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मोदी जी, क्या आपको समय है जमीनी ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ताओं की पीड़ा सुनने समझने की ? – दिवाकर शर्मा

 

प्रादेशिक सत्ता के गलियारों में प्रवेश केवल चाटुकारों और व्यापारियों के लिए आरक्षित। 

एक अजीब सी छटपटाहट है इन दिनों… उन राष्ट्रवादी मनों में, जो दशकों से बिना किसी पद, सम्मान और प्रचार की लालसा के, इस देश को माँ मानकर उसकी सेवा में लीन रहे। जिनकी सुबह शाखा में 'भारत माता की जय' से शुरू होती थी और रात राष्ट्र के चिंतन में समाप्त। जो चुनावी मौसम में नहीं, हर मौसम में राष्ट्रवाद का ध्वज थामे खडे रहे। आज वही मन उद्विग्न है, उदास है और कहीं न कहीं अंदर ही अंदर टूटता जा रहा है। 

जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने, तब जैसे वर्षों की तपस्या को फल मिला। राम को मंदिर मिला, गंगा को स्वच्छता का अभियान मिला, धारा 370 को तिलांजलि मिली, और राष्ट्र को एक दृढ़निश्चयी नेतृत्व। भारत ने पहली बार महसूस किया कि कोई तो है जो न झुकेगा, न रुकेगा, न बिकेगा। देश को फिर से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आदर्श की ओर बढ़ते हुए देखा गया। देश को गर्व हुआ अपने प्रधानमंत्री पर, और उन पर गर्व करने वालों में सबसे आगे थे वे राष्ट्रवादी कार्यकर्ता, जिन्होंने बिना किसी निजी लाभ की आकांक्षा के यह लड़ाई लड़ी थी। पर आज जब इन कार्यकर्ताओं की आंखें राज्यों की ओर उठती हैं, तब उन्हें वहाँ एक गहरी निराशा दिखाई देती है। यह निराशा किसी विरोधी दल के कारण नहीं, बल्कि अपनी ही सरकारों, अपने ही नेताओं और अपने ही संगठन की कार्यशैली के कारण है। 

राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, पर वहाँ मोदी की शैली, उनके सिद्धांत, उनकी दूरदृष्टि और राष्ट्र के प्रति निष्ठा का अभाव है। वहाँ अब केवल सत्ता है, समर्पण नहीं। पद है, पर विचार नहीं। घोषणाएं हैं, पर कर्म नहीं। कार्यकर्ताओं की लिस्टें हैं, पर भावना नहीं। भाजपा में बीते वर्षों में ऐसे लोगों का प्रवेश हुआ है, जिनका अतीत भाजपा-विरोधी विचारों से भरा पड़ा है। कुछ वर्षों पहले तक जो लोग संघ और भाजपा को 'सांप्रदायिक' कहने में गर्व महसूस करते थे, आज वही नेता बनकर मंच पर राष्ट्रवाद की बातें कर रहे हैं। वे न तो विचारधारा को समझते हैं, न उसका सम्मान करते हैं, और न ही उसके लिए किसी प्रकार का त्याग किए हैं। पर आज वही लोग टिकटों के चयन में निर्णायक हैं, मंत्री बनते हैं, नीति बनाते हैं और सच्चे कार्यकर्ताओं को उपेक्षा की आग में झोंक देते हैं। 

जो लोग वर्षों तक किसी मोहल्ले में संघ का एक बीज बोने के लिए संघर्ष करते रहे, जिन्हें कभी किसी चुनावी मंच पर बुलाया तक नहीं गया, वे आज किनारे बैठकर उन नव-नेताओं की जयकार सुनते हैं, जिनकी राष्ट्रभक्ति केवल सोशल मीडिया पोस्टों तक सीमित है। सबसे अधिक चिंताजनक है संघ की आंतरिक स्थिति। प्रचारक और स्वयंसेवकों के बीच संवाद अब औपचारिकता भर रह गया है। शाखाओं में वैचारिक मंथन कम हुआ है, पदोन्नति का मार्ग अधिक बन गया है। संघ अब एक विचार यात्रा नहीं, बल्कि कई जगहों पर राजनीतिक सीढ़ियाँ चढ़ने का औजार बनता जा रहा है। कुछ स्थानों पर विशुद्ध जातिवादी सोच के लोग संघ में प्रवेश कर चुके हैं, जिन्हें न संघ की साधना समझ आती है, न राष्ट्र के प्रति समर्पण। ऐसे लोग जब निर्णय लेते हैं, तब मूल स्वयंसेवकों का मन टूटता है, और राष्ट्रवाद कार्यालयों के नाम पर बनी विशालकाय अट्टालिकाओं की दीवारों में कैद होकर रह जाता है। 

