बैजू बाबरा से पराजित तानसेन को क्या अकबर ने दिया मृत्युदंड ?


बैजू बाबरा को लेकर अनेक मान्यताएं हैं। उनको बाबरा क्यों कहा गया, इसको लेकर भी दो मत हैं। पहला तो यह कि जब वे चंदेरी के सूबेदार को सितार सुनाने व गायन कला सीखाने दुर्ग में जाते थे, तभी कला नामक युवती पर मुग्ध हो गए । इसी कारण लोग उन्हें बाबरा कह कर पुकारने लगे । तो कुछ का मानना है कि हमेशा भगवद्भक्ति में तल्लीन रहने के कारण लोग इन्हें बावरा कहने लगे। बैजू के जीवनकाल को लेकर भी मतभेद है। प्रसिद्ध साहित्यकार वृंदावनलाल वर्मा ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास मृगनयनी में इन्हें ग्वालियर के तोमर नरेश मानसिंह के समय का माना है। उनके अनुसार बैजू ने मानसिंह की गूजरी पत्नी मृगनयनी को भी संगीत की शिक्षा दी थी ।

जबकि अनेक विद्वान उन्हें तानसेन का समकालीन मानते हैं। इतना ही नहीं तो दोनों को संत हरिदास का शिष्य भी निरूपित किया जाता है। इसी मान्यता पर आधारित जनश्रुति के अनुसार बैजू ने संगीत में तानसेन को भी पराजित कर दिया था । इसमें सचाई कितनी है, किन्तु प्रसंग रोचक अवश्य है। कहा जाता है कि तानसेन से प्रभावित अकबर ने अपने राज्य में एक आदेश ही प्रसारित कर दिया था कि तानसेन के अतिरिक्त कोई भी अगर गायेगा तो उसे तानसेन का प्रतिद्वंदी माना जाएगा और उसे तानसेन से प्रतियोगिता करनी होगी। इतना ही नहीं तो पराजित होने पर उसे फांसी भी दे दी जाएगी। दुर्भाग्य से एक दिन कुछ साधू भगवान का भजन गाते हुए नगर में पहुँच गए व राजाज्ञा का शिकार हो गए। बाक़ी साधू तो फांसी पर लटका दिए गए, किन्तु एक आठ वर्षीय बालक को दया कर छोड़ दिया गया।

दुखी बालक तानसेन के गुरू संत हरिदास जी के पास पहुंचा व स्वयं को शिष्य बनाने की प्रार्थना की। संत हरिदास जी ने बालक को न केवल संगीत सिखाया, वरन सनातन मानव धर्म की भी शिक्षा दी। बालक तरुण होने के बाद एक बार फिर आगरा पहुंचा और सीधे राजदरवार में जाकर तानसेन से संगीत में मुकाबला करने की इच्छा व्यक्त की। यह पहला अवसर था जब किसी ने यह दुस्साहस किया हो, अचंभित अकबर ने पहले समझाया किन्तु फिर अनुमति दे दी।

तानसेन ने शुरूआत की और उनका गायन सुनकर दरवार में हिरण आ गए। उनमें से एक हिरण के गले में अपनी माला डालकर तानसेन ने गायन बंद कर दिया। जैसे ही गाना बंद हुआ, हिरण वापस भाग गए। तानसेन ने बैजू से अपनी माला वापस लाने को कहा। मुस्कुराते हुए बैजू ने यह कार्य बड़ी ही आसानी से कर दिखाया। उन्होंने गाया, हिरण वापस आये, उनमें वह हिरण भी था, जिसके गले में तानसेन की माला थी। बैजू ने उस हिरन के गले से माला निकलकर तानसेन के हाथों में थमा दी।

अब बैजू की बारी थी। उन्होंने मंजीरा बजाते हुए जब तान छेड़ी तो सामने रखा पत्थर पिघल गया। बैजू ने अपना एक मंजीरा उस पिघले पत्थर में रख दिया। बिना कहे ही सब समझ गए कि अब तानसेन को क्या करना होगा। तानसेन ने भरसक प्रयत्न किया, किन्तु पत्थर को न पिघला सके। अकबर ने दुखी होकर अपने प्रिय तानसेन को फांसी देने का हुकुम सूना दिया और बैजू से इनाम मांगने को कहा। संत हरिदास के उस शिष्य ने केवल एक पुरष्कार की याचना की। भविष्य में किसी को भी गाना गाने के कारण मृत्युदंड न दिया जाए। उन्होंने कहा संगीत तो जीवन दाई है, उसके कारण किसी को मृत्यु दण्ड दिया जाना अन्याय है। तानसेन तो मुक्त हुए ही और भी न जाने कितने लोगों की जान बची होगी।

बैजू बाबरा एक सिद्धहस्त कवि भी थे, उनके कुछ पद रागकल्पद्रुम व नर्मदेश्वर चतुर्वेदी लिखित “संगीतज्ञ कवियों की हिन्दी रचनाएं” में संग्रहीत है। एक बानगी देखिये -

अनंत ब्रह्माण्ड के नायक, परब्रह्म श्री श्रीधर महाराज,

कृपासिंधु भक्तपाल, सुखकरण कृपाल गरीब निवाज,

यह विनती सुन लीजे, तेरो अंत नहीं तृम अनंत पूजूँ,

तोहे बाँधूँ भुजकर जाय दुःख भाज।।

बैजू प्रभु अनादि अलख, अगोचर निरंजन निराकार,

भक्तकाज कोटि कोटि रूप धरे संतन सिरताज ।।

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