सिंहगढ़ विजय - स्व. वृजेन्द्र अवस्थी जी
गुरू गोविन्दसिंह जी का एक वाक्य बहुत प्रसिद्ध है – चिड़िया से जब बाज लड़ाऊँ ! बाज से स्वाभाविक ही डरने सहमने वाली
चिड़िया, बाज का मुकाबला करने को तत्पर हो जाए, आखिर क्यूं और कैसे ? पुरातन काल का भी स्मरण करें – त्रैलोक्य विजेता लंकापति रावण से जूझने उसकी राजधानी पर चढ़ दौड़े
वनचर वानर भालू आखिर क्यूं और कैसे ! सीधा सा उत्तर है – प्रेरक नेतृत्व और तत्वनिष्ठा ! ऐसा नेतृत्व जिस पर जान निछावर
करने की इच्छा स्वतः उत्पन्न हो जाए ! स्व. वृजेन्द्र अवस्थी जी का खंड काव्य सिंहगढ़
विजय ऐसे ही प्रेरक नेतृत्व द्वारा जन सामान्य में पैदा की गई तत्व निष्ठा की अमर
गाथा है !
आईये कल्पना के रथ पर सवार होकर मेरे
साथ शिवाजी के युग में चलिए | कल्पना कीजिए कि शिवाजी के एक बाल सखा ताना जी
मौलसरे अपने बेटे की शादी का निमंत्रण पत्र देने उनके पास पहुंचते है और देखते है
कि शिवाजी योद्धा वेश में रणभूमि की ओर प्रस्थान करने को उद्यत हैं | उन्हें ज्ञात
होता है कि प्रतिदिन सुबह जब माँ जीजा बाई सूर्य को अर्ध्य देने हेतु गढ़ की
प्राचीर पर जाती हैं, तो उन्हें सामने ही सिंहगढ़ पर फहराता हुआ मुग़ल सल्तनत का हरा
चाँद तारों वाला झन्डा कचोटता है और आज उन्होंने तय कर लिया है कि वे अन्न जल तब
ही ग्रहण करेंगी, जब उस सिंहगढ़ दुर्ग पर भगवा फहराता देख लेंगी |
ताना जी भूल गए बेटे की शादी, उन्हें
याद रही तो केवल मां जीजा बाई की प्रतिज्ञा | उन्होंने हठ ठान ली कि शिवाजी के
स्थान पर वे ही इस अभियान पर जायेंगे | हठ भी इतना प्रबल कि शिवाजी जैसे लौह पुरुष
को भी झुकना पड़ा और शेलर मामा, येशाजी आदि वीरों के साथ, मावलों – मराठों की एक
छोटी सी सैन्य टुकड़ी सिंह गढ़ विजय के संकल्प के साथ निकल पडी |
यहाँ से शुरू होती है प. ब्रिजेन्द्र अवस्थी
जी के खंड काव्य की यह यात्रा –
वह माघ मास की कालरात्रि,
तमनिधि में डूबा आसमान,
पर दूर क्षितिज के कोने से देता है
कोई दीप दान
उस निबिड़ तिमिर से युद्ध ठान,
बढ़ते कुछ ज्योति लकुट जलते
उनके पीछे पीछे देखो कुछ शनः शनः
सैनिक चलते
वह कभी पंथ पर कभी अपथ फिर कभी कभी
चलते अराल
फिर कभी चतुर्दिक हेर पुनः धीमे चलते
फिर तीव्र चाल
बढ़ते बढ़ते यूं अटवी के तरु झुरमुठ में
वे गए ठहर
तब सबसे आगे का सैनिक बोला अपना कर
धीमा स्वर
प्रणबीरो हो अब सावधान,
आ गई परीक्षा की बेला
उन जलते दीपों में करना प्राणों के
दीपों का मेला
शेलर मामा तुम ले इतने वीरों के मेरे
साथ चलो
सूर्या जी तुम इन वीरों को ले गढ़ के
दायें हाथ चलो
कल्याण द्वार पर अर्ध रात्री में वार
करो अभियान करो
येषा तुम रात्री आक्रमण को द्रोणागिरी
ओर प्रस्थान करो
सब चलने को सन्नद्ध वीर तब धीमे से इक
स्वर आया
पर ताना तू तो है कल से निर्जल ना अभी
तक कुछ खाया
पहले कुछ कर लो पान वत्स तब फिर रण को
प्रस्थान करो
युवको तुम भी यदि चाहो तो कुछ खा पीकर
अभियान करो
यह सुन ताना के भावांकुर,
परिसुप्त अचानक डोल उठे
कुछ निर्भयता से द्रढता से कुछ आतुरता
