वैद्य गुरुदत्त जी: भुला दिया गया कलम का सिपाही




देश में विमर्श की दिशा एकांगी है। कतिपय समालोचक जो किसी विचारधारा विशेष का कूडा-कचरा प्रेमचंद्र के स्तर का बता सकते हैं, वे किसी के जीवनभर का श्रम तथा संघर्षों को गहन सन्नाटा प्रदान करने में भी सक्षम हैं। दो सौ से अधिक उपन्यास तथा अप्रतिम शोध-साहित्य का लेखक वैद्य गुरुदत्त नयी पीढी के लिये अनजाना क्यों है? क्या इसलिये कि उनका लेखन वामपंथी पैमानों के लिये खोटा था? "हिंदी साहित्य में लाल ही चलेगा" की ठेकेदारी ने गुरुदत्त जैसे साहित्यकार को न ही विमर्श में स्थान दिया, न पाठ्य पुस्तकों में। यह अलग बात है कि साठ तथा सत्तर के दशकों में गुरुदत्त हिन्दी के सर्वाधिक पढे जाने वाले लेखक रहे हैं।

गुरुदत्त का जन्म लाहौर (अब पाकिस्तान)में 8 दिसंबर, 1894 को निम्न मध्यम-वर्गीय अरोडी क्षत्रिय परिवार में हुआ था। पिता श्री कर्मचंद आर्यसमाजी थे, जबकि माता सुहावीदेवी की आस्था वैष्णव मान्यताओं के प्रति रही थी। ऐसे में धार्मिकता और विवेचना का जो वातवरण घर में उपलब्ध था उसने गुरुदत्त को गहरे प्रभावित किया।

गुरुदत्त की आरम्भिक शिक्षा डी.ए.वी. स्कूल के माध्यम से हुई। वर्ष 1907 में क्रांतिकारी अजीत सिंह के नेतृत्व में "भारत माता सोसाईटी" की स्थापना हुई, गुरुदत्त इसकी बैठकों में हिस्सा लिया करते थे। उस दौर में वे विज्ञान से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण हुए। विज्ञान की शिक्षा तथा धर्म पर विमर्श ने उन्हें तार्किक बनाया। वे गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर के विज्ञान विभाग में डिमांस्ट्रेटर के पद पर नियुक्त हुए। वर्ष 1917 में उनका विवाह यशोदा देवी से हुआ, वैवाहिक जीवन आदर्श रहा तथा इस दम्पत्ति को पाँच संततियाँ हुईं। स्वदेशी आंदोलन तथा अंग्रेजों के प्रति वितृष्णा की भावना ने उन्हें सरकारी नौकरी छोडने की प्रेरणा दी। इसके कुछ समय पश्चात वे लाहौर के नेशनल स्कूल में मुख्य-प्राध्यापक के रूप में कार्य करने लगे। ब्रिटिश दबाव में अध्यापन उन्हें छोडऩा पडा। आजीविका की तलाश में वे अमेठी आ गये। अमेठी में उन्होंने राजा के निजी सचिव के रूप में कुछ समय तक कार्य किया। पश्चात उन्होंने आयुर्वेद का अध्ययन किया तथा लखनऊ, लाहौर और दिल्ली में क्रमश: वैद्यिकी का कार्य करते रहे। दिल्ली में आयुर्वैदिक चिकित्सक के रूप में उनका कार्य चल निकला। आर्थिक रूप से स्थिर होने के पश्चात उन्होंने लेखन की दिशा प्रशस्त की। वे कालांतर में जनसंघ से भी जुड़े, परंतु बाद में केवल स्वतंत्र लेखन में ही अपने आपको डुबो लिया। 95 वर्ष की आयु में हृदयाघात से उनका देहावसान दिनांक 8 अप्रैल 1989 को हुआ।

गुरुदत्त का पहला उपन्यास "स्वाधीनता के पथ" पर वर्ष 1940-41 के मध्य लिखा गया। यह वह समय था जब भारत ब्रिटिश दास्तां से मुक्ति के लिये कसमसाने लगा था। पहला ही उपन्यास पाठक के मर्म पर चोट करने का कार्य कर गया, इसके बाद तो लेखनी नदी हो गयी।

राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत लेखक जो विज्ञान का अध्यापक भी है, राजनीति में अभिरुचि रखता है और अपनी धार्मिक जड़ों से भी सम्बद्ध है, अपनी इस सभी विशेषताओं को सम्मिश्रित कर रचना कर्म करने लगा था। विभाजन, स्वतंत्रता प्राप्ति, रियासतों का एकीकरण, गाँधी जी की हत्या, तेजी से बदलते सभी घटनाक्रमों का साक्षी लेखक अपने समय की क्रूरता का दस्तावेज सरल किंतु रोचक भाषा में रच रहा था। गुरुदत्त की उपेक्षा उस दौर में नहीं हुई जबकि गाँधी और नेहरू का समय था; वे उनके वैचारिक प्रतिपक्ष में साहसिकता से लिख रहे थे। आज जब वामपंथी यह नैरेटिव सामने रखते हैं कि लेखक का पक्ष हमेशा सत्ता का प्रतिपक्ष होना चाहिये तब उन्हें नेहरू युग में उनकी ओर लगभग नतमस्तक रही साहित्य की तत्कालीन धारा के विमुख लिखने वाले लेखक गुरुदत्त को तो हाथों-हाथ उठा लेना चाहिये था, परंतु आश्चर्य है कि आज विमर्श की अस्पृश्यता से उन्हें गुजरना पड़ रहा है।

वृहद रचनासंसार उपस्थित करने वाले लेखक पर सार-संक्षेप में कुछ कहना सागर को गागर में भरने का असम्भव प्रयास है। गुरुदत्त की इतिहास दृष्टि पर गहरे शोध की आवश्यकता है। उन्होंने वेदों सहित प्राचीन शास्त्रों-स्मृतियों की गहन व्याख्या करते हुए बहुत से जटिल प्रश्नों के सरल उत्तर अपनी वैज्ञानिक दृष्टि से देने का प्रयास किया है।

इतिहासकार के लिये पृथ्वी की उत्पत्ति रुचि का विषय नहीं है; उसे विज्ञान की कल्पनाशीलता के लिये छोड दिया गया है, परंतु गुरुदत्त "साईंस और वेद" अथवा "वेद और वैदिक काल" जैसी कृतियों में अतीत को गढने का आरम्भ साक्ष्यों सहित सृष्टि की रचना से करते हैं। आज पृथ्वी की उत्पत्ति के सम्बंध में बिग बैंग थ्योरी को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है। गुरुदत्त प्रश्न उठाते हैं कि वैज्ञानिकों के पास वह महान धमाका (बिग-बैंग) किसमें हुआ, क्यों हुआ इसका कोई उल्लेख नहीं है। गुरुदत्त अनेक वैदिक मंत्रों का उल्लेख करते हुए सिद्ध करते हैं कि यह दृष्य जगत शून्य से उत्पन्न नहीं हुआ, क्योंकि शून्य से कुछ भी उत्पन्न नहीं हो सकता। इस जगत का मूल अतिसूक्ष्म, आवेश रहित स्वधा नाम का तरल पदार्थ था, रचना कर्म आरम्भ होने पर प्रकृति सहसा जागृत हो उठी और अंतरिक्ष में तीव्र गति से फैल गयी। इस शक्ति को अश्व, अर्वा अथवा वाजी नाम दिया गया है, अर्थात वह शक्ति जो सृष्टि रचनाकार्य को ऐसे चलाती है जैसे घोड़ा गाड़ी को चलाता है (ऋग्वेद 10-129-3)। यह शक्ति परमाणुओं पर लगाम की भांति आरूढ़ हो गयी। परमाणु में त्रिगुणात्मक शक्ति संतुलित अवस्था में समाहित थी। इन शक्तियों में परस्पर आकर्षण-विकर्षण होने लगा तो परमाणुओं में गति उत्पन्न हुई। यह गति वायु अथवा मातरिश्व कहलाती है। गति से परमाणुओं में संयोग बनने लगे। ये संयोग निबंधन कहे जाते हैं, ये तीन प्रकार के हैं और आप: कहे जाते हैं। इनपर शेष आवेश से, ये तीन प्रकार के हैं। सत्त्व विद्युत प्रधान, धन विद्युत आवेश वाले (+) निबंधन प्रोटोन तथा वरुण कहे जाते हैं। रजस गुण प्रधान ऋण विद्युत आवेश वाले (-) मित्र और इलेक्ट्रॉन कहे जाते हैं। तमस गुण प्रधान शून्य आवेश वाले (0) आर्यमा (न्यूट्रोन) कहे जाते हैं। ये तीनों आप: जगत की रचना करते हैं। प्राचीन कृतियों की वैज्ञानिक व्याख्या में जैसी दक्षता गुरुदत्त को प्राप्त है वह कम ही लेखकों में देखने को मिलती है।