भाजपा के जिलों और तहसीलों में आज जो पदाधिकारी हैं, उनमें से कई ऐसे हैं जो पार्टी को केवल व्यक्तिगत लाभ और व्यापार के रूप में देखते हैं। वे कार्यकर्ताओं को 'वर्कर' नहीं, 'कम कीमत पर उपलब्ध भीड़' समझते हैं। उनकी आँखों में विचार नहीं, अवसर की चमक होती है। वे वही लोग हैं जो पार्टी की बैठकों में प्रधानमंत्री के नाम की जयकार करते हैं, पर जिले में उसी प्रधानमंत्री की नीतियों का उपहास उड़ाते हैं। जनप्रतिनिधियों की चुप्पी अब अपराध सरीखी लगती है। भ्रष्टाचार की शिकायतें बढ़ती हैं, जनता परेशान है, लेकिन चुने हुए जनसेवक चुप हैं। वे चुप हैं क्योंकि वे स्वयं भी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं या उनके समर्थक उस दलदल में गले तक डूबे हैं। अधिकारियों की मनमानी, जनसुनवाई का मज़ाक, और फाइलों में दबे जनहित के मुद्दे — ये सब अब सामान्य बात बन चुकी हैं। अफसरशाही की अंग्रेजी मानसिकता आज भी ज़िंदा है। वह अफसर, जो खुद को लोकतंत्र का सेवक नहीं, शासक समझता है, आज हर जिले में जनता को भय दिखाता है, अपमानित करता है और नेतागण उस पर मौन रहते हैं। यही कारण है कि आम नागरिक आज भी सरकारी दफ्तर जाने से डरता है, वहाँ अपमान की आशंका लेकर जाता है। अफसरों की वह भाषा, वह व्यवहार — जैसे यह आज़ाद भारत नहीं, कोई नया अंग्रेज़ी राज हो। और इस सब के बीच मूल कार्यकर्ता कहीं खो गया है। वह कार्यकर्ता जो मोदी को मसीहा मानता है, अब सोच में पड़ गया है कि वह किस दिशा में जा रहा है। चुनाव आते हैं, उसके हाथ में फिर झंडा थमा दिया जाता है, उससे उम्मीद की जाती है कि वह फिर घर-घर जाए, वोट मांगे, गालियाँ खाए, और फिर चुनाव जीतने के बाद वापस उसी कोने में बैठा दिया जाए, जहाँ कोई सुनने वाला नहीं होता। 

मोदी जी, यह वही कार्यकर्ता है जिसने आप पर भरोसा किया, आपकी बातों को आत्मा में उतारा, आपको अपना नेता नहीं, मार्गदर्शक माना। वह कार्यकर्ता आज आहत है। वह यह नहीं चाहता कि आप हर समस्या का समाधान दें, पर वह चाहता है कि आप उसकी पीड़ा सुनें। वह चाहता है कि आप एक बार राज्यों की राजनीति में गहराई से झाँकें, वहाँ बैठे उन लोगों को पहचानें जो आपके नाम का प्रयोग करके आपके ही विचारों को छल रहे हैं। यह केवल भाजपा की नहीं, राष्ट्रवाद की लड़ाई है। यदि समय रहते इन गड़बड़ियों को नहीं रोका गया, तो यह विचारधारा एक दिन केवल भाषणों और नारों में सिमटकर रह जाएगी। भारत माता के उन असली सपूतों को अगर आज नहीं सुना गया, तो कल वे बोलना छोड़ देंगे, और तब यह संगठन केवल एक चुनावी मशीन बनकर रह जाएगा। 

यह लेख क्रोध से नहीं, वेदना से भरा है। यह पुकार है उन लाखों कार्यकर्ताओं की, जो अभी भी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि उनके नायक उनकी व्यथा को समझेंगे। यह लेख एक चेतावनी भी है — यदि समय रहते ये गलती नहीं सुधारी गई, तो आने वाले समय में भाजपा के लिए सबसे बड़ा संकट विपक्ष नहीं होगा, बल्कि भीतर से टूटती निष्ठाएं होंगी। यह वक्त है, जब संघ को पुनः आत्ममंथन करना होगा। बैसे भी यह संघ का शताब्दी वर्ष है। संघ कार्य ईश्वरीय कार्य है, तो यह वर्ष सिंहावलोकन का भी है। भाजपा को ज़मीनी कार्यकर्ताओं को सम्मान देना होगा। अफसरशाही को जनता की सेवा में झुकाना होगा। और सबसे बढ़कर — उन नकली राष्ट्रवादियों को बेनकाब करना होगा, जो केवल सत्ता के सुख के लिए भगवा ओढ़े बैठे हैं। यह आवाज़ है निष्ठा की, पीड़ा की और चेतावनी की। क्या आप सुन रहे हैं, नरेंद्र मोदी जी? 

चलते चलते - कैसी विडम्बना है कि जहाँ हमारी सरकार है, उस दिल्ली से एक देशभक्त 19 वर्षीय किशोरी को कोलकता की पुलिस दिनदहाड़े गिरफ्तार करके ले गई, और हमारी दिल्ली सरकार टुकुर टुकुर देखती रही। अपराध केवल इतना था कि उसने एक पाकिस्तान विरोधी पोस्ट सोशल मीडिया पर लिखने की हिमाकत की थी। बस ममता बनो ने उसे साम्प्रदायिक करार दे दिया। जो अपनों का रक्षण नहीं कर सके, वह सत्ता स्थाई नहीं होती |हीं हो सकती।

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1 टिप्पणियाँ

  1. सटीक....प्रासंगिक....नेतृत्व की गहराई से अपेक्षा अपेक्षित.

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