से बोल उठे
शेलर मामा माँ जीजा के भीषण प्रण का
तो करो ध्यान
वे रहें अन्नजल हीन और हम प्रमुदित
होकर करें पान
मेरी भी यही प्रतिज्ञा है पहले जय वरण
करूंगा मैं
या देह विसर्जन ही होगा अन्न जल ना
ग्रहण करूंगा मैं
हम सैनिक निर्जल कब रहते पीते तलवारों
का पानी
खाने को हमें चाहिए तो यम का प्रहार
वह पाषाणी
फिर कैसी क्षुधा बढ़ो आगे माँ दुर्गा
का जयगान करो
देवी की आज्ञा है वीरो बढ़ बढ़कर शोणित
पान करो
चल पडी मशालें तीन ओर अवनी का अंतर
डोल उठा
प्रत्येक वीर जय महाकाल जय महाकाल की
बोल उठा
यह सिंहदुर्ग का प्रष्ठ भाग है अचल
रीढ़ झुक गई जहां
मावलों मराठों की टुकड़ी चलते चलते रुक
गई वहां
ताना ने ली कमन्द जिसका था घोरवाद
यशवंत नाम
फेंकी पर कोटे पर सलक्ष कर बार बार
प्रभु को प्रणाम
पर अन्धकार की महाविषम माया जिसकी
द्रष्टि फिरी
जो अर्ध मार्ग से अधोमुखी होकर भूतल
पर लौट गिरी
इस महा अपशकुन से क्षण को मन में असमय
का बोध हुआ
चढ़ गईं त्योरियां नायक की,
उर में सहसा ही क्रोध हुआ
ताना ने फिर घोरवाद फेंकी उन्नत
परकोटे पर
जो अटक गई इस बार सुद्रढ़ गढ़ के
प्राच्चय के ओटे पर
मुख में दावे तलवार प्रखर पहले शेलर
प्रणवीर चढ़े
फिर ताना तब फिर बीस बीस मिल साथ साथ
रंधीर चढ़े
ऊपर पहुंचे योद्धा पचास तब तक वह
रस्सी टूट गई
यह हुआ ईश्वरी घात सकल सेना पीछे ही
छूट गई
ऊपर ऊपर वे सुभट चीर तम का अवगुंठन
घोर चले
नीचे के सैनिक साथ साथ कल्याण द्वार
की ओर चले
अरि के सैनिक निश्चिन्त बने कुछ जगते
थे कुछ सोते थे
कुछ स्वप्नलोक में प्रेयसी के चुम्बन
को व्याकुल होते थे
कुछ थे मदहोश पड़े कुछ थे प्यालों पर
प्याले नाप रहे
कुछ ऊंचे स्वर में बन बनकर तानों पर
तान अलाप रहे
ए महरू तेरे हैं तीर अजब है जिनकी कोई
कमान नहीं
घायल ये जिगर हो जाता है,
पर लगता कोई बाण नहीं
तब तक सचमुच कुछ चले बाण जिनकी न
कमानें दीख पडीं
मरने वाले मर चले सत्य सच्ची वे तानें
दीख पडीं
चालक पचास पर चलते थे अनगिनत अचानक
बाण साथ
चल रहे कलम्ब विमानों पर दिव को थे
अगनित प्राण साथ
कुछ घायल हो निश्चेष्ट गिरे कुछ सोये
जो न जाग पाए
पर तीरों से उन मावलियों के कोई भी न
भाग पाए
कल्याण द्वार पर सकल्याण ताना जी का
अधिकार हुआ
बाहर के सैनिक घुस आये चंडी का जय
जयकार हुआ
केवल उनमें का एक शत्रु बच उदयभानु के
पास गया
तब तक अवशिष्ट पठानों का हो क्षण में
सत्यानाश गया
भागता हुआ आहत पठान जा उदयभानु के पास
गिरा
दुश्मन का हमला हुआ यही कह तोड़ आख़िरी
सांस गिरा
दुश्मन का हमला सुन सहसा क्षण को अरि
के उड़ गए होश
गढ़ पर महान संकट लखकर वह लपका बाहर को
सरोष
सिद्दी हलाल द्रुत बढ़ो बढ़ो ले
चन्द्रावली को साथ बढ़ो
ओ रणधीरो संभलो संभलो वेधने शत्रु के
माथ बढ़ो
अब खुला युद्ध प्रारम्भ हुआ,
तीरों की मार समाप्त हुई
खन खन तलवारें निकल पडीं,
भीषणता रण में व्याप्त हुई
था एक ओर सेना सागर,
थे एक ओर कुछ चुने वीर
वाडव सा सोखे जाते थे,
जो शत्रुजनों का प्राण नीर
वे आगे बढ़ते जाते थे,
अरिदल पर चढते जाते थे
मावले मराठे सकल दुर्ग लोथों से मढ़ते
