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हाई कोर्ट ने 'लव जिहाद' शब्द पर रोक की याचिका खारिज की, क्या यह सच्चाई से भागने की कोशिश है?

 

मध्यप्रदेश हाई कोर्ट ने ‘लव जिहाद’ शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगाने की याचिका को खारिज कर दिया। यह फैसला न केवल न्यायिक विवेक का परिचायक है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बहाने से कुचलने की कोशिश अब अदालतों में नहीं चलेगी। याचिका भोपाल निवासी मारूफ अहमद खान द्वारा दाखिल की गई थी, जिसमें दावा किया गया कि 'लव जिहाद' शब्द से मुस्लिम समाज की भावनाएं आहत होती हैं। लेकिन यह सवाल कहीं अधिक गहरा है—क्या वास्तव में यह भावनाएं आहत होने का मामला है, या फिर अपनी कमियों, साजिशों और सामाजिक विसंगतियों पर पर्दा डालने की एक सोची-समझी रणनीति?

आज के भारत में जब-जब किसी विशेष समुदाय के भीतर की कुरीतियों पर सवाल उठाए जाते हैं, तो तथाकथित "धार्मिक भावनाएं" आहत होने का राग अलापा जाता है। यह प्रवृत्ति खासकर इस्लाम के पैरोकारों में अधिक दिखती है, जहां सच्चाई को उजागर करने की हर कोशिश को 'इस्लामोफोबिया' या 'धार्मिक द्वेष' कहकर खारिज किया जाता है। ‘लव जिहाद’ शब्द कोई कल्पना नहीं, बल्कि अनेक मामलों में न्यायिक और पुलिस जांच का विषय रहा है। देश के कई हिस्सों में यह साबित हुआ है कि पहचान छुपाकर, प्रेमजाल में फँसाकर, और फिर धर्म परिवर्तन के लिए दबाव बनाने की घटनाएं हुई हैं।

मगर जब मीडिया इन मामलों को उजागर करता है, तो उसे ‘इस्लाम विरोधी’ ठहराया जाता है। आखिर क्यों? क्या समाज को यह जानने का हक नहीं कि किस तरह धर्म की आड़ में कुछ तत्व षड्यंत्र चला रहे हैं? क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी एकतरफा हो गई है कि मुसलमानों की बात कहने वाला हर प्लेटफॉर्म 'धार्मिक' हो जाता है और अन्य कोई बोल दे तो वह 'घृणा फैलाने वाला'?

इस याचिका में मीडिया पर 'भ्रामक' खबरें परोसने का आरोप लगाया गया। लेकिन क्या ‘भ्रामक’ वही होता है जो किसी के अपराध को उजागर करता है? अगर मीडिया द्वारा दिखाए गए मामले गलत होते तो न्यायालय और प्रशासन उन्हें खारिज कर देते। लेकिन जब खुद पुलिस चार्जशीट दाखिल कर रही है, लड़कियां सामने आकर बयान दे रही हैं, तो फिर 'धार्मिक भावना' की ढाल क्यों?

सच्चाई यह है कि जब समाज के भीतर से आत्मावलोकन की जगह भावनात्मक उत्पीड़न का शोर उठने लगे, तो समझ जाना चाहिए कि कोई न कोई गहरी सच्चाई छुपाई जा रही है। यह याचिका भी उसी मानसिकता का प्रतिबिंब है—कि कैसे तथ्यों को ‘घोषित रूप से अपमानजनक’ बता कर दबाने की कोशिश की जाती है।

हाई कोर्ट का फैसला यह संकेत देता है कि अब न्यायिक व्यवस्था भावनाओं की आड़ में सच पर पर्दा डालने की अनुमति नहीं देने वाली। यह निर्णय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में है और ऐसे हर व्यक्ति के लिए चेतावनी है जो अपने भीतर की गंदगी को ‘धार्मिक भावनाओं’ के पर्दे में छुपाना चाहता है।

सच परेशान हो सकता है, लेकिन पराजित नहीं।

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