भारतीय तत्व चिंतन - डॉ. मुरली मनोहर जोशी (एक भाषण का लघु अंश)

 


वैश्विकरण एवं नवउदारवाद युग में राष्ट्रीयता का क्या महत्व है, इसे लेकर विगत अनेक वर्षों से विश्व में विवाद है। भारत की राष्ट्रीयता वसुधैव कुटुम्बकम की पोषक है जबकि वैश्विकरण केवल आर्थिक चिंतन है, दोनो में भेद तो है किन्तु समन्वय की जरूरत भी है। पश्चिमी चिंतन में संसार को निर्मित करने वाला संसार के बाहर रहता है बनाता भी है और सजा भी देता है और मनुष्य को पृथ्वी के उपभोग के लिए भेजता है। फ्रांसीसी दार्शनिक ने कहा है कि मैं हूं क्योंकि मैं सोचता हूं। मेरी विचार क्षमता ही नियंत्रक है, माइंड इज़ सुप्रीम। चूंकि प्रकृति जड़ है विचार नहीं कर सकती इसलिए मैं उनका उपभोग करने को स्वतंत्र हूं। उनके ही एक शिष्य ने दो कदम और आगे जाकर कहा कि प्रकृति रहस्य जानने के लिए मैं उसका उत्पीड़न भी कर सकता हूं।

ब्रम्हाण्ड क्या है?  यांत्रिक दृष्टि ने कहा कि यह एक यंत्र है। यंत्र की तरह चलता है तो इसे जानने के लिए पहले तोड़िए फिर जोड़िए। निहारिका, सूरज, चांद, तारे से लेकर परमाणु और उसके भी अंदर तोड़ते तोड़ते- तोड़ते न्यूट्रान, प्रोटान, इलेक्ट्रान तक पहुंच गए और अब समस्या है कि ये इलेक्ट्रान क्या है? गॉडपार्टिकल। गॉड तो मिला नहीं पार्टीकल न चला जाए। कहा जाता है कि ग्लोबलाईजेशन गरीब और गरीब देशों के लिए नहीं है। इसके मूल में वही पश्चिमी चिंतन है कि चेतन अचेतन का शोषण कर सकता है। उनका चिंतन प्रारंभ से ही द्वैत का है। जबकि भारतीय संस्कृति में अर्थ चिंतन का आधार अर्थायाम है अर्थात संतुलन।

हम मां का दूध पी सकते हैं, खून नहीं। शरीर में प्राणवायु हर सेल तक पहुंचती है, पहुंचना चाहती है, पहुंचना चाहिए नहीं पहुँची तो कैंसर का ख़तरा है। हर सेल को जरूरत के मुताबिक संपोषण मिलना चाहिए। जरूरत से ज्यादा भी नही और आवश्यकता से कम भी नहीं।

पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव हम पर भी हो रहा है, पहले पूरे मोहल्ले के बच्चे-बच्चे को जानते थे, आज पड़ोसी को भी नहीं पहचानते। यहाँ तक कि परिवार में बच्चे भी घर मे रहते हुए भी माता-पिता से मोबाईल पर बात करते हैं। परिवार हमारी मूल संस्था है इसका टूटना विश्व का टूटना है। मानव प्रकृति से सामाजिक प्राणी है। आज का ग्लोबलाईजेशन व्यष्टि, समष्टि और परमेष्टि में बाधा डालता है। लेकिन इतना तय है कि अंतरराष्ट्रीय ग्लोबलाईज्ड वर्ल्ड को एक बिन्दु पर आना होगा। समृद्धि से शांति नहीं मिलती इसका संतुलन भारत से समझना होगा। जब चिंतन से व्यक्ति-व्यक्ति के संबंध, उनके प्रकृति से संबंध परिभाषित होंगे तब अमृत निकलेगा। पश्चिम को केवल बाजार चाहिए हमें परिवार भी चाहिए बाजार भी चाहिए साथ ही मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, क्यों आया हूं, इन प्रश्नों के उत्तर भी। तत्वमसि!

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