क्या भाजपा अब भी भाजपा है? – दिवाकर की दुनाली से
0
टिप्पणियाँ
जिस भाजपा को श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने राष्ट्र के वैचारिक विकल्प के रूप में खड़ा किया, जिसे दीनदयाल उपाध्याय ने ‘एकात्म मानववाद’ से विचारों की रीढ़ दी, जिसे अटल बिहारी वाजपेयी ने गरिमा और संवाद से सजाया, लालकृष्ण आडवाणी ने विचारों की यात्रा में तब्दील किया और जिसे कुशाभाऊ ठाकरे ने ज़मीन से जोड़ा – क्या वही भाजपा आज भी शेष है?
भारतीय जनता पार्टी एक विचार थी, एक आंदोलन था, एक संकल्प था – राष्ट्र सर्वोपरि का, संगठन पहले का और कार्यकर्ता के सम्मान का। लेकिन आज की भाजपा को देखकर निष्ठावान कार्यकर्ताओं के मन में एक टीस, एक चिंता और कहीं न कहीं एक असहाय मौन है, जो लगातार पूछ रहा है – क्या हम अब भी उसी दल के अंग हैं या किसी सत्ता-प्रेरित मशीन का छोटा पुर्जा मात्र?
पार्टी में अब विचारधारा की नहीं, समीकरणों की चर्चा होती है। कार्यकर्ता अब नीति निर्धारण का हिस्सा नहीं, भीड़ भरने का साधन बन चुके हैं। जिन लोगों ने कभी पार्टी का झंडा नहीं उठाया, वे आज निर्णय की कुर्सियों पर बैठे हैं। दूसरी पार्टियों से आए चेहरे, जिनकी सोच, शैली और संस्कार भाजपा की आत्मा से मेल नहीं खाते, आज वही पार्टी का स्वरूप तय कर रहे हैं।
वाजपेयी जी कहते थे – दल का चरित्र कार्यकर्ता से बनता है, न कि बाहरी चेहरों से। मगर आज पार्टी की आत्मा में वही चेहरों की भीड़ सबसे भारी हो गई है जो न भाजपा के इतिहास को जानते हैं, न उसकी पीड़ा को, और न ही उस संकल्प को जिसमें एक विचारधारा के लिए कार्यकर्ताओं ने वर्षों तप किया।
संघ और भाजपा के बीच की वैचारिक कड़ी, जो कभी अटूट थी, अब रस्म बन गई है। स्वयंसेवकों की बात अब कोई नहीं सुनता, पुराने संगठनकर्ता 'पुराने ज़माने की सोच' कहकर अलग कर दिए जाते हैं। और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है कि अब कार्यकर्ता की जगह सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर और पीआर एजेंसियों ने ले ली है – जिन्हें न जमीन की समझ है, न ही जनता की धड़कन।
अब भाजपा में कई जगह अनुभव की जगह प्रभाव ने ले ली है, और तप की जगह तंत्र ने। जो कार्यकर्ता वर्षों से सेवा कर रहा है, वह कोने में बैठा है, और जो अभी पाला बदलकर आया है, वह पोस्टर में सबसे आगे है। यह केवल राजनीतिