देश की नब्ज (कुछ कही कुछ अनकही)



चुनाव ही चुनाव 

भले ही कुछ राजनेता यह संभावना जता रहे हैं कि लोकसभा के चुनाव समय से पूर्व अर्थात इसी वर्ष हो जाएंगे, लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या चुनाव आयोग मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना आदि पांच राज्यों और लोकसभा के चुनाव एक साथ करा सकता है ? यह सवाल इसलिए भी क्योंकि महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में भी मई में लोकसभा चुनाव के बाद बारी बारी से चुनाव होना है। अक्टूबर में महाराष्ट्र का चुनाव, फिर नवंबर में हरियाणा का और दिसंबर में झारखंड का चुनाव होना है। अगर लोकसभा के चुनाव इसी वर्ष पांच राज्यों के साथ होते हैं, तो इन तीन राज्यों के चुनाव भी उनके साथ ही हों क्या यह स्वर नहीं उठेगा ? 

बैसे भी उक्त तीनों राज्यों के भारतीय जनता पार्टी के नेता चाहते हैं कि उनका चुनाव लोकसभा के साथ हो। भाजपा के प्रदेश नेता चाहते हैं कि लोकसभा के साथ चुनाव होगा तो मोदी की हवा में प्रदेश की नाव भी पार लग जाएगी। लेकिन क्या भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व इसके लिए तैयार होगा? जिस तरह से ई व्ही एम मशीनें तैयार की जा रही हैं, उसे देखते हुए और राज्य की राजनैतिक उठापटक में यह संभावना अवश्य जताई जा रही है कि इस साल के अंत में ही महाराष्ट्र के चुनाव हो सकते हैं। अर्थात पांच के स्थान पर छः राज्यों में चुनाव। 

अडानी और महाराष्ट्र की राजनीति 

कई राजनेताओं का मानना है कि शरद पंवार देश की राजनीति के सबसे चतुर खिलाड़ी हैं। उनकी चालें आमतौर पर समझ से परे होती हैं। अब जबकि उनके भतीजे अजित पवार ने भाजपा को समर्थन देकर उप मुख्यमंत्री का पद हासिल कर लिया है तो एक बात पर सभी लोग सहमत हैं कि शरद पवार को पहले से इसकी जानकारी न हो यह हो नहीं सकता। एक और संयोग विचित्र है कि तीन महीने से कम समय में शरद पवार और उद्योगपति गौतम अडानी की दो बार मुलाकात हुई है। जब पहली बार 20 अप्रैल को शरद पवार से मिलने गौतम अडानी उनके घर गए तो इस मुलाकात के 12 दिन बाद अर्थात दो मई को शरद पवार ने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने का ऐलान किया था। वह ड्रामा एक हफ्ते चला, उसके बाद इस्तीफा वापस हो गया। फिर एक जून को अडानी ने पवार के घर जाकर उनसे मुलाकात की। यह मुलाकात आधे घंटे की थी। इस मुलाकात के एक महीने बाद शरद पवार की पार्टी टूट गई। क्या यह संयोग है ?

आखिर स्वामी का धैर्य जबाब दे ही गया। 

भाजपा के नेता और पूर्व सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी यूं तो लगातार मोदी सरकार के कामकाज पर सवाल उठाते आ रहे थे। लेकिन सीधे प्रधान मंत्री मोदी पर हमले से बचते रहे थे। लेकिन अब उन्होंने खुली बगावत का ऐलान किया है। स्वामी ने ट्विट करके कहा है कि मोदी ने भारतीय मीडिया को पूरी तरह से नपुसंक बना दिया है। उन्होंने ट्विट में लिखा है- मोदी ने भारत के लोकतंत्र को रूस और चीन के स्तर पर ला दिया है, इसलिए अब मैं पूरी तरह से उनके खिलाफ हूं। यह पहली बार है, जब स्वामी ने इस तरह से लिखा है कि वे मोदी के पूरी तरह से खिलाफ हैं। बहुत से लोग कहते हैं कि राज्यसभा दोबारा नहीं भेजे जाने की वजह से स्वामी नाराज हैं। लेकिन क्या यह सिर्फ राज्यसभा में नहीं जाने का दर्द है ? 

क्या बदलेगा राजयसभा का गणित ?

