राजनैतिक संरक्षण में फलता फूलता बंगाल का प्रमुख कुटीर उद्योग - बम बनाना।




आज के इंडियन एक्स्प्रेस में छपे आलेख के अनुसार बंगाल के गाँवों में कच्चे बम आसानी से 150 से 200 रुपये में उपलब्ध हो जाते हैं। मिल तो शहरों में भी जाते हैं, किन्तु कीमत लगभग दुगनी हो जाती है। इन हथियारों का निर्माण व्यापक है, क्योंकि बम निर्माताओं के खिलाफ या तो कोई कार्यवाही होती ही नहीं है, और अगर होती भी है, तो नाम मात्र को। इसका कारण बहुत साफ़ है, क्योंकि उनके ग्राहकों में प्रमुख राजनीतिक दलों के नेता होते हैं या आपराधिक गिरोहों के प्रभावशाली सरगना। सीधे शब्दों में कहें तो राजनैतिक संरक्षण प्राप्त दबंग माफिया।

यही कारण है कि अवैध रूप से बम बनाने वालों की कोई गिरफ्तारी नहीं होती और यदाकदा कोई गिरफ्तार होता भी है, तो उन्हें जमानत भी मिल जाती है। हिंसा का इस प्रकार आम होना निश्चय ही सामाजिक क्षरण का प्रतीक है। इसका प्रारम्भ सीपीएम के लगभग चार दशकों के शासनकाल में हुआ। उस कालखंड में बंगाल की पूरी सरकारी मशीनरी ही एक प्रकार से मार्क्सवादी पार्टी के अधीन हो गई और पक्षपातपूर्ण राजनीति ने आम जन जीवन के लगभग हर पहलू को बुरी तरह प्रभावित किया। हिंसा सत्ताधारी दल और विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं के बीच की रोजमर्रा की चीज बन गई।

इस आपाधापी के खिलाफ जन चेतना जागृत हुई और सत्ता परिवर्तन हुआ। लेकिन स्थिति फिर भी नहीं बदली। दुर्भाग्य से ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस ने अलग रास्ता चुनने के बजाय उसी मार्ग पर चलते रहना पसंद किया । आज भी सरकार पर "सिंडिकेट" हावी है - रियल एस्टेट, नियुक्तियों, सरकारी सेवाओं तक पहुंच और बहुत कुछ पर सत्ताधारी पार्टी का ही नियंत्रण है। विरोध के स्वर को कुचलने लिए पुलिस के अतिरिक्त हिंसक अपराधियों का उपयोग धड़ल्ले से होता है। जब राजनीति और हिंसा का चोली दामन का साथ हो तो स्वाभाविक ही बम उद्योग तो फलता फूलता दिखेगा ही। इसलिए इस खतरे से निपटना एक टेढ़ी खीर है। इसीलिए बंगाल में कुटीर उद्योग के रूप में बम बनाने को पूरी सुविधायें प्राप्त हैं ।

कितना आसान है बम बनाना ?

इन बमों को "पेटो" और "लाल सदा" के नाम से जाना जाता है। बम बनाने वालों को कोई उस्ताद कहता है तो कोई कारीगर। ये लोग रात दिन जान जोखिम में डालकर यह कार्य करते हैं। जिस उस्ताद से इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता ने चर्चा की, उसका एक हाथ ही नहीं था। बम बनाते समय हुए विस्फोट में उड़ गया था। इसके बाद भी वह आजतक बम बनाता है बदस्तूर।

पश्चिम बंगाल का शायद ही कोई हिस्सा इस उद्योग से अछूता हो। उत्तर 24 परगना, बर्दवान, दक्षिण 24 परगना, बीरभूम, मालदा, कोलकाता, सब दूर यह जड़ जमाये हुए है। बीरभूम में 48 वर्षीय बम बनाने वाले ने कहा: “बंदूक और गोलियों की तुलना में बम कहीं बेहतर विकल्प हैं। इसकी आवाज दूर-दूर तक पहुंचती है, जो सभी को जल्दी और प्रभावी रूप से डराती है। एक हथियार के रूप में भी, यह प्रभावी है क्योंकि इससे एक ही बार में कई लोगों को निशाना बनाया जा सकता है।

इन बमों में कुछ में छर्रे होते हैं, तो कुछ में महज बॉल बेयरिंग, कील, यहाँ तक कि कांच के टुकड़े ही उन्हें घातक बनाने में सक्षम होते हैं। सोडा, गंधक (सल्फर), और बेरियम जैसे रसायनों को जूट के तार वाले कागज में लपेट कर मिलाकर एक छोटे धातु के डिब्बे या कांच की बोतल में रखा जाता है। डिब्बे में बॉल बेयरिंग, कीलें, कांच के टुकड़े भी भरे होते हैं और होती है “ग्लिसरीन" से भरी एक छोटी कांच की शीशी। कांच की शीशी को सील कर दिया जाता है लेकिन उसके मुंह में एक तार लगा दिया जाता है, जो धातु के डिब्बे से बाहर निकलता है। बस तार खींचकर डिब्बा हैंड ग्रेनेड की तरह फेंकते ही धमाका, खून और चीख पुकार। होता यह है कि तार खींचने पर ग्लिसरीन की शीशी खुल जाती है और उसके शेष रसायन से मिलते ही विस्फोट हो जाता है। टीन या धातु के डिब्बे या कांच की शीशी में भरे छर्रे या कांच या कीलें तेजी से उड़कर दूर दूर तक जाती हैं और जो कोई भी उनकी चपेट में आता है, गंभीर जख्मी हो जाता है या भगवान को प्यारा हो जाता है।

अब सवाल उठता है कि यह सारे रसायन, बम बनाने वालों को मिल कैसे जाते हैं। इसके जबाब में ही समस्या का मूल तत्व भी छुपा है। चूंकि राजनैतिक रसूखदार ही इनके ग्राहक होते हैं, तो वे ही इन्हें यह सारी सामग्री भी उपलब्ध कराते हैं। अन्यथा यह रासायनिक वस्तुएं खुले बाजार में तो मिलती नहीं हैं।

इन बम बनाने वालों से जब यह पूछा गया कि क्या वह उन लोगों के बारे में नहीं सोचते जो आपके बनाये बमों के परिणामस्वरूप मर जाते हैं या अपंग हो जाते हैं, उन्होंने कहा: “हमारे भी परिवार हैं और जब हम टीवी पर ऐसी चीजें देखते हैं तो हमें दुख होता है। लेकिन यह सवाल आप उन लोगों से क्यों नहीं पूछते जो बम फेंकते हैं ? हमें दोष क्यों दे रहे हैं ? हमारा तो यह धंधा है।

क्या देश की यह कुर्सी परस्त हिंसक राजनीति कभी समाप्त होगी ? क्या देशभक्ति और जनसेवा के नारे पुलिस थानों के प्रवेश द्वार से उतारकर यथार्थ बनेंगे ? 
हो सकता है, लेकिन केवल तब, जब जनता जागृत हो।

जागो भारत जागो।
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