जापान के अवसान और फिर उत्थान की कहानी बनाम भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी



सोलहवीं सदी में जापान के राजा ने होलेन्ड की एक कम्पनी को अपने देश में व्यापार की अनुमति दी, उसे लाइसेंस दिया। नागासाकी में उस डच कंपनी को मिलते मुनाफे से उत्साहित अन्य डच कम्पनियां भी वहां आ गईं। फिर धीरे धीरे उनकी मदद से स्पेनिश, फ्रांसीसी, अंग्रेज और अंत में अमरीकी भी वहां प्रवेश कर गए। जो जापान सोलहवीं सदी तक स्वदेशी और स्वावलंबी था, १८५८ आते आते इन देशों की आर्थिक गुलामी में जकड़ गया। इन देशों ने इलाके बाँट लिए, और जापान के अलग अलग हिस्सों पर अलग अलग देशों ने कब्जा कर लिया। जापान हमारे अंडमान निकोबार जैसे द्वीप समूहों, छोटे छोटे टापुओं में बसा हुआ देश है, हमारे जैसी शस्य श्यामला मैदानी भूमि वहां नहीं है। तो ऐसे जापान में हर बस्तु इन देशों की बिकने लगी। सोलहवीं सदी तक जापान के अपने जो छोटे छोटे उद्योग थे वे सब अठारहवीं सदी आते आते समाप्त हो गए। विदेशी वस्तुओं का बोलबाला पूरे जापान में हो गया। 

तब जापान में क्रांति हुई। १८५८ में मेजी नामक एक व्यक्ति का उदय हुआ, जिसने लोगों को बताना शुरू किया कि जापान की गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी इन विदेशियों के जापान में आने से हुई है। धीरे धीरे लोगों को बात समझ में आने लगी और लोग संगठित होने लगे। मेजी के आव्हान पर लोगों ने विदेशी बस्तुओं का बहिष्कार शुरू किया। लोगों को जैसे ही समझ में आया कि हमारे कारण ही विदेशियों को आर्थिक मदद मिल रही है और इसीलिए ये जापान में टिके हुए हैं, इनके बनाए सामान का बहिष्कार होगा तो ये स्वतः चले जायेंगे। बस फिर क्या था जापान में शुरू हो गया स्वदेशी का जबरदस्त आन्दोलन।

जैसे ही इस अभियान ने जोर पकड़ा, अमेरिका, फ़्रांस, इग्लेंड, होलेन्ड आदि देशों में खलबली मच गई। और फिर इन सब देशों ने मिलकर जापान को डराना धमकाना शुरू किया। आप गौर कीजिए जापान की बदनसीबी पर। उनके देश में प्राकृतिक संसाधन के नाम पर अगर कुछ था तो केवल कोयला और उत्पादन केवल सिल्क का होता था। ना तो कोई रॉ मटेरियल और ना ही पूंजी। शासन भी विदेशियों का तो क़ानून और न्याय भी नहीं। उनके पास केवल एक ही वस्तु थी, जो शायद दुनिया की सबसे बहुमूल्य वस्तु है और उसका नाम है – आत्म विश्वास।

इसी आत्म विश्वास ने उन्हें न केवल गुलामी से मुक्ति दिलाई, बल्कि समृद्धि और सपन्नता भी दी। जिस देश के पास कुछ न हो, न तो प्राकृतिक संसाधन, न पूंजी, न सत्ता वह भी आत्मविश्वास के सहारे क्या कुछ कर सकता है, इसका जीता जागता उदाहरण है जापान। जापान में जब मित्सुबिसी कम्पनी बनी, तब उसके सामने गंभीर आर्थिक संकट आया। लेकिन इसके कर्मचारियों ने संकल्प लिया, हम किसी से भीख मांगेंगे नहीं, किसी के आगे हाथ फैलायेंगे नहीं, किसी से कर्ज भी नहीं लेंगे, अर्थ शास्त्र का सिद्धांत है पूंजी श्रम से पैदा होती है, अतः हम उतनी ही पगार में दूने समय काम करेंगे। छः घंटे का वेतन लेंगे, बारह घंटे काम करेंगे। यह एक कम्पनी की बात नहीं है, पूरे जापान में यही हुआ। यह जापानी राष्ट्रभक्ति का चरम था। ध्यान दीजिये – यह काम जापान के मजदूरों से किसी ने जबरदस्ती नहीं कराया, अपनी स्वप्रेरणा और भावना से उन्होंने यह किया। 

यह भी सोचिये की जापान का वह नेता कितना तेजस्वी और चमत्कारी रहा होगा, जिसने पूरे देश में यह स्फूर्ति जगाई। आज अगर जापान दुनिया में सबसे ज्यादा तरल पूंजी बाला देश है, तो उसके पीछे जापान के मजदूरों की उत्कट देशभक्ति ही मुख्य कारण है। आज अमेरिका की भी कई बेंक और बड़ी बड़ी फाइनेंसिंग कम्पनियां एक प्रकार से जापान की मुट्ठी में हैं। दूसरे शब्दों में अमरीका की आर्थिक रीढ़ है जापान। जापानी गर्व से अपनी भाषा में ही काम करते हैं, जापानी बच्चे जापानी भाषा में ही शिक्षा पाते हैं, जापानी केवल स्वदेशी वस्तुओं का ही उपयोग करते हैं, अपनी सभ्यता और संस्कृति को उन्होंने एक इंच भी नहीं छोड़ा है। उनकी संस्कृति में सबसे पवित्र माना जाता है जमीन पर बैठना, जमीन पर सोना, जमीन पर बैठकर लकड़ी के वर्तनों में खाना, आप जापान के किसी भी बड़े से बसे घर में चले जाईये, वह करोडपति का घर हो या रोड पति का, आपको इसी परम्परा का पालन होते दिखाई देगा। 

आज जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने "मन की बात" कार्यक्रम के माध्यम से देश का खोया आत्म विश्वास जगाने की कोशिश करते, या भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा की नीति बनाते  दिखाई देते हैं, तो मुझे तो उनमें जापान के महानायक "मेजी" की छवि दिखाइ देती है। उत्कट देशभक्ति और राष्ट्रोत्थान का संकल्प मन में बसाये अहर्निश जुटा यह इंसान सचमुच अद्भुत है। 

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