चुनाव आयोग ने राज्यसभा की 10 सीटों पर दोवार्षिक चुनाव की घोषणा कर दी है। इसके साथ ही यह कयास लगाया जाने लगा है कि कौन कौन वापस लौटेगा। तीन राज्यों में इन 10 सीटों के चुनाव होंगे। एक सीट गोवा की है, जो भाजपा को जाएगी। गुजरात की तीन सीटें हैं और वह भी भाजपा के खाते में जाएगी। रिटायर हो रहे तीनों सांसद भी भाजपा के ही हैं। इनमें एक सांसद विदेश मंत्री एस जयशंकर हैं। उनका फिर से राज्यसभा में जाना तय है। हालांकि कुछ दिन पहले चर्चा हो रही थी कि वे दिल्ली की किसी सीट से चुनाव लड़ सकते हैं लेकिन लोकसभा का चुनाव अगले साल अप्रैल-मई में है। इसलिए मंत्री बने रहने के लिए जरूरी है कि वे सांसद रहें। सो, वे निश्चित रूप से राज्यसभा में जाएंगे। बाकी जुगल सिंह माथुर और दिनेशचंद्र अनावादिया की वापसी मुश्किल है। बताया जा रहा है कि पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूपानी और उनकी सरकार में उप मुख्यमंत्री रहे नितिन पटेल को मौका मिल सकता है।

बाकी छह सीटें पश्चिम बंगाल की हैं। इन छह में से पांच सीटें तृणमूल कांग्रेस के खाते में है और एक सीट कांग्रेस की है। कांग्रेस प्रदीप भट्टाचार्य की सीट गंवाने जा रही है क्योंकि राज्य की विधानसभा में उसका एक भी विधायक नहीं है। यह सीट भाजपा के खाते में चली जाएगी, जिसके 75 विधायक हैं। तृणमूल कांग्रेस को अपनी पांचों सीटें वापस मिल जाएंगी। उसके रिटायर हो रहे सांसदों में सबसे अहम नाम डेरेक ओ ब्रायन का है। वे लगातार दो बार राज्यसभा सांसद रहे हैं। दिल्ली में वे पार्टी का चेहरा हैं इसलिए उम्मीद की जा रही है कि उनको तीसरा मौका मिल सकता है। वे अखबारों में अखबारों में पार्टी के पक्ष में लिखते हैं और सर्वदलीय बैठकों में पार्टी का नेतृत्व करते हैं। उनके अलावा सुखेंदु शेखर रॉय, सुष्मिता देब, डोला सेन और शांता छेत्री रिटायर हो रहे हैं। इसमें सुखेंदु शेखर राय को छोड़ कर बाकी तीनों की टिकट अनिश्चित है।

इस प्रकार भाजपा को एक सीट का फायदा होता नजर आ रहा है। 

उत्तर प्रदेश की जाट राजनीति। 

राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी 13 जून को पटना में हुई विपक्षी पार्टियों की बैठक में शामिल नहीं हुए थे। उनकी पार्टी की ओर से कहा गया था कि वे देश से बाहर होने की वजह से बैठक में नहीं गए। लेकिन इस बीच यह खबर आ रही है कि भारतीय जनता पार्टी उनको अपने गठबंधन में लेना चाहती है। अब देखना यह है कि क्या वे 13 और 14 जुलाई को बेंगलुरू में होने वाली विपक्षी पार्टियों की बैठक में भी शामिल होते हैं या नहीं। असल में जयंत चौधरी के सामने कई समस्याएं हैं। पहली समस्या तो यह है कि लगातार दो लोकसभा चुनावों, 2014 और 2019 में उनकी पार्टी राज्य में एक भी सीट नहीं जीत पाई। दूसरी समस्या यह है कि चुनाव आयोग ने राष्ट्रीय लोकदल का राज्य स्तरीय पार्टी का दर्जा समाप्त कर दिया है इसलिए उनके पास हैंडपंप चुनाव चिन्ह नहीं है। उनकी पार्टी पिछले विधानसभा चुनाव में आठ सीटों पर जीती लेकिन पार्टी का अस्तित्व बचाए रखने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। उनकी पार्टी का आकलन है कि मौजूदा समीकरण में पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाजपा से लड़ना मुश्किल है। अतः क्यों न मौके की नजाकत को देखते हुए भाजपा के साथ ही जाय जाये ?

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें