OTT की 'Moderate Language' असल में कितना जहरीला है, जानिए सच्चाई!
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भारत को जब सांस्कृतिक राष्ट्र कहा जाता है, तो उसका आधार उसकी सनातन परंपरा, संस्कार, और भाषा की मर्यादा होती है। लेकिन आज के डिजिटल युग में जब OTT प्लेटफॉर्म और सोशल मीडिया की पहुँच हर घर में हो चुकी है, तब यह सवाल उठता है — क्या आधुनिक मनोरंजन हमारे संस्कृतिक मूल्यों को पीछे छोड़ता जा रहा है?
OTT प्लेटफॉर्म्स आज न केवल मनोरंजन का साधन बने हैं, बल्कि उन्होंने नई पीढ़ी के विचारों और भाषा को भी गहराई से प्रभावित किया है। किसी भी वेब सीरीज को देखने से पहले एक डिस्क्लेमर आता है — "Moderate Language", यानी संयमित भाषा का प्रयोग। लेकिन जब हम उस कंटेंट को देखते हैं, तो पता चलता है कि उसमें गालियाँ, अशिष्ट भाषा, और कई बार धार्मिक या सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ने वाले संवाद शामिल होते हैं।
यहाँ प्रश्न उठता है — क्या यह सच में संयमित भाषा है? और यदि है, तो भारतीय संस्कृति में भाषा की मर्यादा का क्या स्थान बचा?
भारत की सनातन संस्कृति हमेशा से वाणी की शुद्धता पर बल देती आई है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है — "वाक्यं मधुरं सत्यं च"। अर्थात वाणी मधुर हो, परंतु सत्य हो। लेकिन आज के OTT कंटेंट में, जहां गालियों को यथार्थवाद (Realism) कहा जा रहा है, वहां असभ्यता को सामान्य बना दिया गया है।
दूसरी ओर, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे Facebook, Twitter (X), Instagram और WhatsApp पर भी यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। लोग बिना संकोच के आपत्तिजनक भाषा, निजी हमला, धार्मिक अपमान जैसे पोस्ट साझा कर रहे हैं। कुछ मामलों में यह साइबर अपराध की श्रेणी में भी आता है, लेकिन अधिकांश लोग इसे 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' मानकर बच निकलते हैं।
इस दोहरे मापदंड से एक सांस्कृतिक विरोधाभास उत्पन्न हो रहा है। एक तरफ सरकार और समाज संस्कारों की बात करते हैं, दूसरी ओर उसी समाज में डिजिटल माध्यमों के जरिए संस्कारों का ह्रास हो रहा है।
OTT प्लेटफॉर्म्स को “18+” टैग लगाकर छूट दे दी जाती है कि वे गालियाँ भी परोसें, नग्नता भी दिखाएँ और सांस्कृतिक मर्यादा को तोड़ें — जबकि सोशल मीडिया पर एक व्यक्ति यदि किसी के खिलाफ कुछ कड़वा लिख दे तो उस पर मुकदमा हो सकता है। यह स्पष्ट करता है कि कानून और नैतिकता के बीच एक गहरा अंतर बन चुका है।
आज की युवापीढ़ी, जो बचपन से ही मोबाइल और इंटरनेट की दुनिया में पली-बढ़ी है, उसकी भाषा, विचार, और संवेदनशीलता अब OTT कंटेंट और सोशल मीडिया से प्रभावित हो रही है। उन्हें यह बताया नहीं जा रहा कि क्या मर्यादा है, क्या अशोभनीय है — बल्कि उन्हें यही सिखाया जा रहा है कि जो चल रहा है वही 'नॉर्मल' है।
यह स्थिति सिर्फ सांस्कृतिक दृष्टि से नहीं, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य, पारिवारिक मूल्यों और समाजिक शालीनता के लिए भी खतरा बनती जा रही है।
इसलिए अब आवश्यकता है कि हम डिजिटल युग के इस 'मनोरंजन' को पुनः परिभाषित करें। हमें OTT पर वेब सीरीज की समीक्षा करते समय केवल मनोरंजन नहीं, उसके प्रभावों पर भी ध्यान देना होगा। सोशल मीडिया पर भाषा के चयन को गंभीरता से लेना होगा।
जरूरत है ऐसे स्वदेशी डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की, जो केवल अश्लीलता और गाली-गलौज पर नहीं, बल्कि भारतीय मूल्यों, संस्कृति और साहित्य पर आधारित कंटेंट प्रस्तुत करें। हमें संस्कृति आधारित वैकल्पिक मनोरंजन को प्रोत्साहित करना होगा।
अगर हम चाहते हैं कि भारत आने वाली पीढ़ियों में भी "संस्कारों की भूमि" के रूप में जाना जाए, तो हमें आज से ही अपने डिजिटल व्यवहार में परिवर्तन लाना होगा।
शब्दों की शक्ति से ही समाज बनता और बिगड़ता है। इसलिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम अपनी भाषा, अपने विचार और अपने मनोरंजन के माध्यमों में शुद्धता, मर्यादा और संवेदनशीलता बनाए रखें।
OTT और सोशल मीडिया के माध्यमों को भी सख्त नियमों, जवाबदेही और नैतिक प्रशिक्षण की जरूरत है। अगर आज हमने यह दिशा न बदली, तो आने वाले वर्षों में हम एक ऐसी पीढ़ी को देखेंगे जो तकनीकी रूप से दक्ष होगी, लेकिन संस्कारहीनता और संवेदनहीनता के दलदल में डूबी होगी।
अंत में यही कहूँगा कि—
विकास जरूरी है, लेकिन वह विकास नहीं जो संस्कृति का विनाश कर दे।
डिजिटल हो, लेकिन दिशाहीन न हो। आधुनिक हो, लेकिन अशोभनीय नहीं।
भारत की आत्मा को बचाने के लिए अब मोबाइल स्क्रीन से ही क्रांति करनी होगी — एक संस्कारी, संतुलित और शालीन क्रांति।
डिजिटल हो, लेकिन दिशाहीन न हो। आधुनिक हो, लेकिन अशोभनीय नहीं।
भारत की आत्मा को बचाने के लिए अब मोबाइल स्क्रीन से ही क्रांति करनी होगी — एक संस्कारी, संतुलित और शालीन क्रांति।
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राष्ट्रनीति
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