इतिहास के झरोखे से राहुल जी की प्यारी सेक्यूलर पार्टी - केरल की इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग।



राहुल गांधी ने अमेरिका में मुस्लिम लीग को धर्मनिरपेक्ष बताया है... 

सवाल उठता है कि क्या सचमुच जिन्ना की मुस्लिम लीग और केरल की मुस्लिम लीग अलग अलग हैं ?

आईये इस सवाल का जबाब इतिहास के झरोखे से झांककर पाने की कोशिश करें। 

आजादी के पूर्व मद्रास प्रांत में मुस्लिम लीग के अध्यक्ष थे मोहम्मद इस्माइल साहिब। इन्हीं के नेतृत्व में 1946 के चुनाव में मद्रास की सभी मुस्लिम रिजर्व 28 सीटें मुस्लिम लीग ही जीती, ताकि जिन्ना अलग इस्लामिक देश पाकिस्तान बना सके। वहीं संविधान सभा यानि केंद्रीय असेंबली के लिए भी मद्रास प्रेसीडेंसी में जो 3 सीटें मुस्लिमों की लिए आरक्षित की गई थीं, वे सभी 3 सीटें भी मुस्लिम लीग ने ही जीती। 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान तो बन गया लेकिन जिन मोहम्मद इस्माइल ने 1946 में जिन्ना को मद्रास में विजय दिलाई वो ना तो खुद पाकिस्तान गए ना उनके कहने पर जिन्ना को वोट देने वाला उनका कोई समर्थक। उसके बाद मोहम्मद इस्माइल ने 1948 में एक नई पार्टी बनाई और उसका नाम रखा ऑल इंडिया मुस्लिम लीग। उद्देश्य एक ही था, शेष भारत को पाकिस्तान बनाना। और मजा देखिये कि जिस कांग्रेस के खिलाफ 1940 के दशक में वो जिन्ना के नेतृत्व में लड़ रहे थे आज उसी कांग्रेस के साथ मिलकर केरल में चुनाव लड़ते हैं। जिन्ना के साथ मिलकर पाकिस्तान बनवाने वाले मोहम्मद इस्माइल के सम्मान में भारत सरकार ने 5 जून 1996 को डाक टिकट भी जारी किया। देश को विभाजित करने वालों का ऐसा सम्मान विश्व के किसी और देश ने नहीं किया होगा।

कल जो पार्टी जिन्ना को जिताकर पाकिस्तान बनाना चाहती थी, आज उसी पार्टी ने राहुल गांधी को वायनाड संसदीय क्षेत्र से जिताया है। यह जानना भी दिलचस्प होगा कि वायनाड संसदीय क्षेत्र को 1980 में कोझिकोड, वायनाड और मल्लापुरम जिलों के सात विधान सभा क्षेत्रों को मिलाकर बनाया गया था। मल्लापुरम ही वह संसदीय क्षेत्र है, जहाँ से सबसे पहले भारत की मुस्लिम लीग के अध्यक्ष मोहम्मद इस्माइल साहिब सांसद बने थे। और उसके बाद भी आज तक इस सीट पर  केरल की इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का ही कब्ज़ा रहा है। तो स्वाभाविक ही राहुल जी उस अहसान को कैसे भूल सकते हैं ?

अब आईये हम केरल की इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग की कारगुजारियों पर भी नजर डालें कि उसकी धर्म निरपेक्षता कैसी है। सबसे पहले तो उसका नाम ही आपत्तिजनक है। हैरत की बात है कि खुद को धर्मनिरपेक्षता का ठेकेदार बताने वालों ने आजतक ये सवाल नहीं उठाया कि इस देश में मुस्लिम लीग है ही क्यों?

आज़ादी के पहले दक्षिण भारत में जिन्ना के दो खास चेले थे पहले बी.पोकर साहिब बहादुर और दूसरे थे एम. मोहम्मद इस्माइल। मोहम्मद इस्माईल का जिक्र तो हम कर ही चुके हैं, बी.पोकर साहिब बहादुर भी कोई कम नहीं थे। हम सबको खिलाफत आंदोलन और उस दौरान हुए मोपला हिन्दू नरसंहार की जानकारी होगी ही, उसके अहम किरदार थे बी पोकर। आज़ादी के महज 12 दिन बाद यानी 27 अगस्त 1947 को संविधान सभा की अहम बैठक में मुस्लिम लीग के बाकी सदस्यों के साथ-साथ इन दोनों नेताओं - बी.पोकर और एम.मोहम्मद इस्माइल ने पूरी बेशर्मी के साथ एक घनघोर सांप्रदायिक मांग रखी। इनकी मांग थी कि पूरे देश में चुनावों में मुसलमानों के लिए अलग से रिज़र्व सीटें होना चाहिए जिसमें सिर्फ मुस्लिम उम्मीदवार ही खड़े हों और सिर्फ मुस्लिम मतदाता ही वोट डाले। और बेशर्मी से राहुल जी इन लोगों को सेक्यूलर घोषित कर रहे हैं। क्या किसी भी कांग्रेसी का जमीर जिन्दा नहीं बचा है, जो राहुल जी से पूछ सके कि जनाबे आली आप कह क्या रहे हो ?

