पतिव्रता रूपमती और बाज बहादुर की अनोखी कारुणिक प्रेम गाथा।



धार से लगभग 35 कि. मी. दूर विन्ध्य पर्वत श्रंखला के शीर्ष पर स्थित है माण्डव गढ़ अर्थात मांडू । कन्नौज के प्रतिहार नरेशों के समय में परमार वंशीय श्रीसरमन को मालवा सौंपा गया। प्रतिहारों के पतन के पश्चात् परमार स्वतंत्र हो गए और उनकी वंश परम्परा में मुंज, भोज आदि प्रसिद्ध नरेश हुए। मुंज और भोज से सम्बंधित लिंक आप वीडियो के अंत में देख सकते हैं। 12वीं, 13वीं शतियों में शासन की डोर जैन मंत्रियों के हाथ में थी और मांडवगढ ऐश्वर्य की चरम सीमा तक पहुँचा और हिन्दू मन्दिरों के अतिरिक्त 300 जैन मन्दिर भी यहाँ की शोभा बढ़ाते थे।

अलाउद्दीन ख़िलजी के माण्डू पर आक्रमण के पश्चात् यहाँ से हिन्दू राज्य सत्ता ने विदा ली। यह आक्रमण अलाउद्दीन के सेनापति आइरन-उलमुल्क ने किया था। इसने यहाँ पर क़त्ले-आम भी करवाया था। 1401 ई. में माण्डू (मंडू) दिल्ली के तुग़लकों के आधिपत्य से स्वतंत्र हो गया और मालवा के शासक दिलावर ख़ाँ ग़ोरी ने माण्डू के पठान शासकों की वंश परम्परा प्रारम्भ की। दिलावर ख़ाँ का पुत्र होशंगशाह पिता से अनबन के चलते 1405 ई. में माण्डू में आ गया और बाद में अपने पिता को जहर देकर मरवा डाला। इस क्रूरकर्मी राज्य वंश में ही 15वीं शती के अन्त में ग़यासुद्दीन गद्दी पर बैठा और उस ने विलासता का वह दौर शुरू किया जिसकी चर्चा तत्कालीन भारत में चारों ओर थी। कहा जाता है कि उसके हरम में 10 सहस्र सुन्दरियाँ थीं। 1531 ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने माण्डू पर हमला कर मांडू को अपने अधिकार में ले लिया। और 1534 ई. में हुमायूँ ने यहाँ पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। लेकिन 1542 में शेरशाह ने मांडू जीतकर अपने रिश्तेदार शुजाअत खान को यहाँ का शासक नियुक्त किया। उसके बाद उसका बेटा मलिक वायज़ीद 1554 ई. में मालवा का सुलतान हुआ। यही मलिक वायज़ीद "बाज बहादुर" के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

यूं तो "बाज बहादुर" का इतिहास केवल पराजय का इतिहास है, लेकिन उसकी अनिंद्य सुंदरी पत्नी रूपमती और उसकी प्रेम गाथा ने उसे न केवल इतिहास में वरन लोकगाथाओं में भी अंकित करवा दिया। सुलतान बनने के बाद उसने गोंडवाना की रानी दुर्गावती पर चढ़ाई की, किन्तु पराजित हुआ। अपनी पराजय का गम उसने संगीत और नृत्य के सहारे दूर किया। तबकात ए अकबरी के लेखक निजामुद्दीन अहमद ने लिखा कि एक बार जब "बाज बहादुर" जंगल में शिकार को गया, तो वहां एक ठाकुर की बेटी के सौंदर्य को ठगा सा देखता ही रह गया, जो अपनी सहेलियों के साथ वन विहार को वहां आई हुई थी। "बाज बहादुर" ने उस लड़की के पिता को विवाह का प्रस्ताव भेजा, जो अनिच्छा से उस बेचारे को मानना ही पड़ा। रूपमती जी हाँ यही नाम था उस क्षत्राणी का जिसने "बाज बहादुर" से विवाह तो किया, किन्तु अपनी आस्थाओं पर अडिग रही। बिना माँ नर्मदा का दर्शन और पूजन किये वह भोजन ग्रहण नहीं करती थी। वह संगीत, नृत्य, चित्रकारी में तो प्रवीण थी ही, किन्तु साथ ही, अचूक तीरंदाज भी थी। कई बार तो वह शिकार के दौरान "बाज बहादुर" को पीछे कर हिंसक पशुओं का शिकार स्वयं किया करती थी।

बाज़बहादुर और रूपमती की प्रेमकथाएँ आज भी मालवा के लोकगीतों में गूंजती हैं। बाज़बहादुर संगीत रसिक और अद्भुत प्रेमी था। अपनी प्रिय पत्नी के लिए उसने नौका के आकार का जहाज़ महल और हिंडोला महल विशेष रूप से बनवाए थे। बाज़बहादुर और रूपमती के महलों के पास ही रेवाकुंड स्थित हैं, जिसमें भूमिगत नहरों के माध्यम से जमीन के अंदर ही अंदर विशेष रूप से नर्मदा का पानी पहुँचाया जाता था, जिससे रूपमती प्रतिदिन माँ नर्मदा के दर्शन कर सके। जब बाज बहादुर वीणा बजाते और रानी रूपमती राग टोडी का आलाप करतीं, तो जंगल से हिरण भी उनके कक्ष में आ जाते।

1570 ई. में रूपमती के सौंदर्य पर मुग्ध अकबर के सेनापति आदमखाँ ने मांडू पर चढ़ाई कर दी। आदम खां अकबर को दूध पिलाने वाली धाय माहम का बेटा था, और उसने ही अकबर को मांडू पर आक्रमण के लिए प्रेरित किया। और उसके बाद अकबर की राज्य तृष्णा और आदम खां की रूप तृष्णा ने हिंसा का वह सैलाब लाया, जिसमें यह सुरम्य वादी रक्त में डूब डूब गई। मांडवगढ़ से दस कोस की दूरी पर सारंगपुर नामक स्थान जहाँ दोनों ओर की सेनामें भिड़ंत हुई। अकबर की शाही सेना द्वारा बरसाई गई भीषण आग में बाज बहादुर की सेना तिनके के समान जल गई। घायल बाज बहादुर युद्ध भूमि से पलायन कर गया।

मुग़ल सेना रूपी आग का बबंडर जब मांडू में प्रविष्ट हुआ, तो स्वर्ग समान वह ऐश्वर्यशाली भूमि, देखते ही देखते खँडहर बन गई। नौका के आकार का बना हुआ वह दो मंजिलों वाला 361 फुट लम्बा जहाज महल, जगह जगह से क्षत विक्षत हो गया। उसके दोनों ओर लहराते हुए मुंज सागर और कर्पूर सागर का जल रक्त रंजित हो गया। समीप ही हिंडोला महल में स्थित बाज बहादुर की न्यायशाला जैसे अन्याय के दांतों में पिस गई।  कई इतिहासकारों ने लिखा कि बाज बहादुर जाते जाते अपने विश्वस्तों को आदेश दे गया कि उसके हरम की सभी बेगमों को क़त्ल कर दिया जाए। तीन सौ रूपसियों के रक्त से नहा गया मांडवगढ़। तलवार का वार हल्का पड़ने के कारण तीन बेगमें मरने से बच गईं, केवल घायल भर हुईं। उनमें से रानी रूपमती भी एक थी।

रूपमती बच गईं और आदमखाँ के हत्थे चढ़ गईं। आदम खान और आसिफ़ख़ाँ ने बाज़बहादुर को परास्त कर माण्डू पर अधिकार कर लिया। आदम खां ने रूपमती का उपचार करवाया और उनके ठीक हो जाने के बाद उनके पास अपना प्रणय निवेदन पहुँचाया। उसका जबाब रूपमती ने कुछ यूं दिया -

रूपमती दुखिया भई, बिना बहादुर बाज,
यह जियरा अब तजत है, यहाँ नहीं कछु काज।

उसके बाद रूपमती ने विषपान करके अपने जीवन का अन्त कर लिया। घटना चक्र उसके बाद भी तेजी से घूमा। माण्डू की लूट में हिस्से को लेकर दोनों सेना नायकों आदमख़ाँ और आसिफ़ख़ाँ में तकरार हुई और आसिफ खां मारा गया। अकबर को जब सारे समाचार मिले तो उसने आदमख़ाँ को आगरा के क़िले की दीवार से नीचे फिकवा दिया। आदम खां गंभीर घायल हुआ, किन्तु मरा नहीं। उसके जीवित बच जाने का समाचार पाते ही अकबर ने उसे दोबारा किले से नीचे फिकवा दिया। कहाँ तक बचता आदम खां। उसे तो मरना ही था। और इस प्रकार अकबर का वह दूध भाई अकबर की धाय का बेटा मौत का ग्रास बना। कौन जाने यह उस विशुद्ध भारतीय नारी एक पतिव्रता रूपमती के श्राप का ही असर हो ।
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