टीपू सुलतान – खलनायक या नायक ?



देश में दो तरह के लोग हैं, एक तो वे जो जिनकी नजर में टीपू सुलतान ब्रिटिश उपनिवेशवाद से जूझने वाला कर्नाटक का महान सपूत है, तो बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो उसे हिंदुओं और ईसाइयों पर कहर बरपाने वाला, जबरन धर्मांतरण करवाने वाला, धर्मस्थलों का विध्वंस करने वाला, अत्याचारी और नृशंस हत्यारा मानते हैं ।

आईये इतिहास के पन्नों पर नजर डालकर मैसूर के सुलतान टीपू की अच्छाईयों और बुराईयों को जानें -

टीपू सुल्तान के पिता हैदर अली, मैसूर के वाडियार राजा की सेना में एक जूनियर अधिकारी के रूप भर्ती हुए थे | उसने अपनी ताकत इतनी बढाई कि 1761 में सत्ता पर काबिज हो गया । उसने यह ताकत कैसे बढाई, कैसे वाडियार राजा को गद्दी से हटाया, इसकी चर्चा में उलझे तो विषय बहुत लंबा हो जाएगा | उस पर तो पूरा उपन्यास लिखा जा सकता है |

टीपू 1750 में पैदा हुआ और 17 साल की उम्र में पहले एंग्लो-मैसूर युद्ध में भाग लिया । अंग्रेजों से युद्ध के दौरान ही उसके पिता हैदर की मृत्यु हुई, और टीपू शासक बना | 1782 में मंगलौर संधि के साथ वह युद्ध समाप्त हुआ । बाद में 1782-84 के बीच उसने मराठों के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी ।

भारत के इतिहास में टीपू का उल्लेख एक साहसी सेनापति के रूप में आता है, जिसने अपने 17 साल के शासन काल में, अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के दांत खट्टे किये । टीपू को युद्ध भूमि में राकेट का प्रयोग करने वाला प्रथम व्यक्ति माना जाता है | उसने आधुनिक तकनीक का उपयोग कर यूरोपीय तर्ज पर अपनी सेना को पुनर्गठित किया |

उसने कर प्रणाली में सुधार कर राज्य के संसाधन आधार को बढ़ाया, वेतनभोगी एजेंटों के माध्यम से किसानों पर सीधे कर लगाने और बसूलने की व्यवस्था बनाई, विस्तृत सर्वेक्षण और वर्गीकरण के आधार पर एक व्यापक भूमि राजस्व प्रणाली तैयार की। बंजर भूमि के विकास के उपाय किये, सिंचाई के बुनियादी ढांचे का निर्माण किया और पुराने बांधों की मरम्मत कराई | कृषि और रेशम उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए कर में राहत दी, कुल मिलाकर कृषि के आधुनिकीकरण के लिए काम किया।

समुद्री व्यापार बढाने के लिए जलपोतों का निर्माण किया, उनकी सुरक्षा के लिए नौसेना खडी की और मैसूर के बाहर कारखानों की स्थापना के लिए "राज्य में वाणिज्यिक निगम" का गठन किया । मैसूर के चंदन, रेशम, मसाले, चावल और सल्फर का व्यापार शुरू करवाया ।

1799 में चौथे एंग्लो-मैसूर युद्ध में अपनी राजधानी श्रीरंगापटनम का बचाव करते हुए युद्ध के मैदान में टीपू मारा गया, किन्तु तब तक उसने पहले गवर्नर-जनरल कार्नवालिस और बाद में वेलेस्ले की रातों की नींद हराम रखी । टीपू की मौत के बाद अंग्रेजों ने पुनः वोडेयार राजा को गद्दी नसीन किया, जोकि देश के अन्य राजाओं के समान बाद में एक प्रकार से अंग्रेजों के अधीनस्थ ही रहे |

अब जानते हैं कि फिर आखिर टीपू से नफ़रत के क्या कारण हैं ?

हिन्दू जनता पर टीपू की क्रूरता के असंख्य विवरण मिलते हैं। पुर्तगाली यात्री बार्थोलोमियो ने सन् 1776 से 1789 के बीच के प्रत्यक्षदर्शी वर्णन लिखे हैं। उस ने लिखा, ‘टीपू एक हाथी पर था, जिस के पीछे तीस हजार सैनिक थे। कालीकट में अधिकांश पुरुषों और स्त्रियों को फाँसी पर लटका दिया गया। पहले माँओं को लटकाया गया जिन के गले से उन के बच्चे बाँध दिए गए थे। बर्बर टीपू ने हिन्दुओं और ईसाइयों को हाथी के पैरों से नंगे शरीर बाँध दिया और हाथियों को तब तक इधर-उधर चलाते रहा जब तक उन बेचारे शरीरों के टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गए। मंदिरों और चर्चों को गंदा और तहस-नहस करके आग लगाकर खत्म कर दिया गया।...

