भारतीय मंदिरों का इतिहास - स्वरुप और वास्तुकला
पूजा के लिए मंदिरों और पवित्र स्थानों का उल्लेख पुरातन वैदिक ग्रंथों में पाया जा सकता है। प्राचीन काल में भारतीय मंदिर लकड़ी या अन्य नाशवान सामग्रियों से बने साधारण ढाँचे भर हुआ करते थे, जिनका अस्तित्व ढूंढना अब संभव ही नहीं। समय के साथ सामाजिक - सांस्कृतिक और तकनीकी प्रगति ने मंदिरों के स्वरुप में भी परिवर्तन ला दिया और पत्थर की अधिक स्थाई संरचना प्रारम्भ हुई। यह अलग बात है कि इसमें समय शताब्दियों का लगा।
चौथी से छठवीं सदी (सी ई)के गुप्त काल में पत्थर के मंदिर निर्माण को प्राथमिकता मिली और बाद के चोल, पल्लव, राष्ट्रकूट, होयसल तथा विजयनगर जैसे अन्य राजवंशों के काल में मंदिर वास्तुकला का शनेः शनेः विकास होता गया। क्षेत्रीय और और स्थानीय शैलियों को सम्मिलित करते हुए, समय के साथ भारतीय मंदिरों की डिजाईन और वास्तुकला विकसित हुई। शिल्प शास्त्र और वास्तु शास्त्र जैसे ग्रन्थ लिखे गए जो मंदिर निर्माण के दिशा निर्देश प्रदान करते हैं, साथ ही अनुपात, माप और आध्यात्मिक प्रतीकवाद पर जोर देते हैं।
भारतीय मंदिरों ने न केवल पूजा स्थलों के रूप में, अपितु सामुदायिक समारोहों, सांस्कृतिक गतिविधियों और शिक्षा के केंद्रों के रूप में भी भूमिका निभाई। वे महत्वपूर्ण स्थल कलाकारों, मूर्तिकारों और शिल्पकारों के संरक्षण दाता भी बनते गए, जिन्होंने पत्थर की उत्कृष्ट नक्काशी और जटिल मूर्तियों के निर्माण में योगदान दिया। हालांकि भारतीय मंदिरों का प्राथमिक उद्देश्य देवताओं को सम्मान देना है, किन्तु वे धार्मिक परम्पराओं और अनुष्ठानों को बढ़ावा देने, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में भी कार्य करते हैं। इस प्रकार मंदिर भारत के सांस्कतिक, धार्मिक और सामजिक ताने बाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। वे जीवन के सभी क्षेत्रों से भक्तों और पर्यटकों अपनी ओर आकर्षित करते हैं। हजारों वर्षों में विकसित हुई भारतीय मंदिर वास्तुकला में पाई जाने वाली कुछ सामान्य विशेषताएं और रूप इस प्रकार हैं -
1 नागर शैली - यह शैली उत्तर भारत में प्रचलित है और इसकी विशेषता एक लंबा घुमावदार टॉवर है, जिसे शिखर कहा जाता है। शिखर क्षैतिज स्तरों की एक श्रंखला में ऊपर उठता है। जैसे जैसे ऊपर उठता है इसका आकार क्रमशः कम होता जाता है। गर्भगृह जहाँ देवता का आवास होता है, आम तौर पर आकार में आयताकार या वर्गाकार होता है।
2 द्रविड़ शैली - यह शैली प्रमुख रूप से दक्षिण भारत में पाई जाती है। जटिल नक्काशीदार मीनारें, इसकी विशेषता हैं, जिन्हें गोपुरम कहा जाता है। गोपुरम अक्सर अत्याधिक सजाये जाते हैं तथा इसमें विभिन्न पौराणिक कहानियों को दर्शाती मूर्तियां होती हैं। गर्भगृह आमतौर पर संकेंद्रित परिक्षेत्रों की एक श्रंखला से घिरा होता है, जिसे प्रकारम कहा जाता है।
3 वेसर शैली - यह शैली एक प्रकार से नागर तथा द्रविड़ दोनों शैली का संयुक्त रूप होती है और आमतौर पर मध्य तथा पश्चिमी भागों में पाई जाती है। वेसर शैली वास्तुकला की विशेषताओं का एक संयोजन प्रदर्शित करती है, जैसे कि एक पिरामिड गुम्बद के साथ, एक शिखर या घुमावदार संरचना के साथ एक वर्गाकार आधार।
4 मंदिर परिसर - भारतीय मंदिर अक्सर एक बड़े परिसर का हिस्सा होते हैं, जिसमें विभिन्न संरचनाएं और तत्व शामिल होते हैं। इन परिसरों में विभिन्न देवताओं को समर्पित कई मंदिर शामिल हो सकते हैं, साथ ही धार्मिक अनुष्ठानों के लिए खम्बे वाले गलियारे, टैंक या सीढ़ीदार कुए, और अन्य सहायक भवन शामिल हो सकते हैं।