गुरुदत्त को केवल उपन्यासकार कह कर उनकी इतिहास दृष्टि से मुँह नहीं मोड़ा जाना चाहिये। गुरुदत्त भारतीय इतिहास के विकृतिकरण का जो तर्क देते हैं उसे देखें कि – मुसलमानी राज्यकाल में भारत के प्राचीन ग्रंथों को जलाने का भरसक प्रयत्न किया गया। ग्रंथ लिखने वालों को राज्य का प्रोत्साहन और शांत वातावरण नहीं मिला। बहुत कठिनाई से प्राचीन साहित्य की केवल वे ही पुस्तकें सुरक्षित रखी जा सकीं जिनको हिंदू विद्वान, हिंदू समाज के अस्तित्व के लिये परमावश्क मानते थे। इसके उपरांत अंग्रेजों का काल आया। वह मैकाले साहब थे जिन्होंने मैक्समूलर को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में स्थान दिलवाया था, जिससे वह हिंदू-शास्त्रों के विकृत अर्थ कर सकें। किस उद्देश्य से मैक्समूलर इत्यादि लोग भारतीय शास्त्रों का अनुवाद करते थे यह उनके एक वाक्य से ही पता चल जाता है- ‘भारत का प्राचीन धर्म मरणासन्न है और यदि उसका स्थान ईसाई धर्म नहीं लेता है तो किसका दोष हो सकता है?'

गुरुदत्त कहते हैं कि अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा व्यवस्था को माध्यम बना कर भारतीयों के इतिहासबोध में जो विकृतियां डालीं, उसके कुछ उदाहरण हैं – आर्य जाति हिंदुस्तान के बाहर से यहाँ आयी थी, वेदों में गड़ेरियों के गीत हैं, रामायण-महाभारत-पुराणों के ऐतिहासिक अंश लेखकों की कल्पना हैं, इनका कोई अस्तित्व नहीं था, भारत के रहने वालों को इतिहास लिखना आता ही नहीं था अर्थात् भारतवर्ष का कोई अपना इतिहास ही नहीं है। इस पर तथा वर्तमान समय के इतिहासकारों की धांधली पर वे लिखते हैं – आज के तथाकथित इतिहासकारों ने भारत का इतिहास लिखने में इतनी धांधली मचा रखी है कि सत्य-असत्य में निर्णय करना भी कठिन हो रहा है। यह धांधली योरुप के नास्तिकवाद और भ्रामक विज्ञानवाद के कारण है। इन दोनों का मूल यहूदी, ईसाई और इस्लाम की अयुक्तिसंगत जीवन मीमांसा प्रतीत होती है।

