हिंदी दिवस विशेष - ज्ञानपीठ पुरष्कार का इतिहास बनाम बामपंथी फूहड़ साहित्य - दिवाकर शर्मा

 

साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित "आज का भारतीय साहित्य" नामक पुस्तक की प्रस्तावना भारत के पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन ने लिखी थी। उन के अनुसार साहित्य में भूतकाल की गूँज, वर्त्तमान का प्रतिबिम्ब और भविष्य के निर्माण की शक्ति होती है। साहित्य एक पावन माध्यम है, और उसके सत्प्रयोग से हम अज्ञान और पक्षांधता की तामसिक शक्तियों से संघर्ष कर सकते हैं, और राष्ट्रीय एकात्मता व विश्व बंधुत्व स्थापित कर सकते हैं।


यह तो हुई आदर्श की बात, किन्तु सवाल उठता है कि आधुनिक भारतीय साहित्य इस कसौटी पर कितना खरा उतर रहा है। स्वतंत्रता के बाद काफी कुछ अच्छा लिखा गया, किन्तु बहुत कुछ कचरा मान्यता प्राप्त कर पुरष्कृत हुआ। खासकर कविता के क्षेत्र में तो विशेष रूप से। जो समझ में न आये, जिसका अर्थ लिखने वाला भी न बता पाए, वही सच्चा और महान साहित्य। कुछ ऐसी मान्यता बन गई और ऐसे कविगण पुरष्कृत भी खूब हुए। ऐसे ही एक तथाकथित प्रगतिशील किंवा बामपंथी कवि महोदय की बानगी देखिये -

शाहनवाज खां,
तुम अपनी अंटी से तूतन खामन की
अशर्फी निकालना,
उधर हाट के सबसे आख़िरी छोर पर,
नीम के नीचे
टाट पर,
कई साल से अपनी झुर्रियों समेत बैठी,
करीमन किरानथी होगी,
तुम उससे अशर्फी के बदले लहसुन मांगना,
यह शर्त रही कि वह नहीं देगी।


2014 में केंद्र में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद जिन साहित्यकारों ने अवार्ड वापसी की मुहीम चलाई, उक्त कविता के रचनाकार श्री उदय प्रकाश भी उनमें से एक थे। अब डॉ. राधाकृष्णन जी जिस आदर्श साहित्य की बात कर रहे हैं, विश्व बंधुत्व और राष्ट्रीय एकात्मता वाला साहित्य, पक्षांधता से मुक्त साहित्य, किस कसौटी पर खरे उतरते हैं ऐसे पुरष्कार पाने और वापस करने की नौटंकी करने वाले साहित्यकार?


खैर यह तो हुई हलकी फुल्की बातें। कालजई साहित्य मान्यता के लिए किसी पुरष्कार का मोहताज नहीं होता। उसे तो समाज की सहज मान्यता स्वतः मिलती है। हम बचपन से सुनते आ रहे हैं -


सूर सूर तुलसी शशि, उडगन केशवदास,
अब के कवि खद्योत सम, जहँ तहँ करत प्रकाश।


सूरदास, तुलसीदास, केशवदास को आज भी समाज मान्यता है, उन्हें कभी किसी पुरष्कार की अभिलाषा भी नहीं रही । यही है कालजई साहित्य, जिसमें डॉ. राधाकृष्णन जी की साहित्य परिभाषा स्पष्ट परिलक्षित होती है। भूतकाल की गूँज, वर्त्तमान का प्रतिबिम्ब और भविष्य के निर्माण की शक्ति वाला साहित्य। मेरा आशय नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र, दुष्यंत कुमार जैसे प्रगतिशील कवियों की आलोचना करना नहीं है, लेकिन सत्ता के सहयोग से बहुत कुछ गड़बड़झाला भी हुआ है, कई नाचीज भी चीज बन गए, केवल इसको रेखांकित करने का उद्देश्य भर है। सत्ताधीशों से नजदीकी के चलते अकारण मान्यता प्राप्त कर गए साहित्यकारों की बात जाने दें, तो लोकप्रियता की पायदान चढ़ गए खुशवंत सिंह जी जैसे अनेक साहित्यकार ऐसे भी हैं, जिन्हें पढ़कर केवल फ्रायड याद आते हैं।


डॉ नगेंद्र लिखित भारतीय साहित्य कोष में सैकड़ों साहित्यकारों का उल्लेख है, आखिर विश्वगुरू रहे भारत में प्रतिभा की कमी तो है नहीं। लेकिन साहित्यकारों की चर्चा के पूर्व आईये सर्वाधिक प्रतिष्ठित भारतीय ज्ञानपीठ पुरष्कार के इतिहास पर एक नजर डालें। टाईम्स ऑफ़ इंडिया समूह के अध्यक्ष रहे स्व. रामकृष्ण डालमिया की पुत्री तथा प्रसिद्ध उद्योगपति साहू शांतिप्रकाश जैन की पत्नी श्रीमती रामरानी जैन के आग्रह पर उनके आवास पर 22 नवम्बर 1961 को एक विचार गोष्ठी का आयोजन हुआ, जिसमें सर्व श्री काका कालेलकर, हरिवंशराय बच्चन, रामधारी सिंह दिनकर, जैनेन्द्र कुमार, जगदीश चंद्र माथुर, प्रभाकर माचवे, और श्री अक्षय कुमार जैन ने भाग लिया। विचार विमर्श में यह तय हुआ कि सभी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित पुस्तकों में से हर वर्ष एक सर्वश्रेष्ठ पुस्तक चुनी जाए व उसके लेखक को सम्मानित करते हुए एक बड़ी राशि प्रदान की जाए। यह भी तय हुआ कि एक लेखक को केवल एक ही बार सम्मानित किया जाए।


यह कार्य योजना दो दिन बाद 24 नवम्बर 1961 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के सम्मुख प्रस्तुत की गई। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने योजना की सराहना की और हर संभव सहयोग का आश्वासन दिया। इसके बाद शुरू हुआ सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों से विचार बिमर्श। योजना की लगभग साढ़े चार हजार प्रतियां देश भर के साहित्यकारों को भेजी गईं। योजना के क्रियान्वयन के लिए एक प्रवर समिति का गठन हुआ, जिसकी अध्यक्षता का प्रस्ताव डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने स्वीकार भी कर लिया। किन्तु उनके आकस्मिक निधन के परिणाम स्वरुप उसके प्रथम अध्यक्ष बने डॉ. सम्पूर्णानद और 1965 में प्रथम पुरष्कार समर्पित किया गया। 29 दिसंबर 1965 को हुई प्रवर समिति की बैठक में आते आते केवल चार प्रतियां रह गई थीं - कवि काजी नजरुल इस्लाम की अग्नि वीणा, उपन्यासकार विश्वनाथ सत्यनारायण की "वेईपादगुलू", कन्नड़ कवि डी वी गुंडप्पा की "मन्कुटीमकग्गा" और मलयाली कवि जी. शंकर कुरूप की "ओड़क्कुपल"। परिषद के सदस्यों ने सर्व सम्मति से मलयाली कवि जी. शंकर कुरूप की "ओड़क्कुपल" को भारत के प्रथम ज्ञानपीठ पुरष्कार के योग्य पाया।


इसके उपरांत 1966 का ज्ञानपीठ पुरष्कार बंगला उपन्यासकार तारा शंकर बन्द्योपाध्याय की कृति "गण देवता" को, 1967 का पुरष्कार कन्नड़ कवि कुप्पाली वेंकटप्प पुट्टप्प की "श्री रामायण दर्शनम" को और गुजराती कवि उमाशंकर जोशी की "निशीथ" को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया। किसी हिंदी साहित्यकार को पहली बार 1968 में यह सम्मान प्राप्त हुआ जब श्री सुमित्रा नंदन पंत जी की अमर कृति "चिदंबरा" का इस हेतु चयन हुआ। इसी प्रकार जिन उर्दू लेखक को प्रथमतः 1969 में पुरष्कृत किया गया, वह थे श्री रघुपति सहाय "फिराक" उपाख्य फिराक गोरखपुरी। उनकी गुल ए नग्मा को ज्ञानपीठ पुरष्कार हेतु चुना गया।


अंत में चलते चलते पंत जी की चिदंबरा का एक अंश -


चींटी को देखा
वह सतत विरल काली रेखा
तम के तागे सी जो हिलडुल
चलती लघुपद पल पल मिलजुल
वह है पिपीलिका पाँति
देखो ना किस भांति
काम करती वह सतत
कन कन कनके चुनती अविरत ! 

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