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पत्रकार या जालसाज़? गले में लटकती आईडी या लटकती पत्रकारिता की लाश?

 

कभी पत्रकारिता को देखकर लोग सिर झुकाकर आदर से नमस्कार करते थे। गांव का बुज़ुर्ग कहता था – “ये कलम वाला आदमी है, सच लिखेगा, न्याय की बात करेगा।” लेकिन अब हालात ये हैं कि जब कोई गले में आईडी लटकाए, माइक थामे, मोबाइल घुमाता हुआ नजर आ जाए तो लोग संदेह की नजरों से देखने लगते हैं – "ये पत्रकार है या वसूली वाला?" यकीन मानिए, यह सवाल हवा में नहीं लटकता, बल्कि पत्रकारिता की नींव हिलाने वालों की करतूतों से जन्मा है।

इन तथाकथित पत्रकारों की एंट्री देखकर लगता है जैसे कोई सीरियल का खलनायक किसी मिशन पर निकला हो। ये कहीं भी घुस सकते हैं – सरकारी दफ्तरों में, अस्पतालों में, स्कूलों में, व्यापारिक संस्थानों में, शादी समारोहों में, मंदिरों और मंचों तक में। और घुसते ही उनका कैमरा चालू होता है, आवाज़ तेज़ हो जाती है, और उनकी सबसे बड़ी योग्यता शुरू होती है – धौंस। हां, वो ही धौंस जो “मैं पत्रकार हूं” बोलते ही आ जाती है।

इन लोगों का नेटवर्क अद्भुत है। किसी गली से लेकर राजधानी तक, ऐसे गिरोह बन चुके हैं जो पत्रकारिता के नाम पर व्यापार चला रहे हैं। इनका काम है—धमकाओ, वीडियो बनाओ, क्लिप वायरल करने की धमकी दो और फिर पैसे खींचो। कुछ मामलों में तो पहले से स्क्रिप्ट तैयार होती है—“आपको फंसाना है या बचाना?” फिर वही तय करता है इनका किराया।

ज्यादातर मामलों में इनका कोई पंजीयन नहीं होता, कोई पहचान नहीं होती, लेकिन जनसंपर्क विभाग के कार्यक्रमों में ऐसे घुस जाते हैं जैसे किसी मंत्री के खास मेहमान हों। आयोजकों को लगता है कि भीड़ बढ़ेगी, कवरेज मिलेगा, फोटो छपेगा, लेकिन होता ये है कि असली पत्रकार पीछे धकेल दिए जाते हैं और ये नकलची फ्रंट में आकर तमाशा करने लगते हैं।

इनका अंदाज कुछ यूं होता है कि वरिष्ठ पत्रकार भी असहज हो जाएं। न भाषा की समझ, न समाज की पहचान, न संवेदना, न तथ्यों का ज्ञान… लेकिन फिर भी यह लोग एक मुद्रा में खड़े होकर ऐसे बोलते हैं जैसे देश की सारी सच्चाई इनकी जेब में है। और यदि किसी वरिष्ठ पत्रकार ने इनकी आलोचना कर दी, तो बस — “साहब जलते हैं हमसे।”

इनके लेखन की क्षमता इतनी है कि अगर इन्हें दो लाइन बिना कॉपी-पेस्ट के लिखने को कहा जाए, तो माथे पर पसीना आ जाता है। लेकिन सेल्फी पोस्ट करने की कला में ये महान है। “आज कलेक्टर साहब से मुलाकात” या “एसपी ऑफिस में विशेष कवरेज” जैसे जुमलों के साथ फोटो डालते हैं और फिर जनता को भ्रमित करते हैं कि देखो, ये तो सत्ता के बहुत नज़दीक है। जबकि सच्चाई ये होती है कि किसी स्टाफ ने अंदर जाने दिया या किसी कार्यक्रम में भीड़ के साथ घुस आए।

