टिकिट सर्वोपरी, विचारधारा आ थू – दिवाकर शर्मा
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यदि हम अपने राजनैतिक इतिहास के गर्भ में जाकर देखें तो पता चलता है कि अनेक मूर्धन्य विद्वानों ने देश एवं समाज के कल्याण के लिए, अपना सम्पूर्ण जीवन, राजनीति को समर्पित कर दिया. सरदार वल्लभभाई पटेल से लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी तक अनेक प्रकाण्ड विद्वानों ने उच्चशिक्षा ग्रहण करने के बाद भी राजनीति को ही अपना कर्मक्षेत्र बनाया। एक युगद्रष्टा एवं क्रांतिकारी समाज सुधारक के रूप में बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर जैसे उच्चकोटि के विद्वानों, महापुरुषों एवं नीति-निर्माताओं ने जिन संकल्पों के साथ हमें हमारा संविधान दिया, उसमें तत्कालीन राजनीति ने एक संरक्षक की भांति अपनी भूमिका निभाई। लेकिन कालांतर में स्वार्थान्ध धंधेबाजों ने जनप्रतिनिधि का मुखौटा लगाकर राजनीति का स्वरुप ही परिवर्तित कर दिया। स्थिति यहाँ तक बनी कि आमजन में नेता शब्द एक गाली के रूप में प्रयोग होने लगा। वर्तमान राजनीति का सबसे बिद्रूप चेहरा है दलबदल।
देश में शायद ही ऐसा कोई राजनीतिक दल होगा, जिसके एक भी नेता ने लोकसभा या विधानसभा चुनाव का टिकट नहीं मिलने से खफा होकर दलबदल न किया हो। चुनाव में जिस दल के जीतने की संभावना अधिक होती है, उसमें टिकटार्थियों की संख्या भी अधिक होती है, लेकिन चुनाव में टिकट तो किसी एक को ही मिलता है? ऐसे में टिकट पाने से वंचित रहे नेता अगर पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता हुए तो वे घोषित उम्मीदवार को जिताना अपना कर्तव्य मानते हैं, पार्टी की रीति- नीति ही उनके लिए सर्वोपरि होती है इसलिए टिकट से वंचित रहने के बाद भी वे पार्टी नहीं छोड़ते हैं। इसके विपरीत प्रत्येक पार्टी में ऐसे नेता भी होते हैं जो अपने दल के टिकट से वंचित रहने पर दूसरे दल से आश्वासन के बाद उसमे शामिल होने में कोई संकोच नहीं करते हैं। ऐसे नेताओं के लिए अपनी मूल पार्टी के सिद्धांत एवं नीतियां एक मिनट में ही गौण हो जाती है। वे टिकट की आस में या टिकट की शर्त पर ही दलबदल करते हैं।
दरअसल, भारतीय लोकतंत्र की यह एक ऐसी खामी है, जिसपर नियंत्रण नहीं पाया जा सका है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि कोई भी राजनीतिक दल इसे रोकने के लिए प्रभावी कानून बनाने में रुचि प्रदर्शित नहीं करता है। देश की राजनीति में ऐसे उदाहरणों की भी कमी नहीं है, जहां किसी दल के नेता ने अनेकों बार दलबदल किया हो, जो अपने इलाके में प्रभावशील होने के चलते जीतने वाले दल में शामिल हुए हों और वहां इनकी ऐसी आवभगत् होती है कि उस पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता भी हैरान रह जाता है। ऐसे नेताओं को सरकार में भी महत्वपूर्ण पद पाने में कोई कठिनाई नहीं होती है।
आश्चर्य तो तब होता है जब दलबदल करने वाले नेताओं को नई पार्टी में एकदम क्लीन चिट दे दी जाती है और पार्टी उन्हें एक साफ सुथरी छवि वाले नेता के रूप में फिर जनता के सामने उतार देती है। दलबदल करने वाले नेताओं को अपनी पूर्व पार्टी में तब ही खामियां नजर आने लगती है ,जब उन्हें टिकट नहीं मिलता है। भारतीय राजनीति में दलबदल के ऐसे अनेकों उदाहरण मौजूद हैं जो यह साबित करते है कि यह केवल अवसरों का लाभ लेने के लिए ही होते हैं। याद कीजिए कभी उत्तरप्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं रीता बहुगणा जोशी ने गत् विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा का दामन इसलिए थाम लिया था जब पार्टी का सत्ता में आना सुनिश्चित हो गया था। उनका गणित ठीक बैठा और राज्य में भाजपा की सरकार बनने पर उन्हें मंत्रीपद से भी नवाज दिया गया।
भारतीय राजनीति में दल-बदल की घटनाएं 1967 के आम चुनावों से पहले तक बहुत कम हुईं । सबसे पहले दल बदल को प्रोत्साहन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने दिया। उसने अकाली दल के ज्ञानी करतार सिंह , सरदार स्वर्ण सिंह, सरदार हुक्म सिंह आदि को पद का लालच देकर तोड़ लिया। कांग्रेस ने जनसंघ में से पं मौलिचन्द्र शर्मा को और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के अशोक मेहता को दल - बदल कराकर अपने साथ मिला लिया । अगस्त 1958 में उत्तर प्रदेश विधान सभा के 98 विधायकों ने मुख्यमंत्री डा . सम्पूर्णानन्द में अविश्वास व्यक्त करके उन्हें अल्प मत में लाकर पदत्याग के लिए विवश कर दिया । 1962 में मद्रास ( चेन्नई ) के राज्यपाल श्री प्रकाश ने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को अल्प मत में होते हुए भी मुख्यमंत्री बनाने के लिए आमंत्रित किया और 16 विपक्षी सदस्यों ने दल - बदल करके कांग्रेस में सम्मिलित होकर उन्हें बहुमत दिला दिया । 2 सितम्बर , 1964 को केरल में कांग्रेस के 15 विधायकों ने कांग्रेस से दल - बदल करके आर . शंकर के मन्त्रिमण्डल का पतन करा दिया । 1952 में राजस्थान में , 1957 में उड़ीसा में दल - बदल कराकर अपनी सरकारें बनायीं ।
1967 के आम चुनावों के पश्चात् भारत में दल - बदल इतनी तेजी से होना शुरू हुआ कि यह राजनीति के लिए एक गम्भीर समस्या बन गया । चौथे आम चुनाव - 1967 के पश्चात् कांग्रेस दल के राजनीतिक एकाधिकार का अन्त हो गया और 16 राज्यों में से 8 राज्यों में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला ये राज्य थे बिहार , केरल , तमिलनाडु , उड़ीसा , पंजाब , राजस्थान , उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी बंगाल । इनमें से छह राज्यों में विपक्षी दलों ने न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर संयुक्त सरकारें बनायीं । कुछ राज्यों में कांग्रेस पार्टी को सीमान्त बहुमत मिला और किसी तरह कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों का निर्माण किया ऐसे राज्यों में विपक्षी दलों ने सामूहिक प्रयत्नों द्वारा कांग्रेसी सरकारों को अपदस्थ करने का अभियान चलाया । चुनाव के तुरन्त पश्चात् उत्तर प्रदेश , हरियाणा तथा मध्य प्रदेश में कांग्रेस पार्टी ने मन्त्रिमण्डल बनाये , परन्तु कांग्रेस में तोड़ - फोड़ के कारण उनका पतन हो गया और विपक्षी दलों ने मिश्रित सरकारों का गठन किया । आरम्भ में विपक्षी दलों ने कांग्रेस पार्टी को सत्ता से बाहर रखने का लक्ष्य बनाया और जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनी हुई थी उन्हें गिराने के लिए सामूहिक प्रयत्न करने का निश्चय किया । इसके लिए दल - बदल को साधन बनाया गया जिसके परिणामस्वरूप देश के 17 राज्यों में से 9 राज्यों में गैर - कांग्रेसी मिश्रित सरकारें बनीं । लेकिन ये सरकारें अधिक नहीं चल पायीं और शीघ्र ही इनका पतन हो गया और उन राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया ।
1977 के पश्चात् दल - बदल ने एक नया रूप धारण किया । अब तक जितने भी दल - बदल हुए थे वे सभी किसी एक या कुछ विधायकों द्वारा किये गये थे परन्तु 1977 और 1980 में समस्त सरकार द्वारा दल - परिवर्तन की दो घटनाएं हुई । 1977 में केन्द्र में जनता पार्टी के शासन काल में सिक्किम में कांग्रेस दल सत्तारूढ़ था लेकिन केन्द्र में जनता पार्टी के सत्ता में आते ही सिक्किम सरकार ने अपनी निष्ठा " जनता पार्टी ' के पक्ष में बदल कर जनता पार्टी सरकार होने की घोषणा कर दी । 1980 में जब फिर से केन्द्र में कांग्रेस ( इ ) की सरकार बनी तो सिक्किम सरकार ने जनता पार्टी से सम्बन्ध तोड़कर कांग्रेस दल के प्रति अपनी निष्ठा बदल ली । इस प्रकार जनता पार्टी सरकार पुनः कांग्रेस सरकार में बदल गयी । दोनों बार निष्ठा बदलने पर भी मुख्यमंत्री लेंडुप दोरजी ही रहे ।
