पत्रकारों पर वार: नया ट्रेंड या सोची-समझी साजिश? – दिवाकर शर्मा
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आजकल सबकुछ बड़ा तेजी से बदल रहा है – खबरें भी, खबरनवीस भी, और उनके प्रति समाज का नजरिया भी। एक समय था जब पत्रकार को लोग आदर से देखते थे। वो जो सच्चाई लिखे, वो जो जन की आवाज को शासन के सिंहासन तक पहुंचाए, उसे लोग सिर आंखों पर बिठाते थे। अब वो ही पत्रकार किसी की गाली, किसी की पोस्ट, किसी की कुंठा का पात्र बनता जा रहा है।
सोशल मीडिया का कीबोर्ड जब किसी भी हाथ में आ गया, तब पत्रकारिता को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा। अब किसी को कुछ भी कह देना, पूरे समुदाय को लांछित कर देना, और फिर उस पर 'सत्य बोलने की बहादुरी' का बिल्ला टांग लेना – फैशन बन गया है।
कभी-कभी सोचता हूं, यह कैसी विडंबना है कि एक पत्रकार जो दूसरों की आवाज बनता है, आज अपनी ही आवाज गले में दबाकर जी रहा है। कारण? उसे डर है कि कहीं सच बोलने पर उसका भी वीडियो एडिट कर, उसकी भी बहन-बेटियों का नाम उछालकर, उसकी भी नौकरी पर सवाल उठाकर उसे मिटा न दिया जाए।
कभी सोचता हूं, हम पत्रकारों में वह एकता क्यों नहीं बची जो होना चाहिए? जब कोई शिक्षक या डॉक्टर पर हमला होता है, तो पूरा समाज हिल जाता है। लेकिन जब पत्रकारिता पर कोई शब्द-बाण चलता है, तो सब अपनी खोह में दुबक जाते हैं। कोई प्रतिवाद नहीं, कोई प्रतिरोध नहीं, कोई सार्वजनिक असहमति नहीं।
कुछ तो हमारी भी गलती है। हमने कभी अपने भीतर के विकारों को पहचानने और सुधारने की कोशिश नहीं की। हमने देखा कि कोई साथी लालच में गिर रहा है, कोई ब्लैकमेलिंग के रास्ते पर जा रहा है, कोई किसी पार्टी की जेब में बैठा है — पर हमने चुप रहकर उसे मौन समर्थन दिया। उस समय हमने नहीं सोचा कि उसकी गलती हमारे पेशे की साख को कितनी चोट पहुंचाएगी।
और जब आज कोई बाहरी व्यक्ति पूरे पत्रकार समुदाय को "घोटालेबाज", "ब्लैकमेलर", "गिरा हुआ", "डंबर जैसी शक्ल वाला" कहता है — तब हम यह कहते हुए अपने कर्तव्य से बच निकलते हैं कि “इसमें मेरा नाम तो नहीं है…”
कितनी हास्यास्पद बात है यह! एक मां को कोई गाली दे और बेटा यह कहे कि “गाली तो मेरे नाम से नहीं दी गई…”
पत्रकारिता हमारी मां है। यह केवल एक नौकरी नहीं, यह एक जिम्मेदारी है, एक आत्मबल है, एक संस्कृति है — और जब इस पर हमला होता है तो व्यक्तिगत नाम से नहीं, पूरी आत्मा से प्रतिक्रिया आनी चाहिए।
पर क्या अब पत्रकारों के भीतर आत्मा शेष रह गई है?
कुछ साथी अब भी हैं जो सच्चाई की लौ जलाए हुए हैं। जो खामोश रहते हैं, पर सही वक्त पर बोलते हैं। पर वे गिने-चुने हैं। बहुसंख्यक अब दो भागों में बंट चुके हैं — एक वे जो गुनाह में डूबे हुए हैं, और दूसरे वे जो तटस्थ दर्शक बने हुए हैं। यह तटस्थता ही सबसे बड़ा अपराध बन चुकी है।
और इस अपराध में जो सबसे ज्यादा भुगतता है, वह है एक सच्चा पत्रकार।
वह जो खबर को खबर की तरह देखता है, वह जो किसी राजनीतिक दल या अधिकारी का दलाल नहीं, वह जो न बिकता है, न झुकता है — वही सबसे ज्यादा पीड़ित होता है।
क्योंकि जब वह चुप रहता है, तो उसे कायर कहा जाता है। और जब वह बोलता है, तो उसे पक्षपाती, भाड़े का टट्टू, या पागल करार दे दिया जाता है।
उसे न पुरस्कार मिलता है, न मंच। उसे न समर्थन मिलता है, न संगठन। वह अपने शब्दों के भीतर ही अपनी आत्मा को ढूंढता है।
उसका अकेलापन उसे खा जाता है। वह सोचता है – मैं सच के लिए लड़ा, तो मेरा ही समुदाय क्यों चुप रहा?
यह लेख किसी से लड़ने का हथियार नहीं, बल्कि आत्ममंथन का दर्पण है।
क्या हम अब भी इतने जिंदा हैं कि जब हमारी आत्मा घायल हो तो हम उसे मरहम दे सकें?
क्या अब भी पत्रकार अपने भीतर उस आदर्श की लौ जगा सकता है, जिसकी रोशनी में एक जमाने ने इमरजेंसी को चुनौती दी थी, घोटालों को खोला था, सत्ता की हेकड़ी को कलम की धार से तोड़ा था?
या फिर अब हम सिर्फ माइक उठाने वाले, टीआरपी के तस्कर, और किसी की राय को “एक्सक्लूसिव” कहने वाले हो गए हैं?
मुझे नहीं चाहिए कोई शाबाशी। न कोई पद, न सम्मान।
बस यह चाहता हूं कि जब कोई हमारी बिरादरी पर हमला करे, तो कोई साथी उठकर कहे – "नहीं, सब ऐसे नहीं होते।"
और जब कोई सच्चा पत्रकार टूटने लगे, तो कोई उसका कंधा थामे और कहे – "तेरे साथ हम भी हैं।"
शायद फिर पत्रकारिता फिर से ज़िंदा हो उठे… और पत्रकार फिर से मुस्कुरा सके।
(एक वास्तविक पत्रकार का अंतर्मन)
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दिवाकर की दुनाली से
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