सावरकर समझा क्या ?

आजकल जो देखो वो कुपढ़ छुटभैया ट्वीट कर रहा है - सावरकर समझा क्या ?

अनपढ़ वो होता है, जो पढ़ालिखा न हो, किन्तु कुपढ़ वह होता है, जिसने डिग्रियां तो बड़ी बड़ी ले ली हों, किन्तु समझा या तो रती भर न हो, और जो समझा भी हो वह अर्थ का अनर्थ कर के। तो ऐसे ही कुपढ़ लोग सावरकर जी को मरणोपरांत ट्रोल कर अपनी असांस्कृतिकता और अभारतीयता को सार्वजनिक कर रहे हैं।

राउल विंची और उनकी माता श्री की चिढ समझ में आती है, क्योंकि सावरकर जी ने ही हिन्दू की परिभाषा कुछ इस प्रकार की थी -

आसिन्धु सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका,
पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरितीस्मृतः।

अर्थात समुद्र से हिमालय तक भारत भूमि जिसकी पितृभूमि है, जिसके पूर्वज यहीं पैदा हुए हैं व यही पुण्य भूमि है, जिसके तीर्थ भारत भूमि में ही हैं, वही हिन्दू है..!

इस परिभाषा के अनुसार तो राउल बिंची स्वयं को चाहे जितना ब्राह्मण घोषित करें, उन्हें हिन्दू ही नहीं माना जा सकता ?

लेकिन हम बात कर रहे थे उन कुपढ़ छुटभैयों की, जो एक कथित माफ़ीनामे के नाम पर घांदी परिवार की चमचागिरी में उनके स्वर में स्वर मिलाकर ढेंचू ढेंचू कर रहे हैं -

आईये उन कुपढ़ लोगों को थोड़ा आईना दिखाएं। अरे बोदे लोगो आप कभी सावरकर हो भी नहीं सकते। क्योंकि -

वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी देशभक्त थे जिन्होंने 1901 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में शोक सभा का विरोध किया और कहा कि वो हमारे शत्रु देश की रानी थी, हम शोक क्यूँ करें?

क्या किसी भारतीय महापुरुष के निधन पर ब्रिटेन में शोक सभा हुई है.?

वीर सावरकर पहले देशभक्त थे जिन्होंने एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह का उत्सव मनाने वालों को त्र्यम्बकेश्वर में बड़े बड़े पोस्टर लगाकर कहा था कि गुलामी का उत्सव मत मनाओ..!

विदेशी वस्त्रों की पहली होली पूना में 7 अक्तूबर 1905 को वीर सावरकर ने जलाई थी…!

वीर सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने विदेशी वस्त्रों का दहन किया, तब बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी में उनको शिवाजी के समान बताकर उनकी प्रशंसा की थी।

सावरकर पहले भारतीय थे जिनको 1905 में विदेशी वस्त्र दहन के कारण पुणे के फर्म्युसन कॉलेज से निकाल दिया गया और दस रूपये जुरमाना किया… इसके विरोध में हड़ताल हुई… स्वयं तिलक जी ने ‘केसरी’ पत्र में सावरकर के पक्ष में सम्पादकीय लिखा…!

वीर सावरकर ऐसे पहले बैरिस्टर थे जिन्होंने 1909 में ब्रिटेन में ग्रेज-इन परीक्षा पास करने के बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफ़ादार होने की शपथ नहीं ली… इस कारण उन्हें बैरिस्टर होने की उपाधि का पत्र कभी नहीं दिया गया…!

वीर सावरकर पहले ऐसे लेखक थे जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा ग़दर कहे जाने वाले संघर्ष को ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक ग्रन्थ लिखकर सिद्ध कर दिया…! और वह प्रामाणिक ग्रन्थ लिखा भी अंग्रेजों की नाक के नीचे इंग्लैंड में रहकर,अंग्रेजों के ही पुस्तकालय में उनके ही दस्तावेजों के आधार पर।

सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी लेखक थे जिनके लिखे ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक पर ब्रिटिश संसद ने प्रकाशित होने से पहले प्रतिबन्ध लगाया था…।

‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ विदेशों में छापा गया और भारत में भगत सिंह ने इसे छपवाया था जिसकी एक एक प्रति तीन-तीन सौ रूपये में बिकी थी…! भारतीय क्रांतिकारियों के लिए यह पवित्र गीता थी… पुलिस छापों में देशभक्तों के घरों में यही पुस्तक मिलती थी…!

वह सावरकर ही थे, जिनकी प्रेरणा से 1 जुलाई 1909 को इंडियन नेशनल एसोसिएशन के लंदन में आयोजित वार्षिक दिवस समारोह में अमर हुतात्मा मदनलाल ढींगरा ने अंग्रेज़ों के लिए भारतीयों से जासूसी कराने वाले ब्रिटिश अधिकारी सर कर्ज़न वाइली और कर्ज़न को बचाने की कोशिश करने वाले डॉक्टर कोवासी ललकाका को उसकी करनी का दंड दिया था। गोलियों से ढेर कर दिया था।

इतना ही नहीं तो वायली की श्रद्धांजलि सभा में जब मदनलाल ढींगरा के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव रखा गया, तो वे सावरकर ही थे, जिंहोने खड़े होकर सिंह गर्जना की प्रस्ताव में सर्व सम्मत के स्थान पर मेरी असहमति दर्ज करो।

अरे कुपढ़ अभारतीयों तुम लोग सावरकर हो भी नहीं सकते क्योंकि -

इस घटना के बाद जब वीर सावरकर को समुद्री जहाज में बंदी बनाकर ब्रिटेन से भारत लाया जा रहा था उस समय आठ जुलाई 1910 को वे शौचालय के छेद में से समुद्र में कूद पड़े थे और तैरकर फ्रांस के मार्सेलिस बंदरगाह पहुँच गए थे…! क्योंकि अंतरराष्ट्रीय कानून का जानकार होने के कारण उन्हें मालूम था कि उन्होंने फ्रांस में कोई अपराध नहीं किया है, इसलिए फ्रांस की पुलिस उन्हें गिरफ्तार तो कर सकती है; पर किसी अन्य देश की पुलिस को नहीं सौंप सकती ।

लेकिन दुर्भाग्य से उनकी कोशिश सफल नहीं हुई और अनजाने में बंदरगाह की फ्रांसीसी पुलिस ने उन्हें वापस अंग्रेजों को सौंप दिया।

हालांकि बाद में फ्रांस की इस कार्यवाही की उनकी संसद के साथ ही विश्व भर में निंदा हुई और फ्रांस के राष्ट्रपति को त्यागपत्र देना पड़ा । इतना ही नहीं तो हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भी इसकी चर्चा हुई और ब्रिटिश कार्यवाही की निंदा की गयी। तुम क्या सावरकर से अपनी तुलना कर रहे हो राउल बिंची ?

वीर सावरकर विश्व के पहले क्रांतिकारी और भारत के पहले राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सरकार ने दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई थी…!

सावरकर पहले ऐसे देशभक्त थे जो दो जन्म कारावास की सजा सुनते ही हंसकर बोले - “चलो, ईसाई सत्ता ने हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म सिद्धांत को मान लिया”…!

वीर सावरकर पहले राजनैतिक बंदी थे जिन्होंने काला पानी की सज़ा के समय 10 साल से भी अधिक समय तक आज़ादी के लिए कोल्हू चलाकर 30 पोंड तेल प्रतिदिन निकाला…!

वीर सावरकर काला पानी में पहले ऐसे कैदी थे जिन्होंने काल कोठरी की दीवारों पर कंकर कोयले से कवितायें लिखीं और 6000 पंक्तियाँ याद रखी..!

वह सावरकर ही थे जिन्होंने मातृभूमि की वंदना करते हुए लिखा –

तुज साथी मरण है जनन,तुज बिना जनन है मरण !

इसका हिन्दी भावान्तर करें तो कुछ यह होगा -

जीवन वही है सार्थ सत, जो देश हित होवे मरण,

हो देश सेवा विरत तन, तो मरण का करलूं वरण !

और इसके बाद भी कांग्रेस दोदोबार आजीवन कारावास की सजा पाने वाले क्रांतिवीर सावरकर जी को गद्दार कहती है | धिक्कार है |

यह उचित ही हुआ कि अटल जी के शासनकाल में उन्हीं क्रांतिकारी राष्ट्रभक्त स्वातंत्र्य वीर सावरकर का संसद में 26 फरवरी 2003 को चित्र लगा। यह अलग बात है कि उनके चित्र को संसद भवन में लगाने से रोकने के लिए तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने राष्ट्रपति को पत्र लिखा, लेकिन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने सुझाव पत्र नकार दिया और वीर सावरकर के चित्र का अनावरण स्वयं राष्ट्रपति ने अपने कर-कमलों से किया…।

कांग्रेस फिर सत्ता में आई तो UPA सरकार के मंत्री मणिशंकर अय्यर ने अंडमान द्वीप की सेल्युलर जेल के कीर्ति स्तम्भ से सावरकर का नाम हटवा दिया।

अरे कान्गियो बामियो ...

हम भारतवंशी महापुरुषों का आंकलन उनके सम्पूर्ण जीवन वृत्त से करते हैं, किसी एक घटना से नहीं ....

हम मथुरा से द्वारका जाने वाले रणछोड़ कृष्ण को पूजते हैं, क्योंकि उनका वह पलायन भी सुनियोजित था, बुराई के प्रतीक जरासंध के समूल नाश के लिए उस समय वही आवश्यक था !

कृष्ण कालयवन के सामने से भी भागे और योजनापूर्वक तपस्वी मुचकुंद की क्रोधाग्नि में उसे भस्म करवाया !

अगर देशभक्त विनायक दामोदर सावरकर काला पानी की सजा भुगतते हुए, कोल्हू से तेल निकालते हुए वहीँ शहीद हो जाते, तो राष्ट्र जागरण का वह कार्य कैसे कर पाते, जो नियति ने उनके माध्यम से करवाना नियत किया था ?

उन्होंने माफीनामा अगर दिया भी होगा तो वह भी सोने के फ्रेम में मढ़वाकर सहेज कर रखने लायक धरोहर है, उनका सम्पूर्ण जीवन इसकी गवाही देता है ! वे हमारे लिए पूज्य थे, हैं और रहेंगे | कोई राउल विंची उनकी साख कम नहीं कर सकता !

उसने कहा आरएसएस ने महात्मा गांधी को मारा ....

फिर माफी मांगी !

उसने कहा चौकीदार चोर है....

फिर कोर्ट के सामने माफी मांगी !

राफेल को लेकर बबाल मचाया ...

फिर माफी दर माफी मांगी !

माफी माँगने में एक्सपर्ट.....

यह आलू की फैक्ट्री लगाने वाला....

गिनती में पचत्तीस और ढाई हजार पांच सौ जैसी अनोखी ईजाद करने वाला 😂

सावरकर जी को कोसते नहीं थकता.....

काला पानी की सजा दौरान जिस कोल्हू को उनसे चलवाया गया था.....

उसे चलाना तो दूर की बात है....

जिस दिन उसे देख भर लेगा....

न जाने क्या क्या करेगा ?
अंत में चलते चलते
धर्म युद्ध की तैयारी चल रही है, अधर्मी लोग भी हर सम्भव धूर्तता-मक्कारी-धोखाधड़ी-फुट-छल आदि तरह के हथियारों का उपयोग करेंगे । सावरकर जैसे महामानव को लेकर निंदा अभियान इसकी एक बानगी है।
अब सवाल उठता है कि धर्म रक्षा के लिए आप और हम क्या करेंगे ? अगर हम केवल तमाशबीन बने रहे तो यह एक प्रकार से अधर्मियों को सहयोग ही होगा। आपको याद ही होगा।
समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध
आदिकाल में झांक लेना किस तरह से हमारी गलतियों से धर्म और राष्ट्रधर्म की हानि हुई है। उन गलतियों को दोहराया ना जाये ।
जागो भारत जागो, जागते रहो जगाते रहो।
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