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क्या शिवपुरी अब रहने लायक शहर बचा है?

 

शिवपुरी अब वो शांत, सरल और सुरक्षित शहर नहीं रहा जहाँ बच्चे गली में खेलते थे, बुज़ुर्ग सड़कों पर बेखौफ़ टहलते थे और व्यापारी बिना डर दुकानें खोलते थे। अब ये शहर चीख रहा है, सिसक रहा है… और प्रशासन खामोश है। यहाँ अब व्यवसायी बाजार में चाकुओं के हमले झेल रहे हैं, पार्षदों के परिजनों पर हमले हो रहे हैं और नगर पालिका के भीतर अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, पार्षद और ठेकेदार आपसी द्वंद्व में उलझे हैं। टेबलों के नीचे सौदे हो रहे हैं और जनता के सर पर मुसीबतें थोप दी गई हैं।

महादेव मंदिर से टीन शेड हटाई जाती है, और वहीं मस्जिद के नाम पर उगाही शुरू हो जाती है। धर्म का सौदा खुलेआम हो रहा है। अपराधी दिनदहाड़े बंदूकें लहरा रहे हैं और कोई रोकने वाला नहीं। रईसजादे नशे में धुत होकर गाड़ियाँ डिवाइडर पर चढ़ा रहे हैं और पुलिस मूकदर्शक बनी है। अपार्टमेंट्स की ऊँचाई में मुनाफा दिखा, सुरक्षा नहीं — बच्चे सीवर में गिरकर मर रहे हैं और कोई जवाबदेह नहीं।

शिवपुरी अब 'स्मैकपुरी' बनता जा रहा है। गली-गली में नशा बिक रहा है, अवैध कार बाजार सज रहे हैं, होटल अनैतिक गतिविधियों के केंद्र बन गए हैं और समाज धीरे-धीरे सड़ रहा है। लूट, बलात्कार, हत्या — अब खबर नहीं रही, रोज़मर्रा की बात हो गई है। और इस सबके बीच प्रशासन के पास वक्त है — बैनर लगाने का, इवेंट करने का, चाटुकारों को गले लगाने का।

जो पत्रकार सवाल उठाते हैं, उन्हें झूठे मुकदमों की धमकी मिलती है। जो व्यापारी टैक्स देता है, उसे अतिक्रमण का नोटिस मिलता है। और जो अपराधी है, उसे मंच पर सम्मानित किया जाता है। क्या यही प्रशासन है? क्या यही विकास है?

शहर में मगरमच्छ और चीते ही नहीं, इंसानी चेहरे में छिपे शिकारियों की भी भरमार हो चुकी है। नकली खाद्य पदार्थ खुलेआम बिक रहे हैं, पर खाद्य विभाग के अफसरों को अपनी जेबें भरने से फुर्सत नहीं। भू माफिया कानून से ऊपर हैं, और ईमानदार लोग डर में जी रहे हैं। सायबर ठगी की चपेट में आकर लोगों की ज़िंदगी भर की कमाई उड़ रही है और शिकारी की तरह घात लगाए बैठा सिस्टम सिर्फ तमाशा देख रहा है।

शिवपुरी अब शहर नहीं रहा, यह अब एक खौफ है। एक ऐसा खौफ, जो हर आम नागरिक के मन में बैठ गया है। आज कोई भी पिता अपने बच्चे को अकेले बाहर भेजते डरता है। कोई व्यापारी दुकान खोलते वक्त मन ही मन डरता है — कहीं आज उसका नंबर न आ जाए। सत्ता के नशे में चूर कुछ नेताओं के परिजन अब संघ पदाधिकारियों की दुकानों तक में घुसकर मारपीट कर रहे हैं, और सब चुप हैं। पत्रकार, अफसर, व्यापारी, आमजन — सब चुप हैं, क्योंकि सब डरे हुए हैं।

कितनी शर्म की बात है कि एक शहर जहाँ कभी साहित्य, सभ्यता और संस्कृति की बात होती थी, आज वहाँ गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार और भय का बोलबाला है। अब वक्त है — डरने का नहीं, आईना दिखाने का। सवाल पूछने का। और जवाब न मिलने पर उन्हें कुर्सी से उतारने का। शिवपुरी, अब तुम्हें खामोश रहने की नहीं, जागने की जरूरत है।

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