हर हिन्दू को समझने योग्य - देवी कवच के एक श्लोक में छुपा संस्कृति का सार तत्व।
देवी कवच का एक श्लोक है -
रसे रूपे च गंधे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी |
सत्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा ||
रस, रूप, गंध, शब्द व स्पर्श की रक्षा योगिनी करें तथा सत्व, रज व तम की रक्षा नारायणी करें |
हर व्यक्ति के अन्दर सात्विकता, विलासिता और तामसी प्रवृत्ति विद्यमान होती है और समय समय पर प्रगट भी होती है ...
मेरे मन में किसी समय दया क्षमा करुणा का भाव प्रगट होता है, तो कभी बढ़िया खाने और भोग विलास की इच्छा होती है, तो कभी क्रोध लोभ लालच की तामसी भावना भी बलवती होती है !
किन्तु सवाल उठता है कि उक्त श्लोक में भगवती से आखिर हमारे अन्दर विद्यमान इन सभी, यहाँ तक कि तमोगुण की रक्षा हेतु भी क्यों प्रार्थना की गई है |
हैं ना हैरत की बात ?
जहाँ तक इसका अभिप्राय मैं समझ पाया, इस श्लोक का अन्तर्निहित भाव यह है कि -
देवी के योगिनी स्वरुप से विषय वासना से सम्बंधित जो रस, रूप, गंध, शब्द, स्पर्श आदि कार्य और क्रिया हैं, उनकी रक्षा हेतु प्रार्थना की गई है | अर्थात जिनसे व्यक्ति को सुख की अनुभूति होती है, उनमें योगी जैसी मनोदशा होना चाहिए |
इसी प्रकार सत्वगुण, रजोगुण व तमोगुण में ठीक बैसा ही तालमेल होना चाहिए जैसा कि नारायण में है, इसलिए उसकी प्रार्थना भगवती के नारायणी स्वरुप से की गई है ....
स्मरणीय है कि नारायण में क्षमा, दया जैसी सात्विकता भी है (महर्षि भृगु का उदाहरण), तो दुष्टों को दण्ड देने का रजोगुण भी है, साथ ही शयन का तमोगुण भी विद्यमान है |
देवी कवच में उक्त सभी की रक्षा की कामना की गई है | दूसरे शब्दों में कहें तो ये सभी गुण जीवन के अनिवार्य तत्व हैं |
ठीक बैसे ही जैसे हमारा शरीर एक दूसरे से एकदम भिन्न गुण युक्त मिट्टी, जल, अग्नि, आकाश व वायु से निर्मित है |
अतः जीवन में कभी हम सात्विक होते हैं, तो कभी राजसी, तो कभी तामसी |
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