इसी प्रकार 22 जनवरी , 1980 को हरियाणा की जनता पार्टी सरकार ने अपनी निष्ठा बदल ली । मुख्यमंत्री भजन लाल अपने 37 साथियों सहित कांग्रेस पार्टी से जा मिले और भजन लाल के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार कांग्रेस पार्टी की सरकार बन गयी । जुलाई , 1979 में जनता पार्टी में दल - बदल के कारण केन्द्र में मोरारजी देसाई को त्यागपत्र देना पड़ा । उसके पश्चात् अन्य दलों के सहयोग से चरण सिंह ने अपनी सरकार बनायी परन्तु वह संसद में विश्वास प्राप्त नहीं कर सकी । दल - बदल के कारण केरल की करुणाकरन सरकार को 1982 में पद त्याग करना पड़ा । यह दल - बदल का खेल वर्तमान में भी जारी है । दल - बदल विरोधी कानून पास होने के बाद भी कानून की कमियों के रहते यह अपना प्रभाव दिखा रहा है । अगस्त 2003 के अन्तिम सप्ताह में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के त्याग - पत्र देने के कारण बसपा की सरकार गिर गयी और अन्य दलों के सहयोग से मुलायम सिंह ने अपनी सरकार बनायी । बसपा के 37 विधायकों ने भी बसपा से दल - बदल कर नयी पार्टी गठन कर ली और मुलायम सिंह को समर्थन दिया ।
किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में अनेक विधायक मंत्री अथवा मुख्यमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा पाल लेते हैं और इसे पूरा करने के लिए दल - बदल का खेल जारी रहता है । 1967 के चुनावों के बाद भी आया राम - गया राम जारी था और वर्तमान में भी जारी है । सितम्बर 2003 में मुख्यमंत्री बनने के बाद मुलायम सिंह ने अपने मन्त्रिमण्डल का विस्तार 98 मन्त्रियों तक पहुंचा दिया जो देश में एक रिकार्ड है । यदि 2 मन्त्रियों को और सम्मिलित कर लेते तो देश में पहला शतकीय मन्त्रिमण्डल बनाने का रिकार्ड बन जाता । यह नेताओं की महत्वाकांक्षा का ही प्रतीक है ।
जनता द्वारा दल बदलू स्वभाव के नेताओं के प्रति सहानुभूति दिखा कर उन्हें निर्वाचनो में सफल बनाने के कारण विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं के द्वारा यह माना जाने लगा कि जनता की नजरों में भी दल बदल गलत नहीं है |
दल - बदल के परिणाम
भारतीय राजनीति में दल - बदल के कुछ परिणाम इस प्रकार देखे जा सकते हैं
( i ) दल - बदल के कारण कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक एकाधिकार जो 1952 से चला आ रहा था , 1967 में आकर समाप्त हो गया और कांग्रेस के असन्तुष्टों ने अन्य विपक्षी दलों से मिलकर सरकारें बनाने का प्रयास किया ।
( ii ) दल - बदल से देश में प्रशासनिक सुधार बाधित हुआ और देश की प्रगति रुक गयी क्योंकि विधायकों को चिन्ता देश की प्रगति की न होकर अपने मन्त्रिपद या धन की सताने लगी ।
( iii ) दल - बदल से संयुक्त सरकारें बनने लगी जिससे उनमें विचारों में एकता नहीं रह सकी और सरकारें बार - बार गिरती और बनती रहीं ।
( iv ) नौकरशाही ने दल - बदल के कारण अपने प्रभाव में वृद्धि की क्योंकि सरकारें शीघ्र और स्पष्ट निर्णय लेने से डरने लगीं ।
( v ) दल - बदल के कारण अनेक सदस्यों को मन्त्रिमण्डल में सम्मिलित करना मुख्यमंत्री की विवशता हो गयी क्योंकि मन्त्रिपद न मिलने से विधायकों का दल - बदल करना सम्भव था । यही कारण है कि कल्याण सिंह ने 1997 में 93 सदस्यीय तथा मुलायम सिंह ने अक्टूबर 2003 में 98 सदस्यीय मन्त्रिमण्डल बनाये ।
( vi ) राजनीतिक दलों में बिखराव शुरू हो गया ।
( vii ) दल - बदल के कारण पदलोलुपता और अवसरवादिता बढ़ गयी जिससे राजनीति सिद्धान्तहीन हो गयी ।
कुल मिलाकर अवसरवादिता का यह सिलसिला भविष्य में थमें इसके आसार नही है लेकिन स्वस्थ लोकतंत्र के विकास में यह बाधा तो है ही। नेताओं के बीच दलबदल जितना सहज और सरल हो गया है, वोटर के लिए नेता उतना ही अविश्वसनीय होता जा रहा है। यद्यपि आजादी के बाद से ही नेताओं की छवि पर सवाल खडे होते रहे हैं। जन सेवा का भाव ही नेताओं के एजेंडे से गायब होता जा रहा है। किसी भी स्तर का चुनाव जीतने के बाद नेताओं के रहन-सहन में जो बदलाव लाता है, वह वोटर की निगाह से बच नहीं पाता। देश में लगातार दल बदल की घटनाओं के साथ नेताओं के व्यक्तिगत हित की चर्चा भी व्यापक तौर पर होती है। असर विभिन्न स्तर के चुनाव में वोटिंग परसेंटेज में गिरावट के तौर देखा जा सकता है।
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