इमरजेंसी: एक काला अध्याय जिसे उजागर करने से सेंसर बोर्ड भी कतरा रहा है? - दिवाकर शर्मा
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आपातकाल भारतीय इतिहास का वह काला अध्याय है जिसे आज भी लोग भुला नहीं पाए हैं। 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए इस आपातकाल ने भारतीय लोकतंत्र की नींव को झकझोर कर रख दिया था। संवैधानिक अधिकारों का हनन, राजनीतिक विरोधियों की गिरफ्तारी, मीडिया पर सेंसरशिप, और जनता की आवाज़ को दबाने के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग उस समय के कुछ कड़वे सच हैं।
इस अंधकारमय काल को बॉलीवुड की चर्चित अभिनेत्री और फिल्म निर्देशक कंगना राणावत ने अपनी आगामी फिल्म "इमरजेंसी" के माध्यम से पुनः जीवंत करने की कोशिश की है। लेकिन हाल ही में आई खबरों के अनुसार, सेंसर बोर्ड इस फिल्म को प्रमाण पत्र जारी करने में संकोच कर रहा है, और इसका कारण है फिल्म में दर्शाए गए निर्मम दृश्य, जो उस दौर के अमानवीय अत्याचारों को बिना किसी परदे के दर्शाते हैं।
आपातकाल के दौरान हुई निर्ममता
इमरजेंसी के दौरान सरकार द्वारा किए गए दमनकारी कृत्यों में से कुछ प्रमुख घटनाएं आज भी भारतीय समाज में गहरे घाव छोड़ गई हैं:
1.संविधान का उल्लंघन:
आपातकाल के दौरान संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) को निलंबित कर दिया गया था, और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का दमन किया गया।
2. मीडिया पर सेंसरशिप:
प्रेस की स्वतंत्रता को खत्म कर दिया गया। अखबारों पर सेंसरशिप लगा दी गई, और जो भी सरकारी निर्णयों के खिलाफ लिखता, उसे या तो जेल भेज दिया जाता या उनका प्रकाशन बंद कर दिया जाता।
3. जबर्दस्ती नसबंदी अभियान:
तत्कालीन सरकार द्वारा चलाए गए जबर्दस्ती नसबंदी कार्यक्रम ने हजारों गरीब और असहाय लोगों को प्रभावित किया। इस कार्यक्रम का विरोध करने वालों को जेल भेज दिया गया, और लोगों की बिना सहमति के उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया।
4. विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारी:
इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा के तुरंत बाद विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया। इनमें जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी जैसे प्रमुख नेता शामिल थे, जिन्होंने खुलकर आपातकाल का विरोध किया।
सेंसर बोर्ड की चुनौतियाँ
कंगना राणावत की फिल्म "इमरजेंसी" उस दौर के कड़वे सच को उजागर करती है, जो शायद भारतीय समाज और आने वाली पीढ़ियों के लिए आंखें खोलने का काम करेगा। लेकिन सेंसर बोर्ड इस फिल्म को प्रमाण पत्र जारी करने से कतरा रहा है। यह सवाल उठता है कि आखिर सेंसर बोर्ड को किस बात का डर है? क्या वह उन निर्ममता से भरे दृश्यों को सार्वजनिक करने से डर रहा है जो उस समय की सरकारी क्रूरता को दर्शाते हैं?
फिल्म में दिखाई गई घटनाओं का बिना किसी फ़िल्टर के प्रदर्शन शायद कुछ वर्गों के लिए असहनीय हो सकता है। कंगना ने इस फिल्म में जबर्दस्ती नसबंदी, प्रेस पर नियंत्रण, और पुलिस तथा प्रशासन द्वारा की गई हिंसा को बहुत ही वास्तविक से फिल्माया है। यह स्पष्ट है कि सेंसर बोर्ड ऐसी फिल्मों में दर्शाए गए असली सच को सामने लाने से डरता है, क्योंकि यह कुछ पुराने घावों को फिर से ताज़ा कर सकता है।
राष्ट्रीय चेतना के लिए जरूरी
"इमरजेंसी" सिर्फ एक फिल्म नहीं है, बल्कि यह उस समय की याद दिलाने वाला एक ज़रूरी ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी है। लोकतंत्र के नाम पर किए गए अत्याचारों को उजागर करना जरूरी है ताकि आने वाली पीढ़ियां जान सकें कि स्वतंत्रता का सही मूल्य क्या है और उसे बनाए रखने के लिए किन संघर्षों से गुज़रना पड़ा है।
इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा लगाए गए आपातकाल के प्रति आज भी भारतीय जनता में गहरी नाराजगी है, और ऐसे में इस फिल्म का रिलीज होना उस नाराजगी को फिर से जगाने का काम कर सकता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सेंसरशिप के माध्यम से उस सच्चाई को दबाया जाए।
आपातकाल भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का वह अध्याय है जिसे हम अनदेखा नहीं कर सकते। कंगना राणावत की फिल्म "इमरजेंसी" इसी दौर के स्याह पहलुओं को सामने लाने का एक महत्वपूर्ण प्रयास है। सेंसर बोर्ड को यह समझना चाहिए कि इतिहास को छिपाने या ढकने से उसका प्रभाव कम नहीं होता। इसके विपरीत, सच्चाई को उजागर करने से लोग ज्यादा सतर्क और जागरूक होते हैं, और यही किसी भी लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है।
यह फिल्म केवल एक मनोरंजन नहीं है, बल्कि इतिहास से सबक लेने का एक मौका है, जिसे हर भारतीय को जानने का हक है। सेंसरशिप के नाम पर सच्चाई को दबाने से सिर्फ़ समाज में अज्ञानता बढ़ती है, जो कि लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
दिवाकर शर्मा
संपादक क्रांतिदूत डॉट इन
मोबाईल - +917999769392
ईमेल - krantidooot@gmail.com
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लेख
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