स्वामी विवेकानंद - शरद पंवार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नवीन संसद भवन का लोकार्पण।

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने विगत दिवस एक भव्य समारोह में नये संसद भवन का उद्घाटन किया। इस दौरान वहां हवन भी किया गया और सर्वधर्म प्रार्थना भी आयोजित की गई। इतना ही नहीं तो लोकसभा अध्यक्ष के आसन के निकट राजदंड / धर्म दंड (सेंगोल) स्थापित किया गया। स्पष्ट ही इसमें वही सन्देश निहित था, जो कभी स्वामी विवेकानंद ने दिया था -

भाइयो हम सभी को इस समय कठिन परिश्रम करना होगा | अब सोने का समय नहीं है | हमारे कार्यों पर भारत का भविष्य निर्भर है | देखिये भारतमाता तत्परता से प्रतीक्षा कर रही है | वह केवल सो रही है, उसे जगाईये और पहले की अपेक्षा और भी गौरव मंडित और अभिनव शक्तिशाली बनाकर भक्ति भाव से उसे उसके सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दीजिये | जो शैवों के लिए शिव, वैष्णवों के लिए विष्णु, कर्मियों के लिए कर्म, बौद्धों के लिए बुद्ध, जैनों के लिए जिन, ईसाईयों और यहूदियों के लिए जिहोवा, मुसलमानों के लिए अल्लाह और वेदान्तियों के लिए ब्रम्ह है, कल्याणकारी, परम दयालु, हमारा पिता, माता, मित्र, प्राणों का प्राण और आत्मा की अंतरात्मा है – जो सब धर्मों, सब सम्प्रदायों का प्रभु है – जिनकी सम्पूर्ण महिमा केवल भारत ही जानता है, वे ही सर्वव्यापी, दयामय प्रभु हम लोगों को आशीर्वाद दें, हमारी सहायता करें, हमें शक्ति दें, जिससे हम अपने उद्देश्य को कार्यरूप में परिणित कर सकें | हम लोगों ने जो श्रवण किया, वह खाए हुए अन्न के समान हमारी पुष्टि करे, उसके द्वारा हम लोगों में इस प्रकार का वीर्य उत्पन्न हो कि हम दूसरों की सहायता कर सकें |

दुर्भाग्य से कुछ लोगों ने हमारे द्वारा स्वीकृत "धर्म निरपेक्ष" का अर्थ धर्म विहीन कर दिया। जबकि इसका मूल भाव है - सर्व धर्म समभाव। उसीकी अभिव्यक्ति नवीन संसद भवन के लोकार्पण में हुई। धर्म विहीन राज्य के पक्षधर इसीलिए आज तिलमिलाए हुए हैं। शरद पवार ने पुणे में संवाददाताओं से बात करते हुए इसी विचार को स्वर दिया और कहा, ‘‘देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा आधुनिक भारत की अवधारणा की बात करने और नई दिल्ली में आज नए संसद भवन में की गई विभिन्न रस्मों में बहुत बड़ा अंतर है।''

उन्होंने कहा, ‘‘विज्ञान पर समझौता नहीं किया जा सकता। नेहरू ने वैज्ञानिक सोच वाले समाज का निर्माण करने की ओर निरंतर प्रयास किया। लेकिन आज नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में जो कुछ हुआ, वह उससे ठीक उलट है जिसकी नेहरू ने परिकल्पना की थी।'' 

एक बार फिर स्वामी विवेकानंद के उद्घोष को स्मरण करने की आवश्यकता है -

हमारे पुर्वज यदि चाहते, तो ऐसे विज्ञानों का अन्वेषण सहज ही कर सकते थे, जो हमें केवल अन्न, वस्त्र और अपने साथियों पर आधिपत्य दे सकते थे, जो हमें केवल दूसरों पर विजय प्राप्त करना और उन पर प्रभुत्व करना सिखाते, जो बली को निर्बल पर हुकूमत करने की शिक्षा देते | पर उस परमेश्वर की अपार कृपा से हमारे पूर्वजों ने उस ओर बिलकुल ध्यान नहीं दिया | एकदम दूसरी दिशा पकड़ी, जो पूर्वोक्त मार्ग से अनंत गुना श्रेष्ठ और महान थी | यही हमारी जाति का वैशिष्ट्य है और उस पर कोई आघात नहीं कर सकता | बर्बर जातियों ने यहाँ आकर तलवारों और तोपों के बल पर अपने बर्बर धर्मों का प्रचार किया, पर उनमें से एक भी हमारे मर्मस्थल को स्पर्श न कर सका, सर्प की उस मणि को न छू सका, जातीय जीवन के प्राणस्वरुप उस हीरामन तोते को न मार सका |


यदि हम अपनी इस सर्वश्रेष्ठ विरासत आध्यात्मिकता को न छोड़ें तो संसार के सारे अत्याचार – उत्पीडन और दुःख हमें बिना चोट पहुंचाए ही निकल जायेंगे और हम लोग दुःख कष्टाग्नि की उन ज्वालाओं से प्रहलाद के समान बिना जले बाहर निकल जायेंगे | अपनी बिखरी हुई आध्यात्मिक शक्तियों को एकत्रित करना ही भारत में जातीय एकता स्थापित करने का एकमात्र उपाय है | जिनकी ह्रत्तंत्री एक ही आध्यात्मिक स्वर में बंधी है, उन सबके सम्मिलन से ही भारत संगठित होगा | सम्प्रदायों का होना तो स्वाभाविक है, परन्तु जिसका होना आवश्यक नहीं है, वह है इन सम्प्रदायों के बीच के झगड़े झमेले | सम्प्रदाय अवश्य रहें पर साम्प्रदायिकता दूर हो जाए | हमारे प्राचीनतम शास्त्रों ने घोषणा की है – एकं सद्विप्रा वहुधा वदन्ति – “विश्व में एक ही सद्वस्तु विद्यमान है, ऋषियों ने उसी एक का भिन्न भिन्न नामों से वर्णन किया है | अतः ऐसे भारत में जहां सभी सम्प्रदाय सदैव समान रूप से सम्मानित होते आये हैं। 

अब यह हमपर है कि हम स्वामी विवेकानंद के विचारों से अनुप्राणित होते हैं अथवा शरद पंवार जैसे कुर्सी परस्त राजनेता से, जिसकी हबस आयु के उत्तरार्ध में भी कम नहीं हुई है। 

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