एक तुलना - तुर्की के नव निर्वाचित राष्ट्रपति इरदुगान और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी



रजब तैयब इरदुगान एक बार फिर आगामी पांच वर्ष के लिए तुर्की के राष्ट्रपति चुन लिए गए। तुर्की के इरदुगान और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में बहुत कुछ साम्य है। दोनों नेता वस्तुतः अपनी राजनीतिक कार्य पद्धति, सत्ता में पहुंचने के तरीके, अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता, अपनाई गई नीतियों और अपने देशवासियों पर प्रभाव के मामले में एक जैसे हैं। रजब तैयब इरदुगान, तुर्की के सबसे प्रभावशाली राजनेता रहे मुस्तफा कमाल अतातुर्क उपाख्य कमाल पाशा के समान बनने की महत्वाकांक्षा जताते हैं। वही कमाल पाशा, जिन्होंने तुर्की में खलीफा के रूढ़िवादी साम्राज्य का अंत कर तुर्की को 1924 में लोकतांत्रिक गणराज्य बनाया। जिसके खिलाफ भारत में खिलाफत आंदोलन हुआ, और कठमुल्लों की क्रोधाग्नि में हजारों हिन्दू मारे गए। बिना इस बात का विचार किये कि अगर तुर्की में सत्ता परिवर्तन हुआ, उससे इन निरीह हिन्दुओं का क्या लेना देना। खैर वह कमाल पाशा ही थे, जिन्होंने सत्ता संभालने के बाद अधिकारीयों से पूछा अरबी के स्थान पर तुर्की को राष्ट्र भाषा बनाने में कितना समय लगेगा। अधिकारियों ने विचार विमर्श कर जबाब दिया - दस वर्ष। कमाल पाशा ने कहा - समझ लो कि वे दस वर्ष कल सुबह समाप्त हो रहे हैं, और तुर्की देश की राष्ट्रभाषा बन चुकी है। 

कमाल पाशा ने अगला हमला तुर्की टोपी पर किया। जिस जालीदार तुर्की टोपी को आज भारत में इस्लाम की पहचान माना जाता है, कितने हैरत की बात है कि उस तुर्की टोपी को तुर्क गणराज्य में 1924 से कोई नहीं पहनता। कमाल ने रूढ़िवादी इस्लामी कानूनों को हटाकर उनके स्थान पर एक नई संहिता स्थापित की जिसमें स्विटज़रलैंड, जर्मनी और इटली की सब अच्छी-अच्छी बातें शामिल थीं। बहु-विवाह गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। इसके साथ ही पतियों से यह कहा गया कि वे अपनी पत्नियों के साथ बराबरी का बर्ताव रखें। प्रत्येक व्यक्ति को वोट का अधिकार दिया गया। सेवाओं में घूस लेना निषिद्ध कर दिया गया और घूसखोरों को बहुत कड़ी सजाएँ दी गईं। स्त्रियों के पहनावे से पर्दा उठा दिया गया और पुरुष पुराने ढंग के परिच्छेद छोड़कर सूट पहनने लगे। तुर्की इस्लामी देश अवश्य है, लेकिन बहां अब कोई छोटे भाई का पाजामा और बड़े भाई का कुडता नहीं पहनता

आजादी के बाद जैसी लोकप्रियता भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की रही, उनके सामने विपक्ष जैसा बौना रहा, अनुमान लगाया जा सकता है कि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षा भी लोकप्रियता के उसी शिखर पर पहुंचने की हो सकती है। एक भुनगा ज्यादा से ज्यादा अगर सोचता है तो केवल अपने पेट भरने की, जबकि एक राजा महाराजा बनने की और महाराजा सम्राट बनने की महत्वाकांक्षा संजोता है। जरा विचार कीजिये कि नरेंद्र मोदी विकसित और आत्मनिर्भर भारत की बात करते हैं, जबकि भारत के विपक्षी नेता केवल येन केन प्रकारेण सत्ता हथियाने को आतुर दिखाई देते हैं। और सत्ता में आने के बाद करते क्या हैं ? यह तो अरविंद केजरीवाल और उनके शीश महल ने सार्वजनिक कर ही दिया है। इसे भुनगा वृत्ति नहीं तो क्या कहा जाए ? विपक्ष की इसी लोलुपता के चलते देश में मोदी अपराजेय शक्ति बनते जा रहे हैं। 

तुर्की के नव निर्वाचित राष्ट्रपति इरदुगान और भारत के प्रधान मंत्री मोदी दोनों की ही पृष्ठभूमि निर्धनता और संघर्ष की है। दोनों ही अपने देश के विशेषाधिकार प्राप्त तथाकथित अभिजात्य वर्ग से नहीं हैं। इरदुगान ने इस्तांबुल के मेयर के रूप में यश पाया, अपनी पहचान स्थापित की तो मोदी जी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अपनी छाप छोड़ी। दोनों नेता वामपंथी झुकाव वाली भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी, तथाकथित सेक्यूलर सरकारों के प्रति उपजे व्यापक असंतोष की लहरों पर सवार होकर अपने देश का नेतृत्व करने आगे आए। दोनों की कार्य पद्धति ध्रुवीकरण करने की है। दोनों विदेश नीति के सफल संचालन के लिए जाने जाते हैं। दोनों अपने देशों के वैश्विक कद को बढ़ाने की प्रतिबद्धता जताते हैं । दोनों ने धर्म, राष्ट्रवाद, जन कल्याण और आर्थिक विकास का एक शक्तिशाली कॉकटेल तैनात किया है, जिसके सामने प्रतिद्वंदी अपने आप को बेहद कमजोर पाता है।


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