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RTI कार्यकर्ता आशीष चतुर्वेदी पर उठे सवाल: कोर्ट की अनदेखी या शातिर रणनीति?

 

कभी सूचना के अधिकार की मशाल थामे व्यवस्था की अंधेरी गलियों में रोशनी बिखेरने वाला नाम – आशीष चतुर्वेदी – आज स्वयं संदेह के घेरे में है। जिस जुबान ने भ्रष्टाचारियों के नाम उजागर किए, वही जुबान अब न्याय के सामने मौन हो गई है। यह केवल संयोग नहीं, बल्कि एक शातिर रणनीति का हिस्सा प्रतीत होता है।

आशीष को जनता ने एक योद्धा के रूप में देखा, लेकिन अब उनके कदमों की चाल में ईमानदारी नहीं, एक चतुर खिलाड़ी की चालाकी झलकती है। कोर्ट तीन बार आदेश देता है – "आवाज रिकॉर्ड कराओ" – और आशीष तीनों बार या तो बहाना गढ़ते हैं या चुप्पी ओढ़ लेते हैं। क्या यह वही व्यक्ति है जिसने वर्षों तक सच्चाई के लिए अपनी जान जोखिम में डाली? या अब वे सच्चाई को अपनी सुविधानुसार परिभाषित करने लगे हैं?

यह कोई साधारण टालमटोल नहीं, बल्कि कानून को अपने इशारों पर नचाने की कोशिश है। एक शातिर दिमाग, जो जानता है कि कब खुद को पीड़ित बनाकर सहानुभूति बटोरनी है, और कब न्यायिक प्रक्रिया से भागकर समय को अपने पक्ष में करना है।

ऐसा प्रतीत होता है कि आशीष अब उस "RTI कार्यकर्ता" की छवि को एक सुरक्षा कवच की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसके भीतर वे अपनी जवाबदेही से भाग रहे हैं। जो व्यक्ति समाज को आईना दिखाने का दावा करता रहा, आज खुद आईने से आंख मिलाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा।

कोर्ट की अवमानना करना, बार-बार पेश न होना, और अपनी आवाज़ देने से इनकार – यह सब आशीष की एक सोची-समझी चाल हो सकती है। शायद वे जानते हैं कि अगर आवाज़ रिकॉर्ड हो गई, तो झूठ और सच के बीच की रेखा धुंधली नहीं रहेगी। और यही डर, उन्हें एक शातिर खिलाड़ी की भूमिका में ला खड़ा करता है – जो कानून को भी अपने हित में मोड़ने का गुर जानता है।

समाज को अब यह तय करना होगा कि वह किस आशीष को याद रखे – वह जो भ्रष्टाचार से लड़ता था, या वह जो कानून से भागता है। एक समय का नायक अगर शातिरता के पथ पर चल पड़े, तो उसकी वीरगाथा इतिहास में नहीं, अफसोस की फाइलों में दर्ज हो जाती है।

और यह अफसोस – आशीष के मौन से कहीं अधिक मुखर है।

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