चलते श्रीमान खड़गे साहब से एक सवाल। उस दौर के महान गांधीवादी कांग्रेसी उक्त गोपाल कृष्ण पौराणिक बाद में कांग्रेस छोड़ गए। इसे क्या कहेंगे आप ? आजादी की लड़ाई आज की कांग्रेस ने नहीं लड़ी, उसमें तो आमूलचूल परिवर्तन हो चुका है। श्री गोपाल कृष्ण पौराणिक जी के जीवन के अन्य महत्वपूर्ण घटनाक्रम कुछ इस प्रकार हैं -

1934 में कांग्रेस से त्यागपत्र,

1938 में मुम्बई से अंग्रेजी पत्रिका rural india का प्रकाशन

उसी वर्ष महारानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर ग्वालियर महाराज बाड़े पर श्री विनायक दामोदर सावरकर जी के मुख्य आतिथ्य में विशाल आमसभा का आयोजन व वीरांगना की समाधि पर उन्हें श्रद्धांजलि व परिचर्चा का आयोजन

1951 में आचार्य कृपलानी जी द्वारा गठित "किसान मजदूर प्रजा पार्टी" में शामिल

जीवन भर सत्ता और पद की राजनीति से दूर रहने वाले शिवपुरी जिले के आदर्श महानायक श्री गोपाल कृष्ण जी पौराणिक ने 31 अगस्त 1965 को अपनी जीवन यात्रा को विराम दिया, उनका अंतिम संस्कार 1 सितम्बर 1965 को हुआ ।

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