जाते थे
ताना थे रण में झूम झूम क्रोधित हो
अरिदल काट रहे
लाशों पर लाशें गेर रहे रणथल में पाट
ललाट रहे
सिद्दी हलाल झपटा आगे,
उसका भूलुंठित मुंड हुआ
चन्द्रावली झपटा ताना पर चिंघाड़ गिरा
निःशुण्ड हुआ
पर त्यों ही झपटा उदयभानु कर छल से उन
पर वार दिया
कट गिरा दाहिना हाथ तीव्र तेगा पीछे
से मार दिया
जब तक संभले ताना तब तक उसके वारों पर
वार हुए
कुछ तो मस्तक के पार हुए कुछ वक्षस्थल
के पार हुए
गिर पडा मराठों का नायक महाराज शिवा
का बालसखा
बन गया मृत्युवर मृत्युंजय,
रणगति पाकर वह कालसखा
शेलर गरजे राठौर बचो अब रक्षित अपना
माथ करो
मेरे इन बूढ़े हाथों से आगे बढ़ दो दो
हाथ करो
इतना कहते असि बज्रतुल्य गिर पडी
चीरती शत्रु ढाल
उछाला शोणित का फव्वारा हो गया देह से
भिन्न भाल
उसके गिरते गिरते रिपु की सेना में
हाहाकार मचा,
भागो भागो तौबा तौबा यूं कातर शोर
अपार मचा
सब अस्त्र शस्त्र तज तज अपने रिपु
प्राण लिए भागने लगे
कुछ हाथ जोड़ रणरोष छोड़ अब शरणदान
माँगने लगे
फिर गढ़ के कंगूरे पर भगवा ध्वज लहरा
वार वार
ऊषा ने उसकी आभा की झांकी ली नयनों
में उतार
अब सावधान यह जय जय का किस ओर निनाद
सुनाता है
खटपट खटपट खटपट खटपट किसका दल बढ़ता
आता है
आगे आगे प्रतिभाशाली दैदीप्यमान
अधिनायक है
जिसका मुखमंडल शांत प्रखर सुख दायक है,
भयदायक है
वह लौह पुरुष गढ़ ओर बढ़ा,
कर पार प्रथम कल्याण द्वार
गढ़ के प्रांगण में गूँज उठी जय शिवा
जय शिवा की पुकार
जब दुर्ग विजित सैनिक विमूक क्यूं घूम
रहे कर शोक आज
घोड़े से उतर स्वयं पैदल चल पड़े सोचते
महाराज
देखा गढ़ के कंगूरे पर भगवा ध्वज
लहराता फर फर
देखा शोणित से रंगा हुआ,
शव मंडित धरती का अंतर
देखे रिपु के सैनिक बंदी,
पर अपना वन्धु नहीं देखा
सब ओर नयन घूमे गढ़ में,
पर ताना को न कहीं देखा
फिर पूछ उठे शेलर मामा मुझ से क्यूं
भेद छिपाते हो
है कहाँ छिपा मेरा ताना सत्वर क्यूं
नहीं बताते हो
यह सुन येषा ने आगे बढ़ जब साहस उर में
धार लिया
ताना के शव पर ढका हुआ केसरिया वस्त्र
उतार दिया
शेलर सूर्या सैनिक समस्त यह द्रश्य
देख डीडकार उठे
मर्माहत होकर महाराज हा ताना वन्धु
पुकार उठे
उनके नयनों में माता का वह मूर्तिमान
हो प्रण आया
उनके नयनों में ताना का रणहठ का पावन
क्षण आया
फिर स्वर गूंजे कुछ कानों में अपने
सैनिक का बल देखें
माँ से भी नम्र निवेदन है वे मेरा रण
कौशल देखें
जो ज्योति स्तम्भ है संस्कृति का उस
पर न आंच आने दूंगा
हिन्दू स्वराज्य संस्थापक को रण में न
आज जाने दूंगा
इस गढ़ की जय का समाचार ज्यूं ही माता
सुन पायेगी
त्यों ही भाई ताना तुझको वह अपने पास
बुलायेगी
वात्सल्य मूर्ती माँ के सम्मुख तब
किसे भेज सत्वर दूंगा
राय बा तुझे जब पूछेगा तब उसको क्या
उत्तर दूंगा
यदि ऐसा होता ज्ञात मुझे तो तुझे नहीं
आने देता
यूं माँ के आज्ञा पालन का तुझको न
श्रेय पाने देता
इस महादुर्ग को लेने में है पडा
चुकाना मूल्य नया
उनके मुख से निकले यह स्वर गढ़ तो आया
पर सिंह गया || “गढ़ आला पण सिंह गेला”
||
एक टिप्पणी भेजें