कहां गए शिवपुरी के असली कांग्रेसी?
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शिवपुरी पालिका अध्यक्ष के पुत्र रजत शर्मा की गिरफ्तारी के विरोध में कांग्रेस का प्रदर्शन, और उसमें गायब थे वे चेहरे जो किसी समय कांग्रेस की रीढ़ माने जाते थे। मंच पर शोर था, मगर आत्मा नदारद थी। और जब आत्मा ही अनुपस्थित हो, तो आंदोलन केवल अभिनय बन जाता है।
आख़िर क्या कारण है कि जिन पार्षदों के नाम पर यह आंदोलन खड़ा किया गया, वही पार्षद कहीं नज़र नहीं आए? क्या यह चुप्पी उनके भय का परिणाम है या उनकी सहमति का संकेत? और जिन महिला पार्षदों को जनादेश मिला, उनकी जगह उनके पतियों, भाइयों, या पुत्रों की उपस्थिति—क्या यह प्रतिनिधित्व का अपमान नहीं? क्या यह प्रदर्शन “कांग्रेसी परिवारवाद” का जीता-जागता नमूना नहीं बन गया?
जन चर्चाओं में अब यह सवाल आम हो चला है—क्या शिवपुरी की कांग्रेस अब कांग्रेस नहीं रही? क्या वह अब केवल एक 'उपलब्धियों की दलाली' का मंच भर है, जहाँ सत्ता में ना होकर भी सत्ता की सुविधा का सुख भोगा जा रहा है? जिन कार्यों के लिए भाजपाई पार्षद दर-दर भटकते हैं, वे कार्य बिना मशक्कत कांग्रेसी पार्षदों के क्षेत्र में कैसे हो रहे हैं? कौन-सी अदृश्य गठजोड़ सत्ता और विपक्ष के बीच सेतु बन गई है?
यह कैसी राजनीति है जहाँ विरोधी होने का दावा तो है, मगर व्यवहार में एक अदृश्य गठबंधन दिखाई देता है? क्या कांग्रेस में अब “कांग्रेस की टोपी में छुपे भाजपाई” बसते हैं? जिनके विचार, व्यवहार और वाणी से कांग्रेस कम, सत्ता प्रेम अधिक झलकता है?
और यदि यह सत्य है, तो फिर यह प्रदर्शन भी एक नाटक से अधिक नहीं था—जिसका उद्देश्य न्याय नहीं, बल्कि अपनी उपस्थिति को रजिस्टर कराना भर था। और जब आंदोलन केवल औपचारिकता बन जाए, तो वह न तो जनता का भला करता है और न ही लोकतंत्र का।
अब सवाल यह नहीं कि रजत शर्मा दोषी हैं या नहीं, बल्कि सवाल यह है कि कांग्रेस कितनी ईमानदार है अपने ही मुद्दों को लेकर? क्या अब कांग्रेस में भी ‘न्याय’ केवल तब तक मांगने लायक है, जब तक वह निजी स्वार्थ में उपयोगी हो?
शिवपुरी की जनता अब प्रश्न कर रही है—कांग्रेस, तू खुद को ढूंढ!
क्योंकि लगता है, तेरी आत्मा कहीं सत्ताधीशों के गलियारों में खो गई है।
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