शिवपुरी में हाल ही में हुए विवाद ने न केवल राजनीति को हिलाकर रख दिया है, बल्कि हिंदू समाज में सामाजिक सद्भाव को गहरी ठेस पहुँचाई है। एक राजनैतिक दल के नेता के परिवार और एक ऑटोमोबाइल डीलर के बीच हुआ एक साधारण व्यापारिक विवाद अब जातिवाद और पूंजीवाद के जाल में उलझ चुका है। यह विवाद तब और भड़क गया जब जिले के एक विधायक को गलत तरीके से इस मामले में घसीटा गया।
विधायक को जिस तरह से इस पूरे विवाद का मुख्य निशाना बनाया गया, वह न केवल राजनीति के बदलते स्वरूप को दर्शाता है, बल्कि यह भी इंगित करता है कि कैसे जातिवाद और पूंजीवाद का प्रभाव आज समाज के हर वर्ग को विभाजित करने पर तुला हुआ है।
विधायक की भूमिका केवल अपने मित्र और ऑटोमोबाइल डीलर को न्याय दिलाने तक सीमित थी, लेकिन उन्हें एक जातिगत विवाद में घसीटकर उनके खिलाफ नारे लगाए गए। यह सवाल उठता है कि क्या कहीं विधायक को केवल इसलिए तो निशाना नहीं बनाया गया क्योंकि उन्होंने विपक्षी दल के अपराजित मान लिए गए एक बड़े दिग्गज को सीट छोड़ने तथा दूसरी सीट से उन्हें हराने में महत्वपूर्ण योगदान दिया? क्या यह जातिवाद के माध्यम से उनके सामाजिक और राजनीतिक कद को कमजोर करने का प्रयास नहीं है?
जिलाध्यक्ष की भूमिका: सामाजिक और राजनीतिक दायित्व पर सवाल
इस पूरे विवाद में पार्टी जिलाध्यक्ष की निष्क्रियता ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। जब उनकी पार्टी के ही विधायक को उन्ही की पार्टी के एक जिला पदाधिकारी नें एक व्यावसायिक विवाद में गलत तरीके से घसीटाऔर उनके खिलाफ रैली में उन्हीं की पार्टी के अन्य पदाधिकारियों नें जातिवादी नारे लगाए गए, तब जिलाध्यक्ष की चुप्पी आश्चर्यजनक है।
एक दल के जिलाध्यक्ष से उम्मीद की जाती है कि वे ऐसे विवादों को रोकने के लिए अपने दल के नेताओं के बीच समन्वय बनाए रखें, लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं हुआ। यह सवाल उठता है कि क्या जिलाध्यक्ष ने जानबूझकर इस विवाद को बढ़ने दिया, या वे उन धनी और जातिवादी ताकतों के प्रभाव में आ गए जो इस विवाद को राजनीतिक हथकंडे के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे?
राजनीति का बदलता स्वरूप: पूंजीवाद और जातिवाद का बढ़ता असर
एक समय था जब राजनीति समाज सेवा और सिद्धांतों पर आधारित थी। लेकिन अब राजनीति में पूंजीवाद और जातिवाद का बढ़ता प्रभाव हर वर्ग को नुकसान पहुँचा रहा है। पार्टी नेता और उनके सहयोगियों ने इस विवाद को एक जातिवादी रंग देकर हिंदू समाज के भीतर एक विभाजन रेखा खींच दी है।
हिंदू समाज, जो सदियों से अपनी विविधता में एकता के लिए जाना जाता है, आज जातिवाद के कारण टूटता दिख रहा है। जातिवाद और पूंजीवाद के इस गंदे खेल ने समाज के भीतर सामाजिक सद्भाव को तोड़ा है। यह विभाजन केवल समाज के ताने-बाने को ही नुकसान नहीं पहुँचाता, बल्कि राजनीति को भी एक खतरनाक दिशा में ले जाता है, जहाँ सत्ता का खेल जातिगत भेदभाव और आर्थिक हितों के आधार पर खेला जाता है।
सामाजिक सद्भाव पर संकट
हिंदू समाज की सबसे बड़ी ताकत उसकी एकता रही है, लेकिन जब राजनीति में जातिवाद और पूंजीवाद का जहर घुल जाता है, तो वह समाज के इस सद्भाव को कमजोर कर देता है। शिवपुरी का यह विवाद केवल दो व्यापारियों के बीच का नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज के भीतर जातिवादी मानसिकता के बढ़ते प्रभाव को भी दर्शाता है।
इस पूरे प्रकरण में जिस तरह से एक समाज विशेष के नाम पर रैली आयोजित की गई और उसमें एक विधायक को अपमानित किया गया, वह न केवल राजनीति के गिरते स्तर को दर्शाता है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि हमारे समाज में सामाजिक विभाजन गहराता जा रहा है।
भविष्य का रास्ता
शिवपुरी का यह विवाद एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। यह केवल एक स्थानीय व्यापारिक मुद्दा नहीं रहा, बल्कि यह सामाजिक और राजनीतिक ध्रुवीकरण का प्रतीक बन गया है। अब सवाल यह है कि क्या हम राजनीति में सिद्धांतों और समाज के प्रति समर्पण को फिर से स्थापित कर सकते हैं, या हम जातिवाद और पूंजीवाद के जाल में और उलझते चले जाएंगे?
हमें यह समझने की जरूरत है कि राजनीति समाज की सेवा के लिए है, न कि समाज को विभाजित करने के लिए। जातिवाद और पूंजीवाद का बढ़ता प्रभाव केवल समाज को तोड़ने का काम करता है। हमें सामाजिक सद्भाव और राजनीति में सिद्धांतों को पुनः स्थापित करना होगा, ताकि हमारे समाज और राजनीति दोनों को इन विभाजनकारी ताकतों से बचाया जा सके।
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