विचार नवनीत के अंश भाग (2) - श्री माधव सदाशिव राव गोलवलकर "गुरूजी"


 · जैन साहित्य में एक सुन्दर कथा है | एक बार श्रीकृष्ण, बलराम और सात्यकी एक वन में भटक गए | उन्होंने एक वृक्ष के नीचे रात्री विश्राम का विचार किया और यह निर्णय किया कि प्रत्येक दो दो घंटे पहरा देगा | प्रारम्भ में सात्यकी जगता रहा और शेष दोनों सो गए | तभी वृक्ष पर से एक व्रह्म राक्षस कूदा और उसने सात्यकी को धमकाया कि वह तीनों को खा जाएगा | क्रोधित हो सात्यकी ने उससे युद्ध प्रारम्भ कर दिया | किन्तु सात्यकी को यह देखकर बहुत अचम्भा हुआ कि वह राक्षस आकार और शक्ति में बढ़ता ही जा रहा है | सात्यकी बहुत ही क्षुब्ध और हताश हो गया | पूर्णतः थककर उसने बलराम को जगाया और स्वयं सोने चला गया | सात्यकी के अवकाश लेते ही राक्षस भी लुप्त हो गया, किन्तु कुछ समय बाद पुनः प्रगट हुआ और बलराम को ललकारने लगा | बलराम भी क्रुद्ध होकर राक्षस से युद्ध करने लगे | उनके साथ भी वही कहानी दोहराई गई | उनकी भी वही दशा हुई | उन्होंने थकहारकर कृष्ण को जगाया और स्वयं सोने चले गए |

राक्षस श्री कृष्ण के सामने भी आया, किन्तु वे शांत बने रहे | उन्हें अपनी विशाल शक्तियों का ज्ञान था, अतः उन्होंने राक्षस को कोई महत्व ही नहीं दिया | उन्होंने हंसी मजाक करते और खेल जैसा करते हुए राक्षस पर आघात करना शुरू किया | और यह अद्भुत आश्चर्य हुआ, जैसे जैसे श्री कृष्ण इस प्रकार लड़ते रहे, वह राक्षस आकार में छोटा होता गया | अंत में इतना छोटा हो गया कि श्रीकृष्ण ने उसे पकड़कर अपने अंगोछे के कोने में बाँध लिया | प्रातःकाल जब बलराम और सात्यकी जागे, तो उनके अचरज का ठिकाना नहीं रहा | वे तो रातभर सोने के बाद भी थकावट अनुभव कर रहे थे, जबकि श्रीकृष्ण सहज प्रफुल्लित मुद्रा में थे | जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो | उस समय उन्हें और भी अधिक आश्चर्य हुआ जब उन्होंने उस राक्षस को एक कीड़े की तरह अंगोछे के कोने से बंधा देखा |
अपनी स्वयं की शक्ति में उत्कट आत्मविश्वास तथा शांत मन मस्तिष्क में निश्चित रूप से शक्ति का अजस्त्र भण्डार होता है | जबकि क्रोधातिरेक में शत्रु पर विवेकहीन प्रहार उसकी शक्ति को बढाते हैं |
· महर्षि व्यास ने एक बार अपने शिष्य जैमिनी से एक श्लोक लिखने को कहा –
“बलवान इन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति |“ अर्थात इन्द्रियों का आकर्षण विद्वान् को भी विभ्रांत करता है |
जैमिनी को अपने आत्मसंयम पर अत्यंत विश्वास था, अतः उन्होंने कुछ परिवर्तन के साथ श्लोक लिखा –
“बलवान इन्द्रियग्रामो विद्वांन्सनापकर्षति |“ अर्थात इन्द्रियों का आकर्षण विद्वान् को विभ्रांत नहीं करता है |
