खनियाधाना : जातीय विमर्श की आड़ में चेतावनी या चालाकी? – दिवाकर शर्मा
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खनियाधाना – एक बार फिर चर्चा में है। कभी धर्मांतरण के मुद्दों को लेकर, कभी जातिगत खींचतान के लिए, और अब एक नए वीडियो संदेश को लेकर। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोग हर वैधानिक कार्रवाई में भी जाति, वर्ग और धर्म का चश्मा लगाए बिना नहीं रह सकते।
हाल ही में सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें स्वयं को पीड़ित बताते हुए एक युवक—रविन्द्र कोली—ने लंबी-चौड़ी व्यथा कथा बयान की। वीडियो में वे कभी पत्रकार पर, कभी पुलिस पर, तो कभी पूरे "ब्राह्मण धर्म" पर आक्षेप करते नज़र आते हैं। इतना ही नहीं, वे धर्म परिवर्तन की धमकी देकर अपने ऊपर दर्ज संभावित आपराधिक मामलों को ‘झूठा’ सिद्ध करने की बेतुकी कोशिश करते हैं।
प्रश्न यह उठता है कि क्या अब हर व्यक्ति जिसके ऊपर कोई भी कार्यवाही हो, सोशल मीडिया पर वीडियो बनाकर न्यायपालिका, प्रशासन और पत्रकारिता को कठघरे में खड़ा कर सकता है? क्या यह वह समाज है जो संविधान से संचालित होता है, या फिर अब वीडियो ही नया संविधान बन गया है?
विडंबना देखिए—जिस समाज में सदियों से 'धर्म' आस्था और आचरण का विषय रहा है, वहाँ आज धर्म एक बारात की तरह बदलने की धमकी में तब्दील हो गया है। और वह भी इसलिए कि प्रशासन ने किसी एक व्यक्ति की शिकायत पर कानूनी कार्यवाही की।
क्या यह विचारणीय नहीं कि जिस युवक ने स्वयं स्वीकार किया कि उसके और उसके भाई में विवाद था, जो ‘पत्रकार’ की वजह से भड़का, वही युवक अब उसी पत्रकार को ‘ब्लैकमेलर’ कहता है, और उसी पर एफआईआर भी दर्ज करवा चुका है? और फिर उसी पुलिस पर, जिसने कानूनी प्रक्रिया अपनाई, ‘मनुवादी’ होने का आरोप लगाता है?
ऐसे में जब एक वेब पोर्टल केवल एकतरफा वीडियो को प्रमोट कर उसे 'समाचार' के रूप में प्रस्तुत करता है, तो यह न केवल पत्रकारिता की गरिमा पर प्रश्न है, बल्कि समाज में झूठ को फैलाने का सुनियोजित प्रयास भी प्रतीत होता है।
क्या आज की पत्रकारिता का अर्थ केवल यह रह गया है कि जिसने सबसे पहले रोना रो दिया, वही सत्य का स्वामी बन जाए?
ऐसा प्रतीत होता है कि रविन्द्र कोली जैसे कुछ लोग न केवल धर्म को, बल्कि न्याय की पूरी प्रक्रिया को भी दबाव, धमकी और ‘सांकेतिक पीड़ितत्व’ के सहारे अपने पक्ष में मोड़ना चाहते हैं।
समाज को यह समझना होगा कि कानून सबके लिए समान है—न ब्राह्मण के लिए विशेष, न दलित के लिए अलग। न पत्रकार को छूट है, न ही किसी संगठन विशेष के सदस्य को विशेषाधिकार।
अगर हर आरोपी सोशल मीडिया पर वीडियो बनाकर एफआईआर से पहले ही खुद को बरी करवाने लगे, तो फिर अदालतों और जांच एजेंसियों की आवश्यकता ही क्यों रह जाएगी?
यह दौर है सजग नागरिकों का—जो केवल वीडियो नहीं, सत्य देखना जानते हैं। जो केवल जाति नहीं, चरित्र की कसौटी पर परखते हैं।
ध्यान रहे, 'धर्म' कोई हवाबाज़ी की चीज़ नहीं, जो गुस्से या अहंकार में छोड़ी या अपनाई जाए। यह जीवन का मार्ग है, और अगर इसे हथियार बनाकर इस्तेमाल किया गया, तो न धर्म बचेगा, न समाज।
अब समय आ गया है जब हम यह पूछें—
क्या धर्म परिवर्तन धमकी बन चुका है?
क्या जातिगत पीड़ितत्व ही न्याय का प्रमाण बन गया है?
क्या सोशल मीडिया पर रो देने से अपराध धुल जाते हैं?
यदि नहीं, तो समाज को भी तय करना होगा—
कि वह वीडियो पर विश्वास करेगा या विधि पर।
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दिवाकर की दुनाली से
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