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शिवपुरी नगर पालिका का इतिहास : स्वर्ण युग से भ्रष्टाचार की गर्त तक

 

शिवपुरी नगर पालिका का इतिहास केवल ईंट-पत्थर, बजट और बैठकों की दास्तां नहीं है, यह उस नगर की आत्मा की कथा है जो कभी अपने जनप्रतिनिधियों की नीयत, नीति और नैतिकता पर गर्व करता था। वर्ष 1904 में जब इस नगर पालिका की स्थापना हुई थी, तब शायद किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि यह संस्था एक दिन जनता की आस्था का केंद्र नहीं, उपहास का विषय बन जाएगी।

शिवपुरी नगर पालिका की यात्रा एक अनुशासित, सेवा-भाव से ओतप्रोत और लोकतांत्रिक मूल्यबोध से संचालित संस्था के रूप में शुरू हुई। ग्वालियर स्टेट के अधीन प्रारंभिक टाउन कमेटी और बाद में म्युनिस्पल एक्ट संवत 1963 के अंतर्गत इसकी नींव पड़ी। वर्ष 1947 में जब पहली बार नगर पालिका में निर्वाचित जनप्रतिनिधि आए, तब उसके पहले अध्यक्ष थे स्वर्गीय सेठ सुआलाल अग्रवाल—एक ऐसे सज्जन, जिनके नेतृत्व की सादगी, पारदर्शिता और जनसेवा की भावना आज भी किंवदंती की तरह सुनी जाती है।

उनके बाद जिन व्यक्तित्वों ने नगर पालिका की बागडोर संभाली, उन्होंने भी सेवा को ही अपना धर्म माना। श्री श्रीनिवासदास, डॉ. एम. के. मेहता, सांवलदास गुप्ता, कैलाश नारायण पौराणिक, गणेशीलाल जैन, बल्लभदास मंगल, सोहनमल सांखला, लक्ष्मीनारायण शिवहरे, श्रीमती राधा गर्ग और फिर श्री माखनलाल राठौर—इन सभी ने एक ऐसी परंपरा को जीवित रखा जिसमें नपा अध्यक्ष होना किसी प्रतिष्ठा का विषय था, न कि सत्ता और ठेकेदारी का साधन।

यह वह समय था जब नगर पालिका को एक मिशन की तरह लिया जाता था। न तो करोड़ों के बजट आते थे, न किसी योजना में भ्रष्टाचार की गुंजाइश थी। जनप्रतिनिधि लोगों के बीच रहते थे, उनके सुख-दुख में सहभागी बनते थे। नगर विकास सीमित था पर सतत् और सच्चा था।

लेकिन फिर आया वह दौर—जब नगर पालिका का स्वर्णिम युग धीरे-धीरे काले धब्बों में तब्दील होने लगा।

2005 का वह मोड़ एक चुनाव नहीं था, वह एक युगांतकारी परिवर्तन था। निर्दलीय प्रत्याशी जगमोहन सेंगर का चुनाव जीतना एक लहर थी, पर वह लहर लातों से चलती ठेकेदारी की आंधी बन जाएगी, यह किसी ने नहीं सोचा था। उनके कार्यकाल में विकास की योजनाएं कम और ठेकेदारों की भरमार अधिक दिखाई दी। बाजारें बनीं, दुकानें बनीं, योजनाएं बनीं, पर जरूरतमंदों को नहीं मिलीं। मिला तो कुछ गिने-चुने प्रभावशाली चेहरों को कौड़ियों के भाव में सौंपा गया लाभ, और यह सिलसिला यहीं नहीं रुका।

फिर आया वह समय जब सिंध जलावर्धन योजना जैसी ऐतिहासिक परियोजना भी राजनीतिक और प्रशासकीय लापरवाही की बलि चढ़ गई। कागज़ों पर दस्तखत, हेलीकॉप्टर यात्राएं, और फिर वर्षों की देरी—यह किसी फिल्म की पटकथा नहीं, हमारे नगर की एक त्रासदी थी।

इसके बाद का हर अध्याय मानो पतन की और अधिक गहराई में उतरता चला गया। भाजपा की ऋषिका अनुराग अस्ठाना के कार्यकाल में भी घमासान और गुटबाजी ने नगर को जर्जर किया। फिर जब चुनावी मैदान में भाजपा और कांग्रेस आमने-सामने हुए, तब शिवपुरी की राजनीति ने अपना सबसे विद्रूप चेहरा दिखाया। स्वयं यशोधरा राजे सिंधिया जैसी प्रभावशाली नेत्री को यह कहना पड़ा कि “मेरी एफडी ये लोग खा गए हैं।” यह बयान राजनीति की खोखली होती नींव का ज्वलंत प्रमाण बन गया।

कांग्रेस से निर्वाचित अध्यक्ष मुन्नालाल कुशवाह का कार्यकाल न केवल नपा के इतिहास का सबसे अराजक समय था, बल्कि स्वयं अध्यक्ष का जेल जाना इस संस्थान की साख पर कालिख बनकर चिपक गया। जिनके कंधों पर शहर के विकास की जिम्मेदारी थी, वे राशन कार्ड घोटालों में लिप्त पाए गए। और तब से जैसे नगर पालिका की गाड़ी ने नैतिकता की पटरी ही छोड़ दी।

और आज, जब हम वर्तमान की ओर देखते हैं तो सामने खड़ी है—गायत्री शर्मा के नेतृत्व में कार्यरत शिवपुरी नगर पालिका। एक ऐसा दौर जहां अध्यक्ष, उनके पति, ठेकेदार, पार्षद—सभी जैसे दो गुटों में बंटकर आमने-सामने खड़े हैं। आरोपों का सिलसिला, आंतरिक कलह, असंवेदनशील निर्णय, पारदर्शिता का अभाव—यह सब इतना आम हो गया है कि अब जनता चुपचाप सब देखती है, सहती है और धीरे-धीरे विश्वास खो देती है।

जनप्रतिनिधि अब सेवा भाव से नहीं, धनार्जन की भूख से भरे हुए दिखते हैं। पहले जो पार्षद अपने सम्मान की रक्षा के लिए सोच-समझ कर निर्णय लेते थे, अब वे अपने लाभ के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। प्रशासनिक कर्मचारी, ठेकेदार, अध्यक्ष और उनके सहयोगी—सभी मिलकर नगर पालिका को ‘नरक पालिका’ बनाने में लगे हैं। यह न तो उपमा है, न आरोप, बल्कि यह उस आहत जनमानस की चीख है जो अब इस गंदगी में जीते-जीते थक चुका है।

विचार कीजिए—जो नगर पालिका कभी समाज के लिए दिशा तय करती थी, वह अब खुद दिशाहीन हो गई है। जहां से स्वच्छता की शुरुआत होती थी, वहां अब गंदगी की राजनीति फल-फूल रही है। एक वक्त था जब बच्चे अपने पिता को पार्षद या अध्यक्ष बनने पर गर्व से देखते थे, आज वही पद समाज में उपहास और लांछन का कारण बन चुका है।

क्या हमें इस पतन को ऐसे ही स्वीकार कर लेना चाहिए? क्या हम अब केवल तमाशबीन रहेंगे, जबकि हमारी आंखों के सामने से लोकतंत्र का यह आधारभूत स्तंभ रोज़ दरक रहा है? क्या हम यह नहीं समझते कि हम जिस समाज की नींव खोद रहे हैं, उसी में हमें और हमारे बच्चों को भी रहना है?

शिवपुरी की नगर पालिका आज एक आईना है—जो हमें हमारे भविष्य का चेहरा दिखा रहा है। यह हम पर है कि हम उस चेहरे को शर्म से झुका देते हैं या आत्मसम्मान से बदल डालते हैं। वक्त आ गया है, जब हमें केवल आलोचना नहीं, चेतना की आवश्यकता है।

क्योंकि अगर हम अब भी चुप रहे, तो कल इतिहास केवल यह कहेगा कि "एक नगर था, जो स्वर्णिम हुआ करता था... फिर वह राजनीति की भूख में डूब गया, और उसे बचाने वाला कोई नहीं था।"

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