ये दोनों न केवल बंटवारे के बाद भारत में ही रहे बल्कि इन्होने एक बार फिर जिन्ना की मुस्लिम लीग को भारत में जिंदा कर दिया। आजादी के महज सात महीने बाद ही 10 मार्च 1948 को एम.मोहम्मद इस्माइल और बी.पोकर ने मुस्लिम लीग के नेताओं की एक बैठक बुलाई। मद्रास के राजाजी हॉल में हुई इस बैठक में मुस्लिम लीग के वो सभी बड़े नेता शामिल हुए जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान नहीं गये थे, बल्कि हिंदुस्तान में ही रहकर ही एक बार फिर से नफरत के बीज बोने की तैयारी कर रहे थे। उसी बैठक में भारत में मुस्लिम लीग का फिर से गठन किया गया और इस बार इसे नाम दिया गया इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग। एम.मोहम्मद इस्माइल इसके पहले अध्यक्ष चुने गये और उन्हे नाम दिया गया कायद-ए-मिल्लत यानि देश के नेता। 

जिन्ना का चेला बी.पोकर 1952 में केरल की मल्लपुरम से तो 1957 में केरल की ही मंजेरी सीट से लोकसभा का चुनाव जीता। और जिन्ना के दूसरे चेले एम.मोहम्मद इस्माइल, संविधान सभा का सदस्य बनने के बाद 1952 से 1958 तक राज्यसभा में सांसद रहे। इसके बाद ये 1962, 1967 और 1971 में लगातार तीन बार केरल की मंजेरी सीट से लोकसभा का चुनाव जीते। 

1954 में जब प्रथक हिंदू मैरिज एक्ट बना, उसकी भी एक अलग ही कहानी है। वस्तुतः उस समय सभी भारतीयों के लिए समान विवाह अधिनियम बनाया जाना प्रस्तावित था। किन्तु इस तथाकथित सेक्यूलर मुस्लिम लीग ने इसका पुरजोर विरोध किया। सोचिये कि अगर उस समय ही समान विवाह अधिनियम बन जाता, तो ना तो तीन तलाक के खिलाफ कानून की जरूरत होती और ना ही समान नागरिक संहिता की कोई चर्चा होती। किन्तु ऐसा हुआ नहीं, सिक्यूलर चचा नेहरू ने मुस्लिम तुष्टिकरण की अपनी चिरपरिचित शैली के चलते ऐसा नहीं होने दिया। नतीजा यह हुआ कि हिंदू मैरिज एक्ट ही बन सका और मुस्लिम अपने शरीया क़ानून पर अडिग रहे। उस समय बहस के दौरान मुस्लिम लीग के सांसद एम मुहम्मद इस्माइल ने 11 दिसंबर 1954 को राज्यसभा में कहा था -

“नेहरू सरकार ने देश के मुस्लिम समुदायों की भावनाओं का आदर किया और उन्हे इस विवाह अधिनियम से बाहर रखा। हमारा मुसलमानों का अपना खुद का एक कानून है जो हमारे मज़हब के आधार पर बना है। ये कानून हमारे धर्म का अटूट हिस्सा है और हम इसे अपनी ज़िंदगी में सबसे पवित्र और सबसे अनमोल मानते हैं।”

सोचिए जिस मुस्लिम लीग के नेता आजाद भारत में मुसलमानों के लिए अलग से रिज़र्व सीटें और शरिया कानून की मांग कर रहे थे, आज उसी मुस्लिम लीग के साथ कांग्रेस गठबंधन में है और उसे सेक्यूलर घोषित कर रही है। इस देश के सारे लिबरल चाचा नेहरू को धर्मनिरपेक्षता का मसीहा मानते हैं। ये नेहरू ही थे, जिन्होंने 1960 में मुस्लिम लीग के साथ बकायदा सत्ता में हिस्सेदारी की। इसी साल हुए चुनावों में केरल में कांग्रेस की जीत हुई और इसके बाद केरल मुस्लिम लीग के नेता और कभी जिन्ना के करीबी रहे के.एम. सीठी को केरल विधानसभा का अध्यक्ष बनाया गया। जिस पार्टी ने 13 साल पहले देश के टुकड़े किये थे उसका नेता एक राज्य का विधानसभा अध्यक्ष बनकर आसंदी पर बैठा हुआ था। 

इतना ही नहीं तो कांग्रेस के समर्थन से 1979 में मुस्लिम लीग के नेता सी.एच. मोहम्मद कोया केरल के मुख्यमंत्री तक बन गये। कांग्रेस समर्थित इस मुख्यमंत्री ने अपनी साम्प्रदायिक सोच को कभी नहीं छुपाया। यह कीड़ा तो केवल सेक्यूलरों को ही काटता है। 30 नवंबर 1979 को मोहम्मद कोया ने इंडिया टुडे मैगज़ीन को दिये इंटरव्यू में कहा था कि -

“अल्पसंख्यकों के सांप्रदायिक संगठन और बहुसंख्यकों के सांप्रदायिक संगठन अलग-अलग होते हैं। हम अल्पसंख्यक अपनी सुरक्षा और अधिकारों की रक्षा के लिए एकजुट होते हैं... लेकिन बहुसंख्यक तो कहीं भी अधिकार जमा सकते हैं... उन्हे सांप्रदायिक संगठनों की ज़रूरत ही क्या है?”

सोचिए आज ऐसी सोच वाले नेताओें की पार्टी के साथ कांग्रेस गठबंधन करके भी खुद को धर्मनिरपेक्ष बताती है। और ये गठबंधन एक दो साल पुराना भी नहीं है, बल्कि ये नापाक रिश्ता पिछले 60 सालों से चल रहा है। ये सिर्फ केरल में ही मिलकर चुनाव नहीं लडते हैं, बल्कि मनमोहन सिंह की केंद्र सरकार में भी मुस्लिम लीग शामिल थी। राहुल जी तो अभी सीख रहे हैं, उनकी बातों पर क्या ध्यान देना, लेकिन अगली बार जब कांग्रेस का कोई नेता किसी को सांप्रदायिक कहे तो आप उससे ज़रूर पूछिएगा कि जिन्ना की पार्टी से उनका क्या रिश्ता है?


एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें