विचारधारा पर छाया संकट: संघ-भाजपा में घुसपैठ का षडयंत्र
0
टिप्पणियाँ
कभी-कभी परिवर्तन की आड़ में कुछ ऐसी आहटें सुनाई देती हैं, जो भीतर तक बेचैन कर देती हैं। यह बेचैनी वैचारिक नहीं, आत्मिक होती है। वह आत्मा जिसे वर्षों की तपस्या, असंख्य स्वयंसेवकों की अनुशासित साधना और अडिग विश्वास ने गढ़ा हो, वह यदि आज संदिग्ध छवियों के स्पर्श से कांपने लगे तो क्या यह केवल एक सहज सामाजिक घुल-मिल जाने की प्रक्रिया है, या फिर किसी गहरे षड्यंत्र की दस्तक?
आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी जैसे राष्ट्रवादी संगठनों की वैचारिक चौखट पर कुछ अजनबी पाँव अनायास नहीं, योजनाबद्ध रूप से आते-जाते देखे जा सकते हैं। वे चेहरे, जो कभी खुले मंचों पर संघ और भाजपा को गाली देने से नहीं चूकते थे, वे अब उन्हीं संस्थाओं के दरवाज़ों के आगे सम्मान की माला पहनाए खड़े दिखाई देते हैं। यह दृश्य सतह पर भले ही स्वागत का प्रतीक लगे, लेकिन गहराई में यह उस वैचारिक सादगी और निष्ठा पर चोट करता है, जिसके कारण लाखों कार्यकर्ताओं ने अपने जीवन का सर्वोत्तम समय इन संगठनों की सेवा में समर्पित कर दिया।
आज जब कोई सामान्य स्वयंसेवक शाखा के नियमानुसार वर्षों की साधना कर पद की ओर अग्रसर होता है, तो उसके समानांतर कुछ ऐसे लोग सीधे प्रांतीय और केंद्रीय कार्यालयों की परिक्रमा करते हुए, वहाँ के पदाधिकारियों से सौहार्द्रपूर्ण भेंट कर, फोटो खिंचवाते हुए, सोशल मीडिया पर उन्हें प्रदर्शित करते हैं। उनकी मुस्कुराहटें छलावे से सजी होती हैं और उनके पीछे वह छाया होती है जिसने कभी इस विचारधारा की जड़ें काटने की हर संभव कोशिश की थी।
यहाँ सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इन चेहरों को वहां तक पहुँचाने वाले भी कोई और नहीं, बल्कि संघ और भाजपा के भीतर पहले से जड़ें जमा चुके वे ही लोग हैं जिन्होंने विचारधारा की जगह सुविधा को प्राथमिकता दी। जिनके लिए संगठन साध्य नहीं, साधन बन गया है। यही वे लोग हैं जो इन नये छद्म विचारधारियों को न केवल आमंत्रित करते हैं, बल्कि उनका परिचय पत्रकार, लेखक, कलाकार या समाजसेवी जैसे शब्दों की आड़ में प्रांत या केंद्रीय पदाधिकारियों से करवाते हैं।
ये लोग स्थानीय कार्यकर्ताओं से क्यों नहीं मिलते? क्योंकि वे जानते हैं कि ज़िला स्तर पर उनकी असली पहचान सामने आ जाएगी। यहाँ हर स्वयंसेवक, हर कार्यकर्ता जानता है कि इन चेहरों के पीछे किस प्रकार की सोच, किन लेखों, किन भाषणों और किन गतिविधियों की परछाईं है। स्थानीय स्तर की अस्वीकृति और अपमान से बचने के लिए वे सीधे ऊपर पहुँचते हैं। और ऊपर, जहाँ हजारों से मिलने वालों की भीड़ होती है, वहाँ कोई एक चेहरा देख-समझ पाना कठिन हो जाता है।
और यहीं से शुरू होती है उनकी वैचारिक स्वीकृति की यात्रा—जो दिखती तो बाहर से सादा और विनम्र है, लेकिन भीतर से गहरी, संगठित और सुनियोजित है। यह केवल व्यक्तिगत लाभ या यश की आकांक्षा नहीं है, यह विचारधारा के मूल तक पहुँचने और उसे भीतर से कमजोर करने का प्रयास है।
इनकी प्रेरणा वह है जो पहले भी कुछ लोग अपना चुके हैं—संघ में बैकडोर एंट्री। और अब वही लोग इनके मार्गदर्शक बनकर इन्हें संगठन में प्रवेश करा रहे हैं, उनके लिए मंच सजा रहे हैं, मंच से सम्मान दिला रहे हैं, और धीरे-धीरे वे ही लोग विचारधारा के मंदिर की दीवारों पर अपने हस्ताक्षर करने लगे हैं।
यह दृश्य जितना कष्टदायक है, उतना ही चिंतन का विषय भी है।
क्या कोई विचारधारा इतनी कमजोर हो सकती है कि वह अपने ही विरोधियों को अपने अंदर स्थान देने लगे? क्या संगठन में यह विवेक समाप्त हो गया है कि वह अपने विरोधियों और अपने सेवकों के बीच का भेद नहीं कर सके?