भारतीय कम्युनिष्टों ने जानबूझकर गुरुदत्त के सम्पूर्ण लेखन की उपेक्षा की है। इसका एक कारण कम्युनिज्म की अव्यावहारिकता पर उनके कठोर विचार तथा तर्कपूर्ण आलेख भी हो सकते हैं। उनकी कृति ‘धर्म तथा समाजवाद’ से यह उद्धरण देखें कि – कार्ल मार्क्स और एंजेल ने सारा बल पूंजीवाद की निंदा करने और इसे हटाने के लिये क्रांति लाने पर लगा दिया है। अपने घोषणापत्र में वे कम्युनिष्टों से कहते हैं – प्रत्येक स्थान पर क्रांतिकारी आंदोलन की सहायता करें, जो उपस्थित राजनैतिक अवस्था के विरुद्ध हो। कम्युनिष्टों के इस आदेश के प्रकाश में हैदराबाद के कम्युनिष्टों का रजाकारों के साथ सम्मिलित हो कर भारत सरकार के विरुद्ध संघर्ष करना समझ में आ जाता है। वामपक्षीय कम्युनिष्टों का चीन की, पाकिस्तान की सहायता भी समझ में आने लगती है। ये तो सत्य-असत्य, उचित-अनुचित सब प्रकार के आंदोलनों में सम्मिलित होने को तैयार रहते हैं, जिनसे अव्यवस्था उत्पन्न हो सके। इसके साथ ही भारतीय कम्युनिष्ट नेता यह नहीं बता गये कि वर्तमान व्यवस्था के नष्ट भ्रष्ट होने पर क्या किया जाये, जिससे समाजवादी व्यवस्था उत्पन्न हो सके। साथ ही यह भी स्पष्ट नहीं किया गया कि समाजवादी व्यवस्था क्या होगी।

गुरुदत्त की दूरदर्शिता को आज के समय के कथित कम्युनिष्ट देशों की वास्तविकाताओं से जोड़ कर देखें जब वे लिखते हैं कि – समाजवाद ने वही सब कुछ किया है जो आज से एक सौ वर्ष पूर्व एक पूंजीपति करता था। अंतर केवल यह है कि व्यक्ति के स्थान पर एक विचार के कुछ लोगों का गुट शोषक बन गया है। सबसे पापयुक्त बात समाजवाद ने यह की है कि उस शोषक गुट को राज्यसत्ता से भी युक्त कर दिया गया है। इस कारण इस गुट के शोषण से बचना किसी व्यक्ति के शोषण से बचने से कहीं अधिक कठिन है। ऐसे मुखर विचारों का व्यक्ति चर्चित हुआ तो स्वाभाविक है कि समालोचना की तलवार से लेखन को खारिज करने वाली शक्तियाँ खुल कर सामने आ गयीं। क्या आर्य समाज से प्रभावित होना अपराध है? क्या अपनी धार्मिक जड़ों को पानी देना अपराध है? क्या प्राचीन पुस्तकों की तार्किक व्याख्या अनुचित है? क्या उन विषयों को उपन्यास के माध्यम से सामने लाना भूल थी जिस पर कोई कलम चलाने का साहस भी नहीं करता है?

मूलरूप से गुरुदत्त उपन्यासकार थे। उन्होंने राजनीति, पौराणिक आख्यानों, इतिहास और समाजशास्त्र के ज्वलंत विषयों को उठाया और रोचक कथानकों में बुन कर पाठकों के समक्ष रखा। उनके कतिपय लोकप्रिय उपन्यास हैं – 'स्वाधीनता के पथ पर', 'पथिक', 'स्वराज्यदान', 'विश्वासघात', 'देश की हत्या', 'दो लहरों की टक्कर', 'दासता के नये रूप', 'कुमार सम्भव', 'उमड़ती घटायें', 'अमृत मंथन', 'परम्परा', 'अग्नि परीक्षा', 'कुमकुम', 'विक्रमादित्य', 'पुष्यमित्र', 'लुढ़कते पत्थर', 'पत्रलता', 'गंगा की धारा', 'खण्डहर बोल रहे हैं', आदि आदि।

गुरुदत्त के उपन्यास अतीत का विमर्श हैं तो विभाजन और राष्ट्र के पुनर्निर्माण के दौर की त्रासदियों का जीवंत चित्रण। गुरुदत्त ने अनेक कहानियाँ लिखीं जो अपने समय की प्रतिष्ठित पत्रिका 'माया' के माध्यम से सामने भी आती रहीं।

गुरुदत्त को अर्थार्जन के लिये लिखने वाला लेखक, हिंदूवादी, सस्ती लोकप्रियता के लिये लिखने वाला, अप्रगतिशील, रूढि़वादी, संस्कृतिवादी, आदि कह कर प्रस्तुत किया गया है। वस्तुत: यह एक चर्चित लेखक के प्रति खीझ है। गुरुदत्त जैसे साहित्यकार कभी कभी पैदा होते हैं। उन पर पुन: विमर्श की आवश्यकता है।


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