मेवाड़ रक्षक वीरवर जयमल - जीवन संघर्ष और बलिदान

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राव वीरमदेव जी के स्वर्ग सिधारने के बाद फरवरी 1544 में उनके बड़े बेटे राव जयमल मेड़ता के सिंहासन पर आरुढ़ हुए। न केवल मेड़तिया राजवंशी में बल्कि...



राव वीरमदेव जी के स्वर्ग सिधारने के बाद फरवरी 1544 में उनके बड़े बेटे राव जयमल मेड़ता के सिंहासन पर आरुढ़ हुए। न केवल मेड़तिया राजवंशी में बल्कि समूचे राजपूताने में वे अत्याधिक प्रतापी और प्रसिद्ध राजा हुए। स्वदेशी इतिहासकारों ने तो उनकी वीरता का बखान किया ही है, अबुल फजल, निजामुद्दीन, बदायूनी तथा फिरिश्ता जैसे मुस्लिम इतिहासकारों ने भी उनकी अलौकिक वीरता का वर्णन किया है। बाद के अंग्रेज इतिहासकार कर्नल टाड, इलियट स्मिथ, स्ट्रेटन, वाल्टर, लेनापूल आदि ने भी उनके वीरतापूर्ण इतिहास का गौरवपूर्ण वर्णन किया है।

अपने पिता वीरमदेव जी के समान ही इनका भी जोधपुर नरेश मालदेव जी से सदा विरोध रहा। २४ मई 1545 को शेरशाह का देहांत होने के बाद सोजत के पास हे युद्ध में राव मालदेव ने पठानों को परास्त कर जोधपुर पर पुनः अधिकार कर लिया। इसके बाद अपनी सैन्य शक्ति बढाकर उन्होंने अजमेर को भी अपने अधिकार में ले लिया। मेवाड़ के तत्कालीन अधिपति राणा उदयसिंह जी ने अजमेर की मदद करने हेतु सेना भेजी, किन्तु तब तक इस आपसी फुट का लाभ उठाकर बादशाह सलीमशाह की सेना ने अजमेर राठौड़ों से छीनकर उसे अपने अधिकार में ले लिया। इस घटना से कोई सीख न लेते हुए राव जयमल ने मेड़ता पर आक्रमण कर दिया । फिर तो राव मालदेव और राव जयमल का संघर्ष एक प्रकार से रूटिन ही हो गया। कभी जयमल जीतते तो कभी मालदेव। दोनों के बीच बाईस युद्धों का वर्णन मिलता है। इन युद्धों में दोनों पक्षों की बहुत अधिक धन हानि और जन हानि हुई।

तीन बार राव जयमल को मेड़ता पर अपना अधिकार छोड़ना भी पड़ा। ऎसी स्थिति उत्पन्न होने पर चित्तौड़ के महाराणा उदय सिंह उन्हें बदनोर का इलाका प्रदान कर दिया। किन्तु मेड़ता का मोह राव जयमल छोड़ नहीं पाते थे और उसे वापस पाने का उद्योग करते रहते थे। आख़िरी बार तो उन्होंने बादशाह अकबर की मदद से भी मेड़ता पर पुनः अधिकार जमाया। सात नवम्बर 1562 को मालदेव जी की मृत्यु के बाद ही यह विरोध रुका।

किन्तु बादशाह और जयमल जी का सद्भाव ज्यादा चला नहीं। शीग्र ही अकबर का सेना नायक मिर्जा शरफुद्दीन बागी हो गया। अकबर ने उसे सबक सिखाने को हुसैन कुली खां को भेजा। मिर्जा तो उसके आगमन का समाचार पाकर ही अजमेर से गुजरात भाग गया, किन्तु जयमल जी को उसका सहयोगी मानकर अकबर ने हुसैन कुली खां को मेड़ता भी ले लेने का आदेश दे दिया। उसके बाद के एक रोचक घटनाक्रम का उल्लेख मिलता है। अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया और महाराणा उदयसिंह की सहायता के लिए राव जयमल जी अपने बहनोई वीरवर रावत पत्ता जी के साथ रवाना हुए । जब ये जंगल में से गुजर रह थे, मार्ग में भीलों ने इन्हें मेवाड़ का शत्रु समझकर आगे बढ़ने से रोका। पत्ता जी स्वभाव से ही उग्र थे। उन्हों ने ऊंची आवाज में भील नायक के सामने ही जयमल जी से पूछा - अठै या उठै ? उनका आशय था मृत्यु का वरण यहाँ ही करना है या मुगलों के साथ युद्ध करते हुए करना है। जयमल जी ने शान्ति से कहा उठै। अर्थात यहाँ नहीं वहां।

इस सवाल जबाब से भीलों को भी समझ में आ गया कि उनसे गलती हो रही है, ये लोग मेवाड़ के शत्रु नहीं मित्र हैं। उसके बाद तो स्वाभाविक ही वे लोग जयमल जी के मित्र हो गए और बाद में जयमल पत्ता और उस भील नायक ने जिस प्रकार मुग़ल सेना का मुकाबला किया, वह तो जगत विख्यात है। महाराणा उदयसिंह किस प्रकार चित्तौड़ रक्षा का भार जयमल जी को सौंपकर स्वयं पहाड़ों पर गए, किस प्रकार राव जयमल जी ने पैर में गोली लगाने के बाद भी राठौड़ वीर कल्ला जी के कंधे पर सवार होकर मरणांतक युद्ध करते हुए वीरगति पाई,किस प्रकार प्रभावित अकबर ने आगरा किले के बाहर हाथी पर बैठे हुए इन दोनों वीरों राव जयमल जी और बावत पत्ता जी की प्रस्तर मूर्ति लगवाई, वह सब प्रसंग हम पूर्व में ही वर्णित कर चुके हैं, उसकी लिंक आप वीडियो के अंत में भी देख सकते है, और डिस्क्रिप्शन में भी। यह कथानक का समापन नहीं है, अगले अंक में आप देखेंगे राव जयमल के पौत्र रतनसिंह और महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह की मित्रता की रोमांचक गाथा। जी हाँ मित्रता भी कम रोमांचक नहीं होती राजपूत वीरों की।
Utube link - https://youtu.be/9FXC6q569f8

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