सम्राट हर्षवर्धन जैसे चरित्र पर फिल्म बनाकर अपनी इज्जत बचा सकता है बॉलीबुड ।

 


यूं तो हमने सम्राट हर्ष वर्धन को लेकर पूर्व में भी विडिओ निर्मित किया है, किन्तु आजकल बॉलीबुड में जिस प्रकार की फ़िल्में निर्मित हो रही हैं, जिस प्रकार फिल्मी दुनिया लगातार आलोचना का शिकार हो रही है, उनकी छीछालेदर हो रही है, और दूसरी ओर दक्षिण की कई फ़िल्में बॉक्स ऑफिस के सारे रिकॉर्ड तोड़ रही है, उससे मेरे मन में सवाल उठा कि क्या अब हिंदी फिल्म लेखकों को जनप्रिय कथानकों को चुनने की सामर्थ्य ही समाप्त हो गई है ? सम्राट हर्षवर्धन की गाथा एक ऐसा ही कथानक है, जिसमें वह सब कुछ है, जो हिंदी फिल्मों के दर्शकों को बेहद पसंद आ सकता है। इसमें  कोई सांप्रदायिक कड़वाहट नहीं है, अगर कुछ है तो पारिवारिक प्रेम, सौहार्द्र, और एक आदर्श जननायक कैसा होना चाहिए, इसका दिग्दर्शन। चीनी यात्री व्हेनसांग ने हमारे जिस आदर्श राजा की शान में कसीदे पढ़े, उसका ही यह कथानक एक नए दृष्टिकोण से  प्रस्तुत है। पूरा देखिये और बताईये कि इस शक्तिशाली, पराक्रमी, विद्वान, कवि, और दानवीर नायक के कथानक पर एक सफल जनप्रिय फिल्म बन सकती है अथवा नहीं ?

आज भले ही थानेसर हरियाणा में कुरुक्षेत्र जिले की मात्र एक तहसील है, किन्तु छठी शताब्दी के अन्त में यह पुष्यभूति वंश की राजधानी था। इसी सूर्योपासक पुष्यभूति वंश के प्रतापी राजा थे प्रभाकर वर्धन। उनका शासन पंजाब से लेकर राजस्थान व गुजरात तक विस्तीर्ण था। आयु के उत्तरार्ध में प्रभाकर वर्धन को महारानी यशोमती से तीन संतानें प्राप्त हुई, दो पुत्र राज्यवर्धन और हर्ष वर्धन तथा एक कन्या राज्यश्री। दोनों राजकुमारों तथा राजकुमारी राज्यश्री को यथायोग्य शिक्षा प्रदान की गई | वाण लिखते हैं कि कठोर शस्त्राभ्यास से राजकुमारों के हाथ श्याम हो गए थे | उन्होंने अपने शरीर को पर्याप्त बलिष्ठ बना लिया था | वे कुशल धनुर्धारी तथा हर प्रकार के अस्त्र शस्त्रों के प्रयोग में भी दक्ष हो गए |

प्रभाकर वर्धन ने मालवा नरेश महासेन गुप्त को न केवल पराजित किया वरन उनके दो पुत्रों को भी अपने यहाँ जमानत के तौर पर रखा। यहाँ से एक खलनायक का कथनक में आगमन होता है। मालवा के बड़े राजकुमार देवगुप्त को यह पराजय कचोटती रही। जब राजकुमारी राज्यश्री विवाह योग्य हुई तब देवगुप्त ने अपनी पराजय को विजय में परिवर्तन करने हेतु राज्य श्री से विवाह की इच्छा जताई, किन्तु एक पराजित राजपरिवार से अपनी पुत्री का विवाह करना महाराज प्रभाकर वर्धन ने स्वीकार नहीं किया और राज्य श्री का विवाह कन्नौज के मौखरी राजा गृहवर्मा के साथ धूमधाम से संपन्न हुआ | पिता की मृत्यु के बाद मालवा नरेश बन चुके देव गुप्त और भी जलभुन गए।

६०४ ईसवी के आसपास राज्य की उत्तर पश्चिमी सीमा पर हूणों ने आतंक मचाना शुरू किया तो वृद्ध राजा प्रभाकर वर्धन ने बड़े पुत्र राज्य वर्धन को एक विशाल सेना के साथ हूणों के दमन हेतु भेजा | हूणों पर विजय पाकर जब राज्यवर्धन लौटे तब तक राजा स्वयं स्वर्ग सिधार चुके थे | दुर्भाग्य इतने पर ही शांत नहीं हुआ, एक और बुरा समाचार शीघ्र ही उन्हें प्राप्त हुआ | राजा प्रभाकर वर्धन की मौत का समाचार पाकर व राजकुमारों की कम आयु को देखते हुए राज्य के शत्रुओं को उपयुक्त अवसर प्रतीत हुआ और मालवा के अधिपति देवगुप्त ने गौड़ राजा शशांक के साथ मिलकर राज्यश्री के पति कन्नौज के शासक गृहवर्मा को मारकर रानी राज्यश्री को कारागार में डाल दिया | समाचार पाते ही राज्य वर्धन दस हजार सैनिकों के साथ शशांक को सबक सिखाने हेतु कन्नौज की ओर निकल पड़े | राज्य वर्धन ने आसानी से विजय प्राप्त कर ली, किन्तु फिर गौड़ नरेश शशांक ने उन्हें आदर के साथ मीठी मीठी बातें कर राजमहल में आमंत्रित किया और वहां उस विश्वासघाती ने राज्यवर्धन की हत्या कर दी |

लेकिन तब तक पराजय का समाचार पाकर मालवा राजपरिवार के ही किसी सदस्य ने राज्य श्री को मुक्त कर दिया और वह दुखी ह्रदय से वन को प्रस्थान कर गई। अब पराक्रम दिखाने की बारी सोलह वर्षीय हर्ष वर्धन की थी | वे अपने ममेरे भाई व बालसखा भांडी के साथ बदला लेने को रवाना हुए, किन्तु मार्ग में ही समाचार प्राप्त हुआ की बहिन राजश्री बंधन मुक्त हो कर वन को प्रस्थान कर गईं हैं | हर्ष ने आक्रमण की बागडोर भांडी को सोंपी और स्वयं बहिन की खोज में निकल पड़े | उन्होंने राजश्री को उस समय पाया, जब वह चिता सजाकर स्वयं को दग्ध करने जा रही थी | इधर हर्ष वर्धन उसे किसी प्रकार समझाबुझाकर वापस लाये, उधर भांडी शत्रु पर विजय पा चुके थे | मालव राज उनके भय से युद्ध के पूर्व ही कन्नौज छोड़कर भाग गया था |

आप ही बताईये कि हर्ष वर्धन की यह गाथा कितनी रोमांचकारी है ? उन पर विपत्तियों के बदल कितनी भयावहता से उमड़े, स्वजनों की मृत्यु के कितने शूल उनके ह्रदय में चुभे, किन्तु कितने धैर्य से उन्होंने संकटों का सामना किया, और अंततः विजय प्राप्त की।

कहानी तो आगे और भी है। उसके बाद तो एक के बाद एक अनेक राज्यों पर हर्ष ने अपनी विजय पताका फहराई, लेकिन खास बात यह है, उन पराजित राजाओं का राज्य अपने राज्य में मिलाने के स्थान पर उन्हें स्वाधीन रखा और अपना मित्र बनाया | पूरब से पश्चिम तक उत्तर भारत का सम्पूर्ण प्रदेश उनके राज्य के दौरान शांति और समृद्धि के नवयुग में प्रवेश कर गया | एक बार दिग्विजय करने के बाद हर्ष ने लगभग 43 वर्ष शांतिपूर्वक शासन किया | चीनी यात्री व्हेनसोंग ने भी लिखा कि

अपने भाई की हत्या का बदला लेकर उसने अपने आप को भारत का अधिपति बनाया | उसकी ख्याति सब ओर फ़ैल गई, प्रजा के लोग उसके गुणों का आदर करते थे | वह प्रति पांच वर्ष में एक महामोक्ष परिषद् का आयोजन करते थे, जिसमें अपना कोष दान रूप में वितरित कर देते थे | हर्ष के दानोत्सव में बौद्ध श्रमण, निर्धन ब्राह्मण तथा अनाथ सभी सम्मिलित हुए | इस दान महोत्सव में न केवल खजाना खाली हो गया, बल्कि राजा ने अपने शरीर पर पहिने हुए हीरे जवाहरात व आभूषणों को भी दान कर दिया | दान वितरण के उपरांत इस पुण्यात्मा राजा ने कहा ईश्वर करे कि मैं आगामी जन्म जन्मान्तरों में भी इसी प्रकार अपने धन भण्डार को मानव जाति की पीड़ा मिटाने हेतु दान करता रहूँ |

६४१ से ६४६ ईसवी के बीच उनकी जीवन लीला कब समाप्त हुई, यह ठीक ठीक ज्ञात नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि यह राजवंश उत्तराधिकारी विहीन था, राज्यवर्धन और हर्ष वर्धन दोनों ही निसंतान स्वर्गवासी हुए | स्वाभाविक ही हर्ष के बाद यह साम्राज्य छिन्न भिन्न होकर नष्ट हो गया, लेकिन हर्ष अपने सद्गुणों के कारण इतिहास में अमर हो गए |

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