व्यास ने इसे देखा और कोई प्रतिक्रया न कर शांत रहे | एक दिन जैमिनी अपनी कुटी में तपस्यारत थे | बाहर मूसलाधार वर्षा हो रही थी | तभी एक युवती पानी में भीगती हुई वहां आई और उसने मुनि से आश्रय माँगा | धूनी की अग्नि के सम्मुख वह अपने कपडे सुखाने लगी, तभी हवा के तेज झोंके में उसकी साडी उड़ गई | युवा जैमिनी का संयम जबाब दे गया और वे उस तरुनी से प्रणय निवेदन करने लगे | युवती ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया कि वे तपस्वी हैं तथा उन्हें इस प्रकार का आचरण शोभा नहीं देता | किन्तु सब व्यर्थ हुआ | अंत में युवती ने इस शर्त पर उन्हें अपनाना स्वीकार किया कि वे उसे कंधे पर बैठाकर अग्नि की तीन परिक्रमा करें | जैमिनी इसके लिए भी सहर्ष तैयार हो गए | जैसे ही उन्होंने अग्नि की परिक्रमा प्रारम्भ की, बैसे ही युवती हँसते हुए बोली – “विद्वांन्सनापकर्षति” | अपने गुरू के शव्दों को स्मरण कर चकित जैमिनी ने जैसे ही युवती को नीचे उतारा, तो देखा उनके गुरू ही उनके सम्मुख खड़े मंद स्मित कर रहे हैं | जैमिनी पश्चाताप में डूब गए | वे तुरंत गए और श्लोक को उसके मूलरूप में परिवर्तित कर दिया |
अपने गुणों का मिथ्याभिमान सभी सद्गुणों का शत्रु व अहंकार का जनक है |
· इतना बड़ा हो जाने से क्या लाभ, कि जिससे अपने ही लोगों में प्यार और मैत्री की भावना से मिलजुलकर जी न सके | संत कबीर ने कहा है –
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
पंछी को छाया नहीं, फल लागे अतिदूर |
इसलिए यदि किसी कार्यकर्ता में महान गुण हैं, तो भी उसे अपनी ऊंचाई से उतरकर सामान्यजनों के स्तर पर जाना चाहिए और समाज में अपने शेष भाईयों से मिलना जुलना चाहिए | उसे दूसरों के साथ इस प्रकार एक रूप हो जाना चाहिए किवे उसे असाधारण न समझें | अपनी योग्यता और त्याग की चेतना से उत्पन्न प्रथकत्व की किंचित छाया भी उसके और अन्य लोगों के मध्य में न आने पाए | अंततः कार्यकर्ता जिन विविध सद्गुणों को स्वयं में उत्पन्न करने के लिए सचेष्ट रहता है, वे सब समाज देवता के चरणों में समर्पण के लिए ही तो है | यही है वास्तविक महानता का सार |
इसी प्रकार हमारे महान युग निर्माताओं ने समाज की बिखरी हुई कड़ियों को जोड़कर संगठित कर अजेय शक्ति में परिवर्तित किया था | शिवाजी गरीब निरक्षर कृषकों से अत्यंत प्रेम और भ्रातृत्व भाव से मिले तथा उन्हें आदर्श से अनुप्राणित कर विजयी राष्ट्र्वीरों में रूपांतरित कर दिया | वे उन लोगों तक पहुंचे, जो मुसलमान बादशाहों की गर्हित दासता स्वीकार कर चुके थे और उन्हें भी स्वदेश और स्वधर्म का कार्य करने के लिए आकृष्ट किया | अद्वितीय योद्धा मुरार बाजी देशपांडे एक ऐसा ही रत्न था, जिसे उन्होंने शत्रुओं से छीन लिया | उन्होंने ऐसे अनेक लोगों को शुद्ध किया, जो मुस्लिम स्त्रियों के प्रलोभन, मुस्लिम राजसत्ता के व्यामोह अथवा अत्याचारों के कारण मुसलमान हो गए थे | उनके एक सेनानायक नेताजी पालकर, जिन्हें ओरंगजेब ने पकड़कर मुसलमान बना लिया था, जब फिर से शिवाजी के पास आये, तो शिवाजी ने उन्हें पुनः हिन्दू समाज में सम्मिलित कर लिया | इतना ही नहीं तो उन्हें समाज मान्य बनाने के लिए अपने ही परिवार की एक कन्या से उनका विवाह कर उनसे रक्त सम्बन्ध भी बना लिया | राष्ट्र के संगठन के लिए उनकी द्रष्टि कितनी व्यापक थी |