हमारे प्रसिद्ध इतिहासकार के. एम. पणिक्कर ने भाषा पोषिणी’ (अगस्त, 1923) में टीपू का एक पत्र उद्धृत किया है। सैयद अब्दुल दुलाई को 18 जनवरी 1790 लिखित पत्र में टीपू के शब्द थेः नबी मुहम्मद और अल्लाह के फजल से कालीकट के लगभग सभी हिन्दू इस्लाम में ले आए गए। महज कोचीन राज्य की सीमा पर कुछ अभी भी बच गए हैं। उन्हें भी जल्द मुसलमान बना देने का मेरा पक्का इरादा है। उसी इरादे से मेरा जिहाद है।

अगले दिन, 19 जनवरी 1790 को बद्रुज जुमा खान को टीपू ने लिखा, ‘तुम्हें मालूम नहीं कि हाल में मालाबार में मैंने गजब की जीत हासिल की और चार लाख से अधिक हिन्दुओं को मुसलमान बनाया? मैंने तय कर लिया है कि उस मरदूद ‘‘रामन नायर’’ के खिलाफ जल्द हमला बोलूँगा। चूँकि उसे और उस की प्रजा को मुसलमान बनाने के ख्याल से मैं बेहद खुश हूँ, इसलिए मैंने अभी श्रीरंगपट्टम वापस जाने का विचार खुशी-खुशी छोड़ दिया है।यहाँ ध्यान देने योग्य है कि ये रामन नायर त्रावनकोर के राजा थे और धर्मराज के नाम से प्रसिद्ध थे !

ऐसे विवरण अंतहीन हैं। टीपू के समकालीन साफ दिखाते हैं कि उस का मुख्य लक्ष्य हिन्दू धर्म का नाश तथा हिन्दुओं को इस्लाम में लाना था। मीर हुसैन अली किरमानी की पुस्तक निशाने हैदरीमें इस का विवरण है। इस के अनुसार टीपू ने श्रीरंगपट्टनम में एक शिव मंदिर तोड़कर उसी जगह जामा मस्जिद बनवायी जिसे मस्जिदे आला के नाम से जाना जाता है ।

आज केरल और कर्नाटक में जो मुस्लिम आबादी की बड़ी संख्या दिखाई देती है उसका सब से बड़ा कारण टीपू सुलतान था। उस में अदम्य महत्वाकांक्षा थी | उसने अपनी सत्तासीमा बढाने की हरचंद कोशिश की और मैसूर के बाहर के प्रदेशों पर आक्रमण किये और उनपर कब्जा जमाया। इन क्षेत्रों में उसके अत्याचार की दारुण कहानी है। कोडागू, मंगलूर और मालाबार में उसने अनेक कस्बों और गांवों को जला कर ख़ाक कर दिया, सेंकडों मंदिरों और चर्चों को धूल में मिला दिया, हजारों हिन्दुओं को धर्मान्तरण के लिए विवश किया | टीपू ने ठीक दीपावली के दिन मेलकोटे में 700 आयंगर ब्राह्मणों को फांसी पर लटका दिया था | यही कारण है कि आयंगर आज भी दीपावली नहीं मनाते | अतः स्वाभाविक ही इन क्षेत्रों के निवासी उसे एक जालिम तानाशाह के रूप में मानते है, जोकि वह हैभी । यह व्यथा कथा काल्पनिक नहीं है, इनके ऐतिहासिक दस्तावेज हैं और कोई भी इन्हें झुठला नहीं सकता ।

टीपू ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से जो लड़ाईयां लड़ीं, वे केवल और केवल अपने राज्य को बचाने के लिए लड़ीं | सचाई तो यह है कि अंग्रेजों से ज्यादा तो वह मराठो से लड़ा | उसने जो जनकल्याण के कार्य किये, वे भी अपनी राज्य व्यवस्था के सुचारू संचालन के लिए ही किये ।

टीपू ने हिंदुओं और ईसाइयों को सताया इसके पर्याप्त सबूत हैं, वहीं अपने राज्य के हिंदू मंदिरों और पुजारियों को संरक्षण भी दिया, उन्हें दान और अनुदान भी दिया । नंजनगुड, कांची और कलाले मंदिरों और श्रृंगेरी मठ उसके संरक्षण में रहे यह भी तथ्य है ।

अब सवाल उठता है कि जब एक ही व्यक्ति के दो रूप इतिहास में दर्ज हैं तो उसे नायक माना जाए या खलनायक ? जबकि वह दोनों था | हर इंसान किसी के लिए अच्छा तो किसी के लिए बुरा होता है | या एक ही समुदाय के लिए भी किसी समय अच्छा तो किसी समय बुरा होता है |

टीपू को नैतिकता या धर्म के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए, वह बहुस्तरीय व्यक्तित्व था। उसे नायक बताना या खलनायक तानाशाह मानना, दोनों ही सही नहीं होंगे | टीपू की विरासत पर इतिहासकारों द्वारा बहस तो समझ में आती है, किन्तु उसमें राजनेताओं का कूदना कहाँ की समझदारी है
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