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क्या शिवपुरी में नपा अध्यक्ष को हटाने की साजिश ढाबे से रची जा चुकी थी?

 

शिवपुरी की राजनीति में इन दिनों एक ऐसा घटनाक्रम चर्चा का विषय बना हुआ है, जिसने न केवल जनमानस को चौंकाया है, बल्कि कई सवालों की भूचाल भी खड़ी कर दी है। घटनाएं जिस क्रम में घटीं, और जिन किरदारों ने उसमें हिस्सा लिया — वो सब मिलकर यह संकेत दे रहे हैं कि यह महज़ एक संयोग नहीं था, बल्कि कोई पूर्वनियोजित पटकथा थी, जिसे बड़ी सफाई से अंजाम तक पहुँचाया गया।

सबसे पहले बात करते हैं उस पल की, जब नपा अध्यक्ष की गाड़ी चौधरी ढाबे पर भोजन के लिए रुकी। सूत्रों के अनुसार, अध्यक्ष स्वयं वहां भोजन करने को इच्छुक थीं। गाड़ी भी रुक गई थी। ढाबा तैयार था, और माहौल सामान्य था। लेकिन तभी, अचानक ठेकेदार का प्रवेश होता है और वह अध्यक्ष को बलराम ढाबा चलने का आग्रह करता है। क्या यह सिर्फ आतिथ्यभाव था या फिर इसके पीछे कोई छुपा हुआ उद्देश्य? क्या ठेकेदार को किसी विशेष घटना के लिए बलराम ढाबे को ही मंच बनाना था? ठेकेदार की भूमिका संदेह के घेरे में है। वह अकेले ऐसा निर्णय क्यों लेता है? क्या वह स्वयं इतना शक्तिशाली हो गया है कि नगर पालिका अध्यक्ष की मंशा को भी बदल सके? या फिर उसे किसी और ने निर्देशित किया था? और यह निर्देश कहीं ऊपर से तो नहीं आया था?

इसी दौरान एक और रोचक तथ्य सामने आता है। कुछ लोग जो ग्वालियर में सिंधिया जी से मिलने गए थे, वे अचानक से शिवपुरी लौट आते हैं — वो भी उस समय जब ग्वालियर स्टेडियम में क्रिकेट मैच हो रहा था और उन्हें स्वयं सिंधिया जी ने पास दिए थे। सवाल ये उठता है कि जो लोग सिंधिया से मिलने की योजना बनाकर गए थे, और उनके निर्देश पर क्रिकेट मैच देखने विशेष पास पा कर मैच देख रहे थे वो अचानक से मैच छोड़ कर घटना स्थल पर कैसे प्रकट हो गए? क्या इनकी भूमिका सिर्फ दर्शक की थी, या फिर ये भी उस ‘खेल’ का हिस्सा थे जिसकी पटकथा पहले ही लिख दी गई थी?

घटना से कुछ समय पूर्व नपा उपाध्यक्ष के पति का बलराम ढाबे से निकल जाना भी सवालों के घेरे में है। यह सब कुछ अचानक हुआ, तो उन्हें कैसे पहले से खबर हो गई? क्या उन्हें किसी तरह का संकेत मिल गया था? या वे पहले से जानते थे कि वहां कुछ होने वाला है?

इसी दौरान कुछ प्रत्यक्षदर्शियों ने एक और रहस्योद्घाटन किया — कि नपा उपाध्यक्ष का पुत्र और ठेकेदार के बीच कुछ फुसफुसाहट जैसी बातें होती देखी गईं। क्या ये बातें महज़ घरेलू विषय पर थीं, या फिर किसी ‘प्लान बी’ का आखिरी हिस्सा? क्या उस फुसफुसाहट के बाद ही घटनाक्रम ने मोड़ लिया? क्या किसी को हटाना, डराना या दबाना मकसद था?

और फिर, सबसे अहम सवाल — क्या नपा अध्यक्ष के पति घटना स्थल पर उपस्थित थे? यदि हां, तो क्या वे एक सामान्य नागरिक की भूमिका में थे या फिर ??

अब नजर डालते हैं उन नामों पर, जिन्हें लोग 'समाजदार', 'समझदार' और 'ठेकेदार' की त्रयी कहकर पुकार रहे हैं। क्या ये वही लोग हैं जो शहर की सत्ता को नचाने का हुनर रखते हैं? क्या इनकी पहुंच प्रशासन, राजनीति और धनबल — तीनों तक है? क्या ये लोग ही घटना के असली सूत्रधार हैं, जो मंच के सामने शांत और शालीन दिखते हैं लेकिन पर्दे के पीछे नाटक रचते हैं?

क्या इन सारे सवालों का एक ही संभावित उत्तर उभरता है कि यह सब कुछ एक सुनियोजित षड्यंत्र था ?

ढाबा महज़ एक स्थान नहीं, बल्कि राजनीति का 'बैटल ग्राउंड' बना जहा थालियों में परोसी जा रही दाल-बाटी के साथ-साथ, साजिश की खिचड़ी भी पकाई जा रही थी ? क्या मेज़ पर दिखने वाली मुस्कानें धोखे की परतें थीं ? 


शिवपुरी की जनता के सामने अब सिर्फ एक सवाल है — क्या हम इस साजिश को पहचानने में देरी कर चुके हैं? या अब भी समय है पर्दे के पीछे के खिलाड़ियों को बेनकाब करने का?


जनता को जानने का अधिकार है। लोकतंत्र की बुनियाद सवालों पर टिकी है। और यह लेख इन्हीं सवालों की दस्तक है — किसी उत्तर की प्रतीक्षा में।


शहर पूछ रहा है... क्या ये राजनीति का खेल है, या खेल में राजनीति घुस आई है?

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