· गुजरात के राजा कर्ण का प्रधानमंत्री वेदों का ज्ञाता तथा अनेक कलाओं और शास्त्रों में पारंगत था | एक बार राजा ने कमजोरी के क्षण में एक सरदार की पत्नी का अपहरण कर लिया | प्रधान मंत्री के गुस्से की सीमा नहीं रही और उसने राजा को उसके पाप का दंड देने का निश्चय किया | वह सीधा मुग़ल सुलतान से मिलने दिल्ली गया और अपने राजा के पापकर्म का दंड देने के लिए मदद माँगी | सुलतान तो ऐसे किसी मौके की ताक में ही था | राज्य की सुरक्षा संबंधी भेद जानकर वह तुरंत गुजरात पर चढ़ दौड़ा | परिणाम स्वरुप वह गुजरात जिसने प्रहरी के रूप में अनेक वर्षों तक सफलता पूर्वक मुस्लिम आक्रमण का प्रतिकार किया था अंततः परास्त हुआ | निसंदेह उस युद्ध में राजा मारा गया, किन्तु प्रधान मंत्री को क्या मिला ? उसके अनेकों निजी संबंधी भी मारे गए | उसकी आँखों के सामने अगणित स्त्रियों का शील भ्रष्ट किया गया, उसके आराध्य मंदिरों को धुल में मिला दिया गया | जिस घर में वह वेदपाठ करता था, उसे गाय काटने के बूचडखाने में परिवर्तित कर दिया गया | आने बाले अनेक शताव्दियों तक मातृभूमि का बहुत बड़ा भू भाग पराधीनता को प्राप्त हुआ |
यहाँ हम देखते हैं कि राजा का व्यक्तिगत चरित्र पतित था किन्तु उसका राष्ट्रीय चरित्र प्रखर था | जबकि प्रधानमंत्री का व्यक्तिगत चरित्र उज्वल होते हुए भी उसमें राष्ट्रीय चरित्र का अभाव था | इसके विपरीत हमारे सामने खंडोबल्लाल का प्रसंग आता है | उनके पिताजी शिवाजी के अष्टप्रधानों में से एक थे | किन्तु जब संभाजी सिंहासन पर बैठे तो किसी कारणवश उन्होंने खंडोबल्लाल के पिताजी को मृत्यु के घाट उतार दिया | इतना ही नहीं तो संभाजी की कुद्रष्टि खंडोबल्लाल की बहिन पर भी पडी, जिसने अपने आत्म सम्मान की रक्षा के लिए मृत्यु का वरण कर लिया | इसके बाद भी जब सम्भाजी को ओरंगजेब ने बंदी बना लिया, तब अपने प्राण संकट में डालकर खंडोबल्लाल ने उन्हें छुडाने का प्रयत्न किया | क्योंकि वे जानते थे कि व्यक्तिगत दुर्गुणों के होते हुए भी संभाजी पुनरुत्थानशील हिन्दू समाज के एकत्रीकरण हेतु आवश्यक थे | संभाजी की मृत्यु के बाद भी जब राजाराम सिंहासनारूढ़ हुए तथा जिन्जी के किले में शत्रु से घिर गए, तब अपनी सम्पूर्ण संपत्ति को न्योछावर कर, अपने पुत्र के जीवन को दाव पर लगाकर उनकी मदद खंडोबल्लाल ने की | और अंत में अपना स्वयं का जीवन भी मातृभूमि को समर्पित कर दिया | खंडोबल्लाल जैसे चरित्रों के कारण ही ओरंगजेब जब अपनी पांच लाख की सेना के साथ दक्षिण विजय को आया तो वह स्वयं ही मृत्यु का ग्रास बन गया |
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