कुण्डलिनी जागरण अनुभव - 3 - स्व. महात्मा नारायणदास जी के अनुभव



कुण्डलिनी जागरण - एक ऐसा विषय जिसको लेकर अमूमन जिज्ञासा भी रहती है, और भ्रांतियां भी बहुत हैं। इसे सिद्ध योगियों का विषय माना जाता है, और आमजनों के लिए बहुत कठिन साधना है, ऐसी भी मान्यता है।

जैसा कि हमने पूर्व में वर्णन किया कि शिवपुरी के महात्मा नारायणदास जी ने इसे स्वशक्ति साधना नाम देकर आमजनों के लिए भी सहज सुगम बताया। आज वे सशरीर तो नहीं हैं, लेकिन उनकी यह साधना पद्धति आज भी उनके अनुयाईयों द्वारा अपनाई जा रही है। तो आज के इस प्रसारण में हम उन्हीं महात्मा नारायणदास जी ने स्वयं यह अनुभव कैसे किया, उनके स्वयं द्वारा वर्णित कुछ अंश साझा कर रहे हैं।

महात्मा जी प्रतिदिन प्रातः काल व सायंकाल दैनिक उपासना, प्राणायाम आसान आदि करते थे। उनका मानना था कि इस साधना से ही उनकी कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो जाएगी और वे जीवन्मुक्त स्थिति प्राप्त कर सकेंगे। उसी दौरान उनकी भेंट 1947 में स्वामी विष्णुतीर्थ जी से हुई व उन्होंने महात्मा जी को एक अंग्रेजी में लिखा लेख पढ़ने को दिया। शीर्षक था - देवात्म शक्ति। उसमें लिखा था -

देवात्म शक्ति या कुण्डलिनी शक्ति तीन प्रकार के व्यक्ति अनुभव करते हैं। एक तो वे महात्मा जो जन्मजात शक्ति संपन्न होते हैं। दूसरे वे जो किसी शक्ति संपन्न सद्गुरू की शरण में जाकर शक्तिपात द्वारा यह शक्ति जागृत कर लेते हैं। और तीसरे वे जो साहित्य पढ़कर या सद्गुरुओं की चर्चा सुनकर स्वयं साधना रत होते हैं और सफल हो जाते हैं। महात्मा जी प्रारम्भ से स्वाध्यायी छात्र रहे थे अतः उन्हें तीसरा प्रकार ही पसंद आया और फिर सतत साधना द्वारा शक्ति की अनुभूति हेतु जुट गए। उन्होंने पढ़ रखा था कि प्रत्येक व्यक्ति जिस शक्ति के साथ जन्म लेता है, उसका बहुत थोड़ा अंश ही उपयोग करता है। उसकी शेष शक्ति मूलाधार (मलद्वार व जननेन्द्रिय के मध्य) में संकलित रहती है। उसे जागृत करने का ही नाम है कुण्डलिनी जागरण। वह शक्ति सर्प के समान कुंडली मारकर रहती है और जागृत होने पर लहराती हुई मेरुदंड के मध्य से गुजरने वाली सुषुम्ना नाड़ी से होती हुई स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा चक्र से होते हुए सर के शीर्ष भाग में स्थित सहस्त्रार चक्र तक पहुँचती है। अतः वे ध्यान में बैठते तो मूलाधार पर ध्यान केंद्रित करते। मन में यह भावना प्रबलता से रहती कि शक्ति तो अपने अंदर ही है, अतः उसकी अनुभूति भी स्वयं की उत्कट भावना से हो सकती है। शक्ति चूंकि ईश्वरीय अंश है अतः अन्तर्यामी है, यदि मेरी लगन सच्ची है तो वह मुझे अनुभूति कराने की कृपा अवश्य करेगी।

कभी कभी असफलता पर दुःख भी होता, तो भी प्रार्थना करते रहते। फिर आत्म विश्वास जागृत होता और ध्यान साधना का क्रम जारी रहता। इसी प्रकार एक एक दिन व्यतीत हो रहा था। चैत्र मास आया तो नव रात्रि में रामायण पाठ शुरू किया। पाठ के दौरान भी अनुभूति की प्रार्थना जारी रहती। सोचते कि नवरात्रि में अवश्य अनुभूति होगी। रामायण पाठ के बाद गायत्री मन्त्र का जाप करते हुए यही प्रार्थना करते " हे माँ आप मेरी बुद्धि को प्रेरित करें, जिससे अपनी शक्ति की अनुभूति कर सकें। नौ दिन व्यतीत हो गये, राम नवमी के दिन व्याकुलता बहुत बढ़ गई थी किन्तु अनुभव कुछ नहीं हुआ। अब रात को भी नींद उचटने लगी। किन्तु निराशा नहीं आई। यही विचार दृढ रहा कि व्यक्ति शक्ति के अधीन है। वह स्वामिनी है और व्यक्ति सेवक। जब वह व्यक्ति को पात्र समझेगी, तभी उसे अपनी अनुभूति कराएगी। विचार सकारात्मक ही रहे। मन में कहते शक्ति ही भगवती है, वही तो साधना सहित सब काम मुझसे करा रही है। इस चिंतन ने बुद्धि स्थिर कर दी।

चतुर्दशी की रात्रि में अपेक्षाकृत अधिक बेचैनी रही लक्ष्य प्राप्ति की इच्छा चरम पर पहुँच गई। प्रातः लगभग तीन बजे ही उठ गए और नित्य नियम से निवृत्त होकर उपासना में बैठ गए। उस दिन अर्थात 5 अप्रैल 1947 को हनुमान जयन्ती भी थी। उस दिन उपासना के दौरान उनकी स्थिति विचित्र हो गई। उपासना के दौरान जैसे ही प्राणायाम प्रारम्भ किया, हाथ अकस्मात नासिका से स्वतः हट गए। ठोड़ी गले के गड्ढे पर जा लगी। श्वांस कुछ देर को रुक सी गई। मस्तिष्क में विचित्र प्रकार सी संवेदना होने लगी। अचानक मूलाधार के स्थान कट कट की ध्वनि हुई और तीन जोर के झटके से लगे। सारे शरीर में कम्प होने लगा। उस समय जो स्थिति हुई वर्णनातीत है। हर्ष और विस्मय युक्त मूर्छावस्था जैसी स्थिति थी।

उसके बाद जब भी उपासना में बैठते उपासना विधि में पूरी तरह परिवर्तन हो गया। न तो उनकी इच्छा से प्राणायाम हुआ, न माला फेर सके। शरीर से विभिन्न प्रकार की क्रियाएं होने लगीं, जैसे किसी शक्ति के अधीन हो गए हों। अनेक प्रकार के आसान लगने लगे, किन्तु इस प्रकार स्वतः होने वाली क्रियाएं सुखाकर थीं, शरीर से कोई और शक्ति क्रियाएं करवा रही है, किन्तु इससे कोई भय या चिंता नहीं हुई। बल्कि शक्ति की इस अनुभूति से प्रसन्नता ही हुई। इस स्थिति में आने के पूर्व जब वे आसान आदि लगाते थे, तब तकान होती थी, किन्तु अब जो आसन लग रहे थे, पहले से अधिक देर तक लग रहे ते, किन्तु थकान का नाम नहीं था। उपासना से उठने के बाद शरीर हल्का और पुलकित रहता था। ख़ास बात यह कि स्वतः होनेवाली ये क्रियाएं व आसन सदा एक से नहीं होते थे, प्रतिदिन उनमें कुछ न कुछ बदलाव होता था। पहले उपासना अधिकतम एक घंटे करते थे, किन्तु अब समय दो ढाई घंटे लगने लगा। कभी कभी शास्त्रीय आलाप स्वतः होने लगे, साथ में हाथ भी गतिशील रहते,कुछ न कुछ क्रियाएं होती रहतीं।

धीरे धीरे उपासना के बाद भी दिनचर्या में शक्ति की अनुभूति होने लगी। कोई कठिनाई आती, कोई शंका होती, तो समाधान भी सूझ जाता। ऐसा स्पष्ट होने लगा कि शक्ति वस्तुतः माँ सदृश्य है, जो अपने बालक की त्रुटियाँ बाउट मधुर और सुन्दर ढंग से दूर कर रही है, साथ ही उसका सतत मार्गदर्शन कर रही है।

महात्मा जी ने अपनी पुस्तकों के माध्यम से यही सन्देश दिया है कि कुण्डलिनी या स्वशक्ति साधना कोई सिद्धि पाने के लिए नहीं वरन ईश्वरीय अनुभूति का माध्यम है। बैसे भी अपने यहां मनीषी कह ही गए है - जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। शक्ति तो ऊर्जा है, महात्मा जी सात्विक साधक थे, अतः अतः उन्होंने शक्ति से ईश तत्व का दर्शन किया। सम्भवता कोई अन्य व्यक्ति उसी शक्ति से भौतिक सुख सुविधा हस्तगत करने का प्रयास करे और सफल हो जाए। शक्ति है यह ध्रुव सत्य है। उसकी अनुभूति अलग अलग व्यक्तियों को अलग अलग प्रकार से हो सकती है। इसी प्रकार शक्ति की अनुभूति में लगाने वाला समय भी काम या ज्यादा हो सकता है। सबसे बड़ा लाभ इस साधना का यह है कि शक्ति की अनुभूति से व्यक्ति के अहंकार का नाश होता है, जो व्यक्ति का सबसे बड़ा शत्रु है। एक बार यह अनुभव होते ही कि हम तो सेवक हैं परम सत्ता तो शक्ति है, अहंकार कहाँ रहेगा।

आज भी महात्मा नारायणदास जी के शिष्यों द्वारा नारायण आध्यात्मिक ट्रस्ट शिवपुरी में संचालित किया जा रहा है। जौरा निवासी श्री भगवानदास जी पाठक पूरे अंचल में स्वशक्ति साधना हेतु मार्गदर्शन दे रहे हैं। जिनका संपर्क नंबर नीचे डिस्क्रिप्शन में देखा जा सकता है।
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