यह जो विचारधारा का वटवृक्ष है, वह केवल शाखाओं से नहीं, अपने मूल्यों और सिद्धांतों से खड़ा है। यदि उन्हीं मूल्यों को धुंधला कर दिया जाए, यदि उन्हीं सिद्धांतों पर सुविधा की परत चढ़ा दी जाए, तो यह वटवृक्ष केवल आकार में विशाल होगा, पर भीतर से खोखला।
आज आवश्यकता है आत्मपरीक्षण की। न केवल संगठन के पदाधिकारियों को, बल्कि उन कार्यकर्ताओं को भी जो वर्षों से तप कर रहे हैं। क्या हम केवल संख्या बढ़ाने के लिए किसी को भी अपनाते जा रहे हैं? क्या हमारे संगठन की परिधि इतनी बड़ी हो गई है कि अब उसमें दुश्मनों की परछाइयाँ भी जगह पा रही हैं?
यदि यह सिलसिला नहीं रुका, यदि यह प्रवेशद्वार इसी प्रकार खुले रहे, तो आने वाले समय में वह दिन दूर नहीं जब मंचों पर वे लोग भाषण देंगे, जो कल तक उन मंचों को तोड़ने की बात करते थे। तब हमें यह कहते देर न लगेगी कि संघ और भाजपा की छलनी अब इतनी बड़ी हो चुकी है कि विचारधारा की एक-एक बूँद बहकर बाहर जा रही है, और भीतर केवल सुविधाभोगी, आत्मलिप्त, चालाक चेहरे बचेंगे—जो संगठन की आत्मा नहीं, उसकी देह का व्यापार करेंगे।
वरना समय की रेत पर हमारी वर्षों की साधना का इतिहास केवल एक भ्रमित कथा बनकर रह जाएगा—जहाँ सच्चे सेवक पीछे रह गए, और मुखौटे पहनकर आए लोग मठाधीश बन बैठे।
यह भी समझना आवश्यक है कि केवल संघ और भाजपा ही नहीं, बल्कि संघ की प्रेरणा से चलने वाले अनेक अन्य संगठनों में भी अब ऐसे लोग प्रविष्ट हो रहे हैं, जो मूलतः संघी संस्कृति से नहीं हैं। यह लोग निजी लाभ, प्रतिष्ठा या सत्ता प्राप्ति की आकांक्षा में संगठनों की निष्ठावान संरचना में घुसपैठ कर रहे हैं। इनका उद्देश्य विचारधारा की सेवा नहीं, बल्कि संगठन को सीढ़ी बनाकर सत्ता के शिखर तक पहुँचना है। और इस प्रक्रिया में वे उस अनुशासित, तपस्वी परंपरा को धूमिल कर रहे हैं, जिसने दशकों से इन संगठनों को वैचारिक शक्ति और सामाजिक प्रतिष्ठा प्रदान की है।
यही वह समय है जब संगठन को, विचारधारा को, और उसके असली सेवकों को जगना होगा।
– दिवाकर शर्मा
Tags :
दिवाकर की दुनाली से
एक टिप्पणी भेजें