भारत का शिक्षा मॉडल: गुरु-शिष्य परंपरा से 21वीं सदी के वैश्विक नेतृत्व तक - डॉ. अमरीक सिंह ठाकुर
0
टिप्पणियाँ
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 'विरासत भी, विकास भी' भारत का शिक्षा मॉडल केवल भारत के लिए नहीं, बल्कि विश्व के लिए एक शिक्षा दृष्टि से वैश्विक नेतृत्व का आधार बने। जहाँ ज्ञान, विज्ञान और संस्कृति का त्रिवेणी संगम हो, कुलगुरु चिंतन शिविर 2025 केवडिया गुजरात- श्री धर्मेन्द्र प्रधान - शिक्षा मंत्री भारत सरकार, भारत एक प्राचीन ज्ञान परंपरा का वाहक रहा है, जहाँ शिक्षा केवल जीविकोपार्जन का साधन नहीं, बल्कि जीवन के उद्देश्य को समझने का माध्यम रही है। वैदिक गुरुकुल परंपरा से लेकर नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों तक, भारत ने ज्ञान, विज्ञान, कला, संस्कार और आध्यात्मिकता का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत किया है। आज आवश्यकता है एक ऐसे विश्वस्तरीय शिक्षा मॉडल की, जो 'विरासत भी, विकास भी' के सिद्धांत पर आधारित हो और जिसे वैश्विक प्रतिस्पर्धा, नैतिक नेतृत्व, तकनीकी दक्षता, और सांस्कृतिक चेतना को साथ लेकर आगे बढ़ाया जा सके। भारत एक ऐसा देश है जहाँ शिक्षा केवल ज्ञान प्राप्ति का माध्यम नहीं, बल्कि जीवन की साधना रही है। योग कोई खेल नहीं, बल्कि भारतीय ज्ञान परंपरा का अभिन्न अंग है। इसकी शीघ्र स्वीकृति का कारण इसका वैज्ञानिक आधार, शारीरिक-मानसिक संतुलन, आध्यात्मिक जागृति, वैश्विक स्वास्थ्य समाधान और जीवनशैली सुधार में प्रभावी भूमिका रही, जो इसे विश्वभर में सहज स्वीकार्यता दिलाती है।
प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालयों जैसे तक्षशिला, नालंदा आदि में अध्ययन करने वाले हजारों अंतरराष्ट्रीय छात्रों की प्रमुख आकर्षण
ज्ञान की विविधता, वैश्विक दृष्टिकोण, तर्कशक्ति, शास्त्रों की गहराई, भाषा दक्षता, अनुशासन, सांस्कृतिक समावेशिता, साधना, संवाद कौशल और गुरु-शिष्य परंपरा में गहन विश्वास।
ऋग्वेद के मंत्रों से लेकर नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों तक, भारत की शिक्षा परंपरा जीवन के चार पुरुषार्थों—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—की पूर्णता की ओर उन्मुख रही है। यह परंपरा केवल सैद्धांतिक नहीं थी, बल्कि व्यवहारिक और आत्मिक उन्नयन की एक अनूठी प्रणाली थी, जो समाज, संस्कृति और व्यक्ति के संतुलन पर आधारित थी। भारत की गुरुकुल प्रणाली में शिक्षा व्यक्ति निर्माण का माध्यम रही—जहाँ शिक्षा, दीक्षा और आत्मानुशासन का समन्वय होता था। गुरु और शिष्य का संबंध केवल ज्ञान-प्रदाता और ग्रहणकर्ता तक सीमित नहीं था, बल्कि यह एक जीवन शैली और आध्यात्मिक अनुशासन पर आधारित सामाजिक अनुबंध था। इस प्रणाली में गुरु अपने शिष्य को केवल विद्वान नहीं, बल्कि श्रेष्ठ मनुष्य और समाजोपयोगी नेतृत्वकर्ता बनाने की दिशा में कार्य करता था। इतिहास गवाह है कि प्राचीन भारत में शिक्षा को जन-जन तक पहुँचाने की परंपरा थी। नालंदा, विक्रमशिला और वल्लभी जैसे महाविद्यालय न केवल भारत के लिए बल्कि समूचे एशिया के लिए ज्ञान के केंद्र रहे। वहां तिब्बत, कोरिया, चीन, श्रीलंका और सुदूर पूर्व से विद्यार्थी आते थे। उनके पाठ्यक्रमों में धर्म, दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष, संगीत, गणित, खगोलशास्त्र, नाट्यशास्त्र, शिल्प और राज्यशास्त्र जैसे विषय समान रूप से पढ़ाए जाते थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली एक बहुविषयक और समग्र स्वरूप में कार्य कर रही थी, जो आज के बहुचर्चित बहु-विषयक शिक्षा मॉडल का पूर्वगामी स्वरूप था।
औपनिवेशिक काल में इस समृद्ध परंपरा को व्यवस्थित रूप से खंडित किया गया। अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने भारत के पारंपरिक ज्ञान को अवैज्ञानिक, अप्रासंगिक और पीछे धकेलने योग्य घोषित किया। लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति ने भारतीय विद्यार्थियों को केवल नौकरी के योग्य 'क्लर्क' बनाने का लक्ष्य रखा। इस प्रक्रिया में गुरुकुल, शिल्प प्रशिक्षण, पंचकोशीय शिक्षण और सांस्कृतिक चेतना के मूल स्तंभ बिखर गए। शिक्षा की आत्मा को पाश्चात्य दृष्टिकोण ने जकड़ लिया, जहाँ छात्र को मात्र नौकरी पाने का माध्यम बना दिया गया। आज जब भारत वैश्विक शक्ति बनने की ओर अग्रसर है, तो शिक्षा नीति का पुनरावलोकन आवश्यक है—एक ऐसी नीति जो भारत की ज्ञान-परंपरा को आत्मसात करते हुए आधुनिक आवश्यकताओं को पूरा कर सके। इस संदर्भ में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 एक स्वागतयोग्य पहल है, जिसमें भारत की सांस्कृतिक विरासत, बहुभाषिकता, मूल्य शिक्षा, और कौशल-आधारित शिक्षण को प्राथमिकता दी गई है। ‘विरासत भी, विकास भी’—यह दृष्टिकोण केवल एक नारा नहीं, बल्कि एक दार्शनिक संकल्प है, जो भारत को वैश्विक शैक्षिक नेतृत्व बनाने की क्षमता रखता है। भारत की शिक्षा पद्धति को अब पुनः वैश्विक मंच पर लाने का समय आ गया है, जहाँ यह न केवल सॉफ्ट पावर का माध्यम बने, बल्कि एक - वैश्विक शैक्षणिक मॉडल के रूप में स्थापित हो।
भारत की शिक्षा परंपरा की आत्मा है
गुरु-शिष्य संबंध यह केवल एक शैक्षणिक ढांचा नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अनुबंध रहा है, जिसने भारत के बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक ढांचे को सदियों तक आधार प्रदान किया। गुरु न केवल विद्या के स्रोत होते थे, बल्कि शिष्य के जीवन-निर्माता, पथ-प्रदर्शक और आत्मिक उत्कर्ष के सहयोगी भी होते थे। शिक्षा, संवाद, सेवा और तपस्या की त्रिवेणी में ही वह ज्ञान पुष्पित-पल्लवित होता था, जिसे आज हम भारतीय ज्ञान परंपरा के नाम से पुनर्स्थापित करना चाहते हैं। शब्द “गुरु” का अर्थ है — “गु” अर्थात अंधकार और “रु” अर्थात उसका नाश करने वाला। इस दृष्टि से गुरु वह है जो अज्ञान रूपी अंधकार से मुक्ति दिलाकर आत्मबोध की ओर ले जाता है। प्राचीन भारत में गुरुकुल प्रणाली में विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निवास करते हुए न केवल विषय-ज्ञान अर्जित करता था, बल्कि संयम, ब्रह्मचर्य, तप और अनुशासन का भी अभ्यास करता था। तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों में भी यह प्रणाली जीवित थी, जहाँ गुरु न केवल शास्त्रों का शिक्षण करते थे, बल्कि व्यक्तिगत विकास, तर्क, वाद, विनय और नीति का पाठ भी पढ़ाते थे। हर विषय में संवाद की परंपरा (जैसे उपनिषदों में प्रश्नोत्तर शैली) इस प्रणाली की बौद्धिक समृद्धि को दर्शाती है। भारतीय परंपरा में ज्ञान को चार स्तरों पर समझा गया, शब्दज्ञान (सुनना/पढ़ना), बुद्धिगम्य ज्ञान (विवेचना), अनुभवज्ञान (व्यावहारिक प्रयोग), आत्मज्ञान (आंतरिक बोध) गुरु का उद्देश्य था शिष्य को केवल पाठ्यज्ञान नहीं, बल्कि आत्मबोध तक पहुँचाना। यहीं से निकलती है शिक्षा की वह धारा, जिसे "विद्या ददाति विनयम्" कहा गया — विद्या से विनय प्राप्त होता है, और विनय से पात्रता।
