भारतीय ऐतिहासिक विरासत की पुनर्स्थापना और इतिहास पुरुष ठाकुर रामसिंह - डॉ. अमरीक सिंह ठाकुर
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टिप्पणियाँ
डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आधुनिक भारत को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अक्सर गलत समझा और गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कई सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय आंदोलनों में सबसे आगे रहा है। आजादी के संघर्ष से लेकर विभाजन के बाद और उससे आगे भारत के पुनर्निर्माण तक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा एक मजबूत, एकजुट और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध भारत के दृष्टिकोण से प्रेरित रहा है. इसकी कहानी के केंद्र में वे गुमनाम नायक हैं जिन्होंने संगठन के आदर्शों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। ऐसी ही एक बड़ी शख्सियत हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रचारक ठाकुर राम सिंह, जिनका संगठन के विकास और वैचारिक स्पष्टता में योगदान स्मरणीय हैI राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म उस समय हुआ था जब भारत ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहा था। जबकि प्राथमिक ध्यान भारत की राजनीतिक मुक्ति पर था, डॉ. हेडगेवार ने सामाजिक और सांस्कृतिक उत्थान की आवश्यकता को समझा, जिससे भारतीयों में एकता और राष्ट्रीय गौरव की भावना को बढ़ावा मिला। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अनुशासन, आत्मनिर्भरता और देशभक्ति के मूल्यों के आधार पर एक खंडित समाज का पुनर्निर्माण करने की मांग की। यह आधुनिक दुनिया के लिए तैयार करते हुए राष्ट्र को उसके प्राचीन मूल्यों और परंपराओं के प्रति फिर से जागृत करने के बारे में था।
दूसरे सरसंघचालक श्री गुरुजी गोलवलकर के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने तेजी से अपनी पहुंच और प्रभाव का विस्तार किया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कैडर 1947 के विभाजन दंगों के दौरान व्यवस्था बनाए रखने और राहत प्रदान करने में सहायक थे, जो समाज सेवा और राष्ट्रीय एकता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का प्रदर्शन करते थे। 1948 में संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, लेकिन 1949 में प्रतिबंध हटाए जाने के बाद यह मजबूत होकर उभरा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने तब से शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, आपदा राहत और ग्रामीण विकास को शामिल करने के लिए अपनी गतिविधियों का विस्तार किया है, लगातार आत्मनिर्भर भारत के निर्माण की दिशा में काम कर रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सबसे महत्वपूर्ण योगदानों में से एक स्वयंसेवा की भावना को बढ़ावा देना रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने स्वयंसेवकों या स्वयंसेवकों के बल पर काम करता है, जो किसी भी व्यक्तिगत लाभ की उम्मीद किए बिना अपना समय और ऊर्जा सामाजिक कारणों के लिए समर्पित करते हैं। निस्वार्थ सेवा की यह भावना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहचान रही है और इसके प्रचारकों के जीवन में स्पष्ट है – प्रचारक कार्यकर्ता जो अपना पूरा जीवन इस उद्देश्य के लिए समर्पित करते हैं।
"ऐसा कहा जाता है कि शस्त्र या विष से तो एक-दो लोगों की ही हत्या की जा सकती है; पर यदि किसी देश के इतिहास को बिगाड़ दिया जाए, तो लगातार कई पीढ़ियाँ नष्ट हो जाती हैं।" इस बात में कोई संदेह नहीं कि हमारे इतिहास के साथ दुर्भाग्य से ऐसा ही हुआ है। विभिन्न विचारधाराओं और विदेशी षड्यंत्रों ने भारतीय इतिहास को अपने अनुसार गढ़ने का प्रयास किया, जिसके परिणामस्वरूप हमारे देश के गौरवशाली अतीत की तस्वीर धूमिल हो गई। ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने इस भूल को सुधारने का बीड़ा उठाया, और इस प्रयास में ठाकुर रामसिंह का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाना चाहिए। ठाकुर रामसिंह जी का जन्म 16 फरवरी, 1915 को हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिले के एक छोटे से गाँव झंडवी में हुआ था। उनके पिता श्री भाग सिंह और माता श्रीमती नियातु देवी की छत्रछाया में उनका पालन-पोषण हुआ। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि और खेलकूद में निपुण रहे ठाकुर जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा के बाद लाहौर के सनातन धर्म कॉलेज से बी.ए. और क्रिश्चियन कॉलेज से इतिहास में स्वर्ण पदक के साथ एम.ए. किया। वह हॉकी के भी अत्यंत अच्छे खिलाड़ी थे और उन्हें खेल के मैदान में भी एक बेहतरीन नेतृत्वकर्ता के रूप में पहचाना जाता था। शिक्षा के दौरान ही ठाकुर जी का संपर्क बलराज मधोक के साथ हुआ, जिन्होंने उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाने के लिए प्रेरित किया। यह संघ से उनका पहला परिचय था, जिसने उनकी जीवन दिशा ही बदल दी। लाहौर के क्रिश्चियन कॉलेज के प्राचार्य ने उन्हें उच्च वेतन पर प्राध्यापक बनने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया और संघ के कार्य में जुट गए। ठाकुर राम सिंह ने अपने जीवन के शुरुआती दिनों में नेतृत्व और समर्पण के संकेत दिए। हालांकि, एक पारंपरिक कैरियर का पीछा करने के बजाय, उन्होंने आरएसएस प्रचारक के रूप में अपना जीवन राष्ट्र को समर्पित करने का फैसला किया। यह निर्णय भारतीय इतिहास के सबसे अशांत अवधियों में से एक के दौरान किया गया था।
1942 में खंडवा (मध्य प्रदेश) में संघ शिक्षा वर्ग का प्रथम वर्ष पूरा करने के बाद ठाकुर रामसिंह जी ने पूर्णकालिक प्रचारक बनने का निर्णय लिया। लाहौर से उस साल 58 युवक प्रचारक बने थे, जिनमें से 10 युवक ठाकुर जी के प्रयासों का प्रतिफल थे। कांगड़ा जिले के बाद वह अमृतसर के विभाग प्रचारक बने, जहाँ विभाजन के समय उन्होंने हिन्दुओं की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। मुसलमानों के हमलों के विरुद्ध उन्होंने हिन्दू समुदाय को संगठित किया और सुरक्षा प्रदान की। 1947 के विभाजन के समय, पंजाब और विशेष रूप से अमृतसर में स्थिति अत्यंत तनावपूर्ण थी। ठाकुर जी ने अपने संगठनात्मक कौशल का अद्वितीय परिचय दिया। उनके नेतृत्व में 5,000 स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया। 1948 में जब संघ पर प्रतिबंध लगाया गया, तब भी ठाकुर रामसिंह जी ने नेतृत्व की कमी नहीं होने दी और हजारों कार्यकर्ताओं को सत्याग्रह के लिए प्रेरित किया।
1949 में, संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी गोलवलकर ने ठाकुर रामसिंह जी को पूर्वोत्तर भारत भेजा। यह वह समय था जब पूर्वोत्तर भारत में संघ का कार्य प्रारंभिक अवस्था में था और चुनौतियाँ अनगिनत थीं। यहाँ उन्होंने अत्यंत कठिन परिस्थितियों में संघ कार्य की नींव डाली। 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया, तब असम में भय का वातावरण था। ऐसे में ठाकुर रामसिंह जी ने स्वयंसेवकों को स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर जनता का मनोबल बनाए रखने और अफवाहों को शांत करने का निर्देश दिया। उनके नेतृत्व में संघ के कार्यकर्ताओं ने न केवल जनमानस को संभाला, बल्कि समाज में राष्ट्रभक्ति की भावना का संचार भी किया। उन्होंने चीनी आक्रामकता के खिलाफ जनता को लामबंद किया। श्री एकनाथ रानाडे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी, ठाकुर राम सिंह ने भारत की रक्षा को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कि विपरीत परिस्थितियों में प्रतिरोध की भावना मजबूत बनी रहे।
1971 में उन्हें पंजाब का सह-प्रांत प्रचारक नियुक्त किया गया। इस उन्होंने संघ के विभिन्न उच्च दायित्वों पर कार्य किया, जिनमें 1974 में प्रांत प्रचारक, 1978 में सह-क्षेत्र प्रचारक, और बाद में क्षेत्र प्रचारक का दायित्व शामिल है। ठाकुर जी की नेतृत्व क्षमता इतनी अद्वितीय थी कि उनके मार्गदर्शन में लगभग 100 युवकों ने प्रचारक बनने का संकल्प लिया, जिनमें से कई आज भी संघ के विभिन्न कार्यों में सक्रिय हैं। आपातकाल के दौरान उनका केन्द्र दिल्ली था, जहाँ उन्होंने भूमिगत रहते हुए आपातकाल के आंदोलन का नेतृत्व किया और जेल गए स्वयंसेवकों के परिवारों की भी देखभाल की। 