और अब बात चाटुकारिता की—इस क्षेत्र में तो यह लोग गुरु कहलाते हैं। इनकी जुबान पर अधिकारियों और नेताओं के लिए ऐसा घी-शक्कर घुला होता है कि सामने वाला भ्रम में आ जाए कि ये पत्रकार है या प्रचारक? और फिर उस चाटुकारिता की बदौलत ये लोग योजनाओं के ठेके, विज्ञापन, फ्री सेवाएं, या फिर किसी केस को दबाने की कीमत वसूलते हैं। इनके फोन में आपको वो नंबर मिलेंगे जो किसी असली पत्रकार को महीनों तक इंतज़ार के बाद भी न मिलें।

अब आप सोचिए, जब पत्रकारिता इस हद तक बिकाऊ हो जाए, जब असली पत्रकार किनारे कर दिए जाएं, जब झूठी आईडी, माइक और कैमरे के बल पर कोई भी गाड़ी पर “PRESS” का बोर्ड लगाकर घूमे और लोगों को धमकाए, तो क्या ये पेशा जिंदा रह गया?

दुर्भाग्य की बात यह है कि समाज भी अब इन्हें पत्रकार मानने लगा है—क्यों? क्योंकि इनके जरिए अपना प्रचार करवाया जा सकता है, किसी दुश्मन के खिलाफ खबर चलवाई जा सकती है, और अपने हित साधे जा सकते हैं। जब पत्रकारिता ‘सेवा’ से ‘सेटिंग’ बन जाए, तब सत्य और तथ्य दो फुट पीछे खड़े हो जाते हैं।

सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि शासन-प्रशासन भी इन पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं करता। कई बार तो वही अधिकारी इनसे घिरे होते हैं, जो इनके द्वारा की गई चाटुकारिता से खुद को “नायक” घोषित करा चुके होते हैं। जब अपराधी और पीड़ित की पहचान ही घुल-मिल जाए, तो न्याय कैसे मिलेगा?

तो अब सवाल उठता है कि क्या आज का पत्रकार वो है जो सच्चाई की खोज करता है, या वो जो गूगल से कुछ लाइन चुरा कर, वीडियो एडिट कर, अपना 'शो' चला रहा है? क्या पत्रकार अब समाज का सजग प्रहरी है या कैमरा लेकर घूमता एक आधुनिक भिक्षु जो ‘कवरेज दो नहीं तो उजागर करेंगे’ की धमकी देता है?

अगर यही पत्रकारिता है, तो उस कलम का क्या, जिसने आपातकाल में बोलने की कीमत चुकाई थी? उस शख्स का क्या, जिसने पुलिस की लाठी खाई, सत्ता की धमकी झेली, लेकिन खबर लिखी? क्या वो अब पीछे रह गया, और सामने सिर्फ ऐसे चेहरे हैं जिनकी पहचान फर्जी, भाषा नकली, उद्देश्य केवल उगाही?

अब जरूरत है कि पत्रकारिता खुद से पूछे—क्या मैं अब भी चौथा स्तंभ हूं, या गले में लटकी एक लाचार पहचान? और समाज को भी पूछना चाहिए—जो गले में आईडी लटकाए दिख रहा है, क्या वो सचमुच पत्रकार है? या पत्रकारिता के शव पर खड़ा, तमाशा कर रहा एक गिरोहबाज़? क्योंकि अगर इस प्रश्न का उत्तर नहीं ढूंढा गया, तो एक दिन यही फर्जी पत्रकार लोग तय करेंगे कि कल की हेडलाइन क्या होगी… और उस दिन सच मर जाएगा… और दफनाया जाएगा आईडी कार्ड की माला में लिपटे हुए।

शायद अब वक्त आ गया है जब समाज को, असली पत्रकारों को और खुद पत्रकारिता को इस गिरोहबाज गिरोह से सवाल करना होगा—तुम पत्रकार हो… या पत्रकारिता के शव पर खड़े घाघ व्यापारी? और जब सवाल गूंजेगा… तो शायद उत्तर भी मिलेगा…या शायद एक और 'वीडियो' आ जाएगा…ब्रेकिंग न्यूज़: हमारे बारे में खबर क्यों चलाई गई?

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