5 मूर्तिकला - भारतीय मंदिरों को उनकी जटिल और पत्थर की उत्कृष्ट नक्काशी के लिए जाना जाता है। मूर्तियां - दीवारों, स्तम्भों, और मंदिरों के प्रवेश द्वारों को सुशोभित करती हैं। इनमें देवी देवताओं, दिव्य प्राणियों, पौराणिक दृश्यों और रोजमर्रा की जिंदगी को दर्शाया जाता है। ये नक्काशियां सांस्कृतिक और धार्मिक कहानियों को सम्प्रेषित करते हुए, सजावट और कथा दोनों उद्देश्यों की पूर्ति करती हैं।
6 वास्तुशास्त्र - भारतीय मंदिरों की बनावट वास्तुशास्त्र आधारित होती है, जो इमारतों के ले आउट, डिजाईन और अभिविन्यास के लिए दिशा निर्देश निर्धारित करता है। यह ब्रह्मांडीय शक्तियों के साथ सामंजस्य, सानुपात और संरेखण के सिद्धांतों पर जोर देता है।
भारतीय मंदिर आमतौर पर एक विशिष्ट संरचना, ले आउट और व्यवस्था का पालन करते हैं। जबकि क्षेत्रीय और स्थानीय आधार पर कुछ भिन्नता हो सकती है। यहाँ भारतीय मंदिरों की संरचना का सामान्य विवरण दिया गया है -
1 मुख्य प्रवेश द्वार - भारतीय मंदिरों में एक मुख्य प्रवेश द्वार होता है, जिसे सजावटी तत्वों और मूर्तियों से सजाया जाता है। इस प्रवेश द्वार को दक्षिण भारत में गोपुरम और उत्तर भारत में तोरण के नाम से जाना जाता है। यह भव्य प्रवेश द्वार धर्म निरपेक्ष दुनिया से आध्यात्मिक पवित्र स्थान में परिवर्तन को रेखांकित करता है।
2 मंडप - मंदिर परिसर में प्रवेश करने पर, प्रायः एक स्तम्भों वाला हॉल होता है, जिसे मंडप कहा जाता है। यह स्थान भक्तों के लिए एक सभा स्थल, धार्मिक अनुष्ठानों के लिए एक स्थान, और कभी कभी सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए एक सभा गृह के रूप में उपयोग होता है। मंडप में जटिल नक्काशीदार खम्बे और छतें होती हैं।
3 प्रदक्षिणा पथ - भक्त श्रद्धा के साथ आतंरिक गर्भ गृह के चारों ओर जिस पथ पर दक्षिणावर्त चलते हैं, उसे प्रदक्षिणा पथ कहा जाता है। प्रदक्षिणा पथ एक खुला मार्ग भी हो सकता है, तो खम्बों वाला बंद गलियारा भी।
4 गर्भगृह - गर्भगृह मंदिर का वह अंतरतम स्थल है, जहाँ मुख्य देवता या देवताओं को विराजित किया जाता है। इसे मंदिर का सबसे पवित्र स्थल माना जाता है। गर्भाग्रिक अक्सर एक छोटा, कम रोशनी वाला कक्ष होता है, और कभी कभी ऊंचा या मंदिर के केंद्र में स्थित होता है। देवता को आसान या वेदिका पर विराजमान किया जाता है।
5 शिखर या विमान - गर्भ गृह के ऊपर की विशाल अधिरचना को दक्षिण भारत में विमान तथा उत्तर भारत में शिखर कहा जाता है। यह अक्सर अकार में घुमावदार पिरामिड नुमा होता है, जो देवताओ के आकाशीय निवास का प्रतिनिधित्व करता है। शिखर या विमान को भी जटिल मूर्तिकला व सजावटी रूपांकनों से सजाया जाता है।
6 बाहरी दीवारें - मंदिर परिसर जिन बाहरी दीवारों से घिरा होता है, उन्हें सजावटी मूर्तियों, नक्काशियों या पौराणिक आख्यानों को दर्शाते चित्रों से सजाया, संवारा जाता है।
7 अतिरिक्त संरचनाएं - बड़े मंदिर परिसरों में उनके परिसर में अतिरिक्त संरचनाऐं हो सकती हैं। इनमें अन्य देवताओं को समर्पित छोटे मंदिर, सामुदायिक सभाओं और समारोहों के लिए हॉल, अनुष्ठान स्नान के लिए टैंक या सीढ़ीदार कुए और प्रशासनिक भवन शामिल हो सकते हैं।
ये प्रत्येक शैली की सामान्य विशेषताएं हैं, जिनमें क्षेत्रीय या स्थानीय आधार पर आंशिक परिवर्तन संभव है। वस्तुतः भारतीय मंदिर वास्तुकला एक विशाल और जटिल विषय है, जो देश के विविध धार्मिक और सांस्कृतिक तानेबाने को दर्शाता है।
लेखक -
डॉ. अमित कुमार
सहायक आचार्य,
पर्यटन एवं होटल प्रबंधन विभाग,
हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय,
महेंद्रगढ़, हरियाणा

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