1984 में, ठाकुर रामसिंह जी ने 'अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना' के कार्य में योगदान देना प्रारंभ किया। 1991 में वह इसके अध्यक्ष बने। उनका उद्देश्य भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन के द्वारा देश के गौरवशाली अतीत को पुनर्स्थापित करना था। उनके नेतृत्व में 'अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना' ने कई ऐसे ऐतिहासिक तथ्यों पर शोध कार्य किए, जिन्होंने भारतीय इतिहास की मूल धारा को पुनर्स्थापित किया। उनके प्रयास से सरस्वती नदी के अस्तित्व, आर्य आक्रमण के सिद्धांत, और सिकंदर की विजय जैसी धारणाओं पर गहन शोध हुआ, जिसके परिणामस्वरूप विदेशी और वामपंथी इतिहासकारों के द्वारा प्रचलित कई मिथक झूठे सिद्ध हुए। ठाकुर रामसिंह जी का यह योगदान आने वाली पीढ़ियों के लिए एक महान धरोहर के रूप में रहेगा। अखिल भारतीय एतिहास संकलन योजना का उद्देश्य राजनीतिक उद्देश्यों के लिए कम्युनिस्ट इतिहासकारों द्वारा विकृत किए गए ऐतिहासिक आख्यानों को सही करना था। एतिहास संकलन योजना का मिशन बिना किसी वैचारिक पूर्वाग्रह या एजेंडे के भारतीय इतिहास को उसके वास्तविक अर्थों में प्रस्तुत करना था। ठाकुर राम सिंह ने एक राष्ट्र की पहचान को आकार देने में इतिहास की शक्ति को समझा। उनका मानना था कि वीरता, बलिदान और बौद्धिक उपलब्धि की कहानियों से समृद्ध भारत का सच्चा इतिहास भविष्य की पीढ़ियों को बताया जाना चाहिए। उन्होंने एतिहास संकलन योजना के दृष्टिकोण और मिशन के आसपास इतिहासकारों और विद्वानों को एकजुट करते हुए, कश्मीर से कन्याकुमारी और सौराष्ट्र से कामरूप तक एक राष्ट्रव्यापी यात्रा शुरू की। उनके नेतृत्व में, योजना ने पूरे भारत में नए अध्याय स्थापित किए और भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत के दस्तावेजीकरण और संरक्षण के लिए व्यापक शोध परियोजनाएं शुरू कीं।
2006 में, ठाकुर रामसिंह जी ने हमीरपुर जिले के नेरी गाँव में ‘ठाकुर जगदेवचंद स्मृति इतिहास शोध संस्थान’ की स्थापना की। इस संस्थान का उद्देश्य भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन के कार्य को आगे बढ़ाना था। यहाँ उन्होंने भारतीय इतिहास के अनेक महत्वपूर्ण पहलुओं पर शोध कार्य का निर्देशन किया और नए इतिहासकारों को प्रेरणा दी। उनकी उम्र 94 वर्ष होने के बावजूद भी उन्होंने कभी अपने कार्य के आड़े नहीं आने दिया। ठाकुर रामसिंह जी का जीवन साधना और तपस्या से भरा हुआ था। 6 सितंबर, 2010 को लुधियाना में उनका निधन हुआ। उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार उनका दाह संस्कार उनके पैतृक गांव झंडवी में ही किया गया। ठाकुर रामसिंह जी ने अपने जीवन में जिस प्रकार से राष्ट्र के प्रति समर्पण, निष्ठा, और सेवा भाव का परिचय दिया, वह हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत है। उन्होंने संघ के प्रचारक के रूप में देश के प्रत्येक कोने में जाकर भारतीय संस्कृति, सभ्यता, और इतिहास की रक्षा और उसके पुनरुत्थान का कार्य किया। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि यदि व्यक्ति में समर्पण और दृढ़ संकल्प हो, तो वह अकेला भी समाज और राष्ट्र में परिवर्तन ला सकता है। उनका समर्पण, साहस, और नेतृत्व हमें यह सिखाता है कि राष्ट्र सेवा और संस्कृति की रक्षा के लिए किए गए प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाते। उन्होंने अपनी संपूर्ण जीवन यात्रा में देश के इतिहास को पुनर्स्थापित करने का जो प्रयास किया, वह हम सभी के लिए एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाता है। ठाकुर रामसिंह जी की पुण्य तिथि पर हम सब उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए यह संकल्प लें कि हम भी अपने राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए उनके दिखाए मार्ग पर चलें।
ठाकुर रामसिंह जी को शत-शत नमन!
डॉ. अमरीक सिंह ठाकुर
सहायक प्रोफेसर
हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय।
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लेख
बहुत सुंदर, विस्तृत व सारगर्भित लेख, अमरीक जी को बहुत बहुत बधाई
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