शिक्षा और संस्कृति का समन्वय:,गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष — ये चतुर्वर्ग शिक्षा के मूल उद्देश्य थे। एक छात्र केवल नौकरी या व्यवसाय के लिए तैयार नहीं होता था, बल्कि एक संपूर्ण पुरुषार्थ-निष्ठ व्यक्ति के रूप में विकसित होता था, जो समाज में संतुलन और न्याय का प्रवाह करता। ऋग्वैदिक काल में शिक्षा का उद्देश्य था ऋतम् की प्राप्ति — यानी ब्रह्मांडीय और नैतिक संतुलन। यही संतुलन भारतीय जीवन शैली की आधारशिला रही है। तंत्र, योग, दर्शन, औषधि, संगीत, गणित, खगोल, शिल्प, नाट्य — सब कुछ ‘सांस्कृतिक शिक्षा’ के अंतर्गत आता था। गुरु की प्रतिष्ठा और निष्ठा:, भारत के महान शिक्षकों में व्यास, वशिष्ठ, कणाद, पतंजलि, भास्कराचार्य, नागार्जुन, चाणक्य से लेकर आदि शंकराचार्य तक — सभी ने ‘गुरु’ के कर्तव्यों को आत्मसात कर शिक्षा के लोकव्यापीकरण की दिशा में योगदान दिया। यह कोई संयोग नहीं कि चाणक्य जैसे आचार्य ने एक साधारण बालक चंद्रगुप्त को प्रशिक्षित कर एक महान साम्राज्य का निर्माता बनाया, और शिक्षा को राज्य व्यवस्था से जोड़ दिया।
आज की आवश्यकता
गुरु-शिष्य संबंध की पुनःस्थापना, वर्तमान शैक्षिक प्रणाली में छात्र और शिक्षक का संबंध अत्यंत औपचारिक हो गया है। ज्ञान केवल परीक्षा और अंकों तक सीमित हो गया है। ऐसे में भारत की परंपरा से प्रेरणा लेकर हमें शिक्षा में संवाद, सेवा, और समर्पण का समावेश करना होगा। एक ऐसा संबंध पुनर्स्थापित करना होगा, जिसमें शिक्षक को समाज का आध्यात्मिक आर्किटेक्ट माना जाए — न केवल पाठ्य विषय का विशेषज्ञ, बल्कि राष्ट्र का संस्कारदाता। नई शिक्षा नीति में गुरु की भूमिका, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में “शिक्षक को राष्ट्रनिर्माता” मानने की बात दोहराई गई है। शिक्षक को पुनः “गुरु” की भूमिका में लाने के लिए भारतीय दर्शन, नैतिकता, संस्कृत, वेदांत, जीवन कौशल और सामुदायिक नेतृत्व का प्रशिक्षण आवश्यक है। पंचकोश आधारित शिक्षा और 21वीं सदी के कौशल का समन्वय, पंचकोशीय शिक्षा का दर्शन: भारतीय उपनिषदों में वर्णित पंचकोश सिद्धांत (तैत्तिरीय उपनिषद) मानव अस्तित्व को पाँच स्तरों पर विभाजित करता है —अन्नमय कोश (शारीरिक शरीर), प्राणमय कोश (ऊर्जा/जीवन शक्ति), मनोमय कोश (मन, भावना), विज्ञानमय कोश (बुद्धि, विवेक), आनंदमय कोश (आत्मिक प्रसन्नता, चेतना), शिक्षा यदि केवल ज्ञान-आधारित हो और इन पाँच स्तरों को संबोधित न करे तो वह व्यक्ति को केवल मशीन का पुर्जा बना सकती है, एक पूर्ण मानव नहीं। इसलिए 'विरासत भी, विकास भी' के समन्वित शिक्षा मॉडल में पंचकोशीय विकास को केंद्र में रखना अनिवार्य है। पंचकोशीय दृष्टिकोण शिक्षा को केवल अकादमिक सफलता तक सीमित नहीं रखता, बल्कि जीवन के हर आयाम में संतुलन स्थापित करता है। यह मॉडल शिक्षा को परिवर्तनकारी और पारलौकिक बनाता है। 21वीं सदी के कौशल और भारतीय दृष्टिकोण का समन्वय: आज के वैश्विक प्रतिस्पर्धी वातावरण में छात्र को केवल तकनीकी दक्षता नहीं, बल्कि संस्कृति आधारित नेतृत्व और सामाजिक ज़िम्मेदारी का भी वहन करना चाहिए। इसलिए भारतीय मॉडल में ‘आधुनिक कौशल + सांस्कृतिक चेतना’ का समन्वय किया जा रहा है। आधुनिक कौशल जिन पर बल देना आवश्यक है: आलोचनात्मक सोच और समस्या समाधान, रचनात्मकता और नवाचार, सहयोग और संचार, डिजिटल साक्षरता, डिज़ाइन सोच, भावनात्मक बुद्धिमत्ता, उद्यमिता, अब प्रश्न यह है कि इन कौशलों को भारतीय शिक्षा प्रणाली कैसे समाहित करे?
भारत-प्रेरित समाधान:, योग और ध्यान:
ध्यान और योग छात्र को मनोमय और प्राणमय कोश को विकसित करने में सक्षम बनाते हैं, जो अंततः ध्यान, लचीलापन, आत्म-जागरूकता और नेतृत्व गुण को प्रोत्साहित करता है। संवादमूलक शिक्षण उपनिषदों की प्रश्नोत्तर पद्धति आज के ‘सुकराती पद्धति’ और ‘पूछताछ-आधारित शिक्षा’ की जड़ है। यह नवाचार और विवेचनात्मक सोच को जन्म देती है।
लोकाचार और नीति-आधारित लर्निंग
नीति शास्त्र (Ethics), पंचतंत्र, हितोपदेश जैसे भारतीय ग्रंथ छात्र को नैतिक निर्णय लेने, टीम वर्क, सहयोग, और समाधान-केंद्रित व्यवहार सिखाते हैं। स्थान आधारित शिक्षा
भारत के ग्रामों, नदियों, मंदिरों, किलों, हस्तशिल्प, कृषि-पद्धतियों को ‘जीवंत कक्षा’ के रूप में उपयोग किया जा सकता है — जिससे परियोजना आधारित अध्ययन और लोक-ज्ञान का समन्वय हो। संस्कृति-सम्मत डिज़ाइन थिंकिंग: प्राचीन स्थापत्य (वास्तु), पर्यावरण ज्ञान, जल प्रबंधन प्रणाली जैसे क्षेत्रों में ‘धर्म के साथ डिजाइन सोच’ का समावेश एक नया वैश्विक मॉडल बना सकता है। मूल्य और मनोविज्ञान का समन्वय भारत की शिक्षा को पुनः मनोविज्ञान आधारित बनाना होगा — जहाँ बुद्धि के साथ संवेदना का विकास हो। भावना (Bhava), रग (Rasa), और अंतर्दृष्टि (Buddhi) का यह समन्वय शिक्षार्थी को वैश्विक नागरिक और सांस्कृतिक उत्तराधिकारी दोनों बनाता है। पाठ्यक्रम, संरचना और मूल्यांकन प्रणाली का नवाचार भारत केंद्रित वैश्विक दृष्टिकोण आज की शिक्षा में पाठ्यक्रम केवल एक संकलन नहीं होना चाहिए, बल्कि यह एक ज्ञान-यात्रा होनी चाहिए जो छात्र को “स्थानीय से वैश्विक”, “सूचना से चेतना” और “नौकरी से जीवन दृष्टि” तक ले जाए। भारतीय शिक्षा मॉडल में यह मान्यता रही है कि शिक्षा को मानव जीवन के चतुर्वर्ग — धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के संतुलन पर आधारित होना चाहिए। भारत – विश्व को शिक्षित करने की दिशा में ‘विरासत भी, विकास भी’ का यह मॉडल केवल भारत की शिक्षा का पुनरुद्धार नहीं है, यह भारत की आत्मा का जागरण है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो ज्ञान, विज्ञान और संस्कृति को एक त्रिवेणी संगम में बदल देती है। यह केवल “Bharat for Bharat” नहीं है, बल्कि “Bharat for the World” है – जहां भारत अपनी प्राचीनतम परंपराओं से आधुनिकतम समाधान प्रस्तुत करता है। आज का भारत आत्मनिर्भर बनने की ओर नहीं, अपितु आत्मसंपन्न और आत्मप्रकाशित भारत बनने की ओर अग्रसर है – और इसका आधार यही शिक्षा मॉडल है। वैश्विक समावेशिता यह शिक्षा मॉडल न केवल भारत में लागू हो, बल्कि वैश्विक मंच पर भारत की भूमिका को मजबूत करे। अंतरराष्ट्रीय छात्र आदान-प्रदान, भारत अध्ययन केंद्रों की स्थापना, और विश्वभारती जैसे मॉडल का पुनरुद्धार इस दिशा में ठोस कदम होंगे।
डॉ. अमरीक सिंह ठाकुर
सहायक प्रोफेसर
हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय।
Tags :
अमरीक विचार
एक टिप्पणी भेजें