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शिवपुरी नगर पालिका का राजनीतिक रहस्य: भीतर छिपे सत्ता संघर्ष की सच्चाई

 

नगर पालिका भवन की दीवारें इन दिनों बहुत कुछ सुन रही हैं। वे दीवारें, जो कभी चुनी हुई चुप्पियों की गवाह थीं, आज चिल्ला-चिल्लाकर कह रही हैं – यहां कुछ ठीक नहीं चल रहा। बाहर से सजा-संवरा दिखने वाला शिवपुरी का यह लोकतांत्रिक प्रतिष्ठान भीतर से खोखला हो चुका है, और इसके गर्भ में पल रहा है एक ऐसा राजनीतिक घमासान, जिसे शब्दों में बाँधना कठिन है, पर अनदेखा करना अब असंभव।

यह एक ऐसी राजनीतिक पटकथा है, जिसमें मुख्य पात्र बार-बार बदल जाते हैं, और संवाद वही रहते हैं – विश्वासघात, महत्वाकांक्षा और सौदेबाज़ी। शुरुआत में जिनके नाम से शिवपुरी की राजनीति का पताका फहराने की भविष्यवाणियाँ की जा रही थीं, वे आज गुमनामी के कोने में सिसकते दिखते हैं। और जो नाम लिस्ट में दूर-दूर तक नहीं थे, वे अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान हैं – जैसे कोई पुरानी कथा जिसमें अचानक प्रकट हुआ पात्र सबका भाग्य बदल देता है।

गायत्री शर्मा, यह नाम नपा चुनाव से पहले आम चर्चाओं में नहीं था। पर राजनीति कभी पूर्वानुमान से नहीं चलती, वह अक्सर ‘संयोगों’ और ‘समझौतों’ से पथ रचती है। सरोज रामजी व्यास की असहमति और समर्थन का संतुलन बनाते हुए यह पद जब अप्रत्याशित रूप से गायत्री शर्मा की झोली में आया, तो भाजपा कार्यकर्ताओं के मन में प्रश्न थे – यह चयन क्यों और कैसे हुआ?

पर इस सवाल से भी बड़ा सवाल तब खड़ा हुआ, जब वही समर्थक जिनकी उंगलियों ने मत के पत्ते पलटे थे, वे ही अब इस अध्याय के समापन की याचना करते दिखने लगे। नाम बदले, नीयत बदली और सत्ता के समीकरण फिर से उलझते गए। विजय बिंदास, तारा राठौर और कभी सबसे करीबी माने जाने वाले गौरव सिंघल जैसे नाम अब विरोध के स्वर में बोलते हैं। और इधर विरोध के खांचे में रहे मट्टू खटीक जैसे चेहरे अब अध्यक्ष के नए सेनापति बनकर पीआईसी में झंडा बुलंद कर रहे हैं।

क्या यह सत्ता का मोह है या सियासत का लोभ? या फिर यह स्थानीय राजनीति का वह अधूरा चित्र है, जिसमें हर रेखा दूसरे को काटने को आतुर है?

गौरव सिंघल द्वारा लगाए गए 20 प्रतिशत के गंभीर आरोप केवल व्यक्तिगत नहीं, संस्थागत भ्रष्टाचार की बदबू लिए हुए हैं। नपा की बैठकों से अधिक चर्चाएं अब चाय की दुकानों और सोशल मीडिया पर होती हैं। कहा जा रहा है कि एक विशेष ठेकेदार इन विवादों के बीच ‘डैमेज कंट्रोल’ के लिए सक्रिय हो गया – पर नियंत्रण के नाम पर यदि भ्रष्टाचार का गला घोंटने की बजाय उसे चुपचाप जिंदा रखा जा रहा हो, तो यह नियंत्रण नहीं, संरक्षण कहलाता है।

स्थिति यहाँ तक बिगड़ चुकी है कि भाजपा विधायक स्वयं नगर पालिका को ‘नरक पालिका’ कहने से नहीं चूके। यह केवल एक उपमा नहीं थी, यह एक निर्वाचित व्यवस्था के प्रति उपजी उस घोर निराशा का प्रतीक था, जो कार्यकर्ताओं और जनता के बीच समान रूप से व्याप्त है।

पिछले कुछ वर्षों में जितने पार्षद हटाए गए, जोड़े गए या पलटे गए – वह संख्या किसी फिल्मी स्क्रिप्ट के ट्विस्ट से कम नहीं। नीलम बधेल हों या गौरव सिंघल, इन नामों के इर्द-गिर्द मंडराता हुआ असंतोष ही इस बात का प्रमाण है कि यहां विचारधारा से अधिक मूल्य विलंबित वफादारी और सही समय पर खेले गए दांव का है।

इस समूचे नाटक में कांग्रेस की भूमिका सबसे रहस्यमयी है – ना स्पष्ट समर्थन, ना खुला विरोध। उनके पार्षदों की चुप्पी और मौन सहमति एक आर्थिक गणित की ओर संकेत करती है, जहां विचारधारा भी शायद अनुबंध के कागज़ों में खो गई है।

सच कहा जाए, तो यशोधरा राजे सिंधिया के शिवपुरी से जाने के बाद यह शहर जैसे अनाथ हो गया है। नेतृत्व की कमी, दिशा का अभाव और पार्षदों की आपसी गुटबाजी ने इस नगर पालिका को राजनीति की रणभूमि बना दिया है – जहां विकास नहीं, दांव चलते हैं। और अफसोस की बात यह है कि जनता केवल दर्शक बनी बैठी है – वही जनता, जिसके जीवन में इन खींचतान का सीधा असर पड़ता है।

शिवपुरी नगर पालिका अब संस्था नहीं, एक गूढ़ राजनीतिक कथा बन चुकी है। इसमें आदर्श की जगह चतुराई ने ली है, सेवा की जगह स्वार्थ ने। यह वह समय है जब शहर को नेतृत्व नहीं, चरित्र की जरूरत है। नहीं तो जल्द ही ‘नगर पालिका परिषद’ का नाम राजनीतिक तमाशा परिषद में तब्दील होते देर नहीं लगेगी।

अंत में चलते चलते - याद कीजिये वह समय, जब सिरसौद खोड़ रोड बन रही थी, स्वयं यशोधरा जी मौके पर पहुँच कर जांचती थीं कि सीमेंट, गिट्टी रेत का अनुपात ठीक है या नहीं। कई बार तो उन्होंने बनी हुई सड़क पर गड्ढा करवाकर भी जांच की। उस रोड की गुणवत्ता सबके सामने है। जबकि आज रेलवे स्टेशन के पहुँच मार्ग को पूरी तरह बंद करके बन रहा ओवर ब्रिज बनते बनते ही ढह गया। किसी मिशन की तरह जनता की परेशानी देखने समझने की मानसिकता आज के नेताओं में कहाँ है ? सचमुच यशोधरा जी बहुत याद आ रही हैं।

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