एक वीरांगना क्षत्राणी के सामने प्राणों की भीख मांगता दुराचारी अकबर।



प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी, उत्तर प्रदेश राज्य के प्रथम मुख्य मन्त्री और भारत के चौथे गृहमंत्री पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त या जी॰बी॰ पन्त का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। सन 1957 में उन्हें भारतरत्न से भी सम्मानित किया गया था । आज का कथानक पंत जी द्वारा लिखित ऐतिहासिक उपन्यास सूर्यास्त पर ही आधारित है। भारत की तथाकथित सेक्यूलर जमात जिस पाखण्ड पूर्ण वातावरण की रचना करते हुए, मुस्लिम आक्रांताओं के कलुषित आचरण पर पर्दा डालने का प्रयास करते हुए उनका महिमा मंडन करती है, उसे आजादी के पश्चात पंत जी हों अथवा श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जी जैसे राजनेताओं ने अच्छी प्रकार उजागर किया था। तो प्रस्तुत है पंत जी द्वारा वर्णित भारत की उस महान वीरांगना की गाथा, जिसने सेक्यूलरों के उस तथाकथित महान अकबर को नाक रगड़ने पर विवश कर दिया था। आईये कल्पना के पंखों पर सवार होकर अकबर के काल की यात्रा करें -

सूर्य जिस दिन मेष राशि में प्रवेश करता है, उसे वर्ष का प्रथम दिवस नव रोज कहा जाता है। यह आनंद का अवसर होता है। इस दिन को अकबर ने खुशरोज नामक एक काल्पनिक उत्सव के रूप में मनाना शुरू करवाया। इस अवसर पर उस दिन अंतःपुर की ललनाएँ, राजपूत व यवन उमरावों की कुलीन महिलाएं तथा वणिक स्त्रियां भी आनंद पूर्वक सम्मिलित होती थीं। वहां स्त्रियां ही विभिन्न प्रकार की सामग्रियां बेचतीं व वे ही खरीददारी भी करतीं। पुरुषों का प्रवेश वहां वर्जित होता था। किन्तु दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा कहलाने वाला अकबर छुपकर उन अप्सरा सद्रश्य रूपसी सुंदरियों के सौंदर्य सुधा का पान करता।

चारों ओर पुष्प मालाओं से सुसज्जित संगमरमर की ऊंची ऊंची अट्टालिकाएं, बीच में काले पत्थर से आच्छादित विस्तीर्ण आँगन, जिसके एक कोने में युवतियां गुलाब के तोड़े, फूल मालाएं, टोपियां, आसन और विभिन्न प्रकार के शिल्प सामग्री विक्रय कर रही हैं और कुल वधुएं उन्हें खरीद रही हैं। प्रांगण में जगह जगह सुन्दर पलंग बिछे हुए हैं, तो चबूतरों पर सुगन्धित इत्र व गुलाब जल के पात्र रखे हुए हैं। बहुमूल्य वस्त्र और अलंकार शोभिता परम सुंदरी हिन्दू तथा मुसलमान युवतियां इच्छानुसार आमोद प्रमोद में लिप्त हैं। कोई वीणा बजा रही हैं, तो कोई गा रही है, तो कोई सुमधुर संगीत ध्वनि पर नृत्य कर रही हैं। घुंघरुओं की झंकार और सुंदरियों के हास्य से वातावरण अत्यंत प्रीतिकर मधुर रस से रमणीय बना हुआ है। 

रंगभूमि के दक्षिण की ओर एक नीलाम्बर वसना, लावण्यमई स्त्री खड़ी है और हँसते हुए अपनी किसी सखी के साथ मधुर भाव से बात कर रही है। उसकी आँखें, दृष्टि, वर्ण सभी कमनीय हैं, अंग प्रत्यंग सुकुमार है। वह राजमोहिनी और कोई नहीं बीकानेरनरेश रायसिंहजी के भाई, कवि कुल शिरोमणि पृथ्वीराज राठौड़ की धर्मपत्नी और महाराणा प्रताप के भाई शक्तिसिंह की पुत्री किरणमई हैं। पश्चिम दिशा की ओर कमख्वाब परदे की ओट से बादशाह अकबर अनिमेष लोचनों से अपलक मनमोहिनी किरणमई को ही देख रहा है। अधेड़ अकबर की आँखों में बीस वर्षीय नौजवान जैसी विषय तृष्णा झलक रही है।

संध्याकाल में खुशरोज का मेला समापन हुआ और सभी महिलायें एक एक कर विदा होने लगीं। किरणमई भी बेगम से विदा लेकर चलने को उद्यत हुईं, तभी एक बुजुर्ग दासी ने आकर उनसे कहा कि आपकी पालकी पूर्व की ओर वाले आंगन में है, जबकि अन्य महिलाएं पश्चिम की ओर जा रही थीं। किरणमई को सपने में भी गुमान नहीं था कि इसमें कोई षडयंत्र हो सकता है, अतः वे सहज भाव से पूर्व दिशा की ओर बढ़ गईं। एक के बाद दूसरा कमरा पार कर जब वे तीसरे कमरे में आईं, तो उनको कुछ संदेह हुआ। आखिर आँगन कितने कमरे पार करने के बाद आएगा ? अगले ही पल उनका हाथ अपनी कमर में बंधी हुई कटार पर गया और वे निश्चिन्त हो गईं। जब क्षत्राणी के पास कटार है, तब भला उसे किसका भय ? शस्त्र साथ हो तो राजपूत महिलायें मृत्यु से भी दो दो हाथ कर सकती हैं। तभी उनके पीछे का द्वार बंद हो गया। किरणमई पीछे पलटीं तो एक व्यक्ति ने उनकी कलाई थामते हुए कहा - सुंदरी क्या सोच रही हो ?

किरणमई ने चकित भाव से परस्त्री का स्पर्श करने वाले उस मूर्ख की ओर देखा और विस्मित हो गईं, वह अकबर था। अकबर बोले जा रहा था, सुंदरी मैंने तुम्हारे लिए बहुत कष्ट सहा है, बड़े कौशल से तुम्हें यहाँ लाया गया है।

बादशाह की बात पूरी होने से पूर्व ही किरणमई ने एक झटके से अपना हाथ छुड़ाया। अकबर उनके इस प्रबल वेग को सहन न कर सका और जमीन पर जा गिरा। किरणमई ने आँचल से अपना मुंह ढक लिया। निर्लज्ज अकबर इसके बाद भी बेशर्मी से बोला - सुंदरी मुझसे विमुख न होओ, मुझे अपना सेवक समझो। किसी को इस घटना की कानोंकान खबर नहीं होगी, हमारे इस गुप्त प्रणय को कोई जान नहीं सकेगा। धन, दौलत, रत्न सब कुछ तुम्हें समर्पित होंगे।

लेखनी तुम चूर्ण हो जाओ, स्याही तुम सूख जाओ, कागज भस्मीभूत होकर अतल जल में समां जाओ, जिसे बेगैरत इतिहासकारों ने महान कहकर सम्बोधित किया, उसका ऐसा कुत्सित आचरण था ? लेकिन नहीं भारतीय सती नारी की गौरव गाथा ने लेखनी को धन्य भी तो किया । क्रोध कम्पित स्वर में किरणमई गरजीं। पापिष्ठ सावधान। तेरे क्षुद्र ह्रदय को धिक्कार है। तू क्या सोचता है, लोभ लालच से मैं अपने सतीत्व का सौदा कर दूंगी ? मेरा रास्ता छोड़ दो, मुझे जाने दो।

बादशाह ने समझ लिया कि किरणमई को बहला फुसला कर नहीं मनाया जा सकता, तो उसने उन्हें भयभीत करने का प्रयत्न किया और बोला। मैं इतनी देर से तुम पर दया दिखाता रहा, लेकिन लगता है तुम उसके योग्य नहीं हो। तुम अभी मुझे जानती नहीं हो।

किरणमई गरजीं - अच्छी तरह जान गई हूँ, तुम मनुष्य के वेश में हिंसक पशु हो। लेकिन सावधान, तुम जैसे सौ बादशाह मिलकर भी किरणमई का सतीत्व नष्ट नहीं कर सकते। यह सुनकर क्रुद्ध बादशाह बलपूर्वक आलिंगन करने आगे बढ़ा। अगले ही क्षण जैसे बिजली कौंधी हो, किरणमई की लात खाकर अकबर जमीन सूंघता नजर आया और हाथ में कटार थामे किरणमई उसकी छाती पर सवार थीं। किरणमई का धीर गंभीर स्वर गूंजा - रे चांडाल, यदि तुझे अपने जीवन का मोह है, तो अपने अल्लाह की सौगंध लेकर प्रतिज्ञा कर कि भविष्य में कभी किसी महिला को इस प्रकार कलंकित करने की चेष्टा नहीं करेगा। उस समय किरणमई की भैरवी मूर्ती ऐसी प्रतीत हो रही थी, मानो दानव दलिनी दुर्गा महिषासुर का संहार कर रही हों।

एक कवि ने उस स्थिति का चित्र इन शब्दों में खींचा है –
सिंहनी-सी झपट, दपट चढ़ी छाती पर,
मानो शठ दानव पर दुर्गा तेजधारी है।
गर्जकर बोली दुष्ट! मीना के बाजार में,
छीना अबलाओं का सतीत्व तू दुराचारी है।
अकबर, आज राजपूतानी से पाला पड़ा,
पाजी चालबाजी सब भूलती तिहारी है।
करले खुदा को याद भेजती यमालय आज,
देख यह प्यासी तेरे खून की मेरी कटारी है।

भय कम्पित अकबर बुदबुदाया - मेरा अपराध क्षमा करो, आज के बाद कभी किसी राजपूत ललना पर कुदृष्टि डालने का साहस नहीं करूंगा। और उसके बाद बादशाह अकबर किसी अपमानित चोर के समान चुपचाप कमरे का दरवाजा खोलकर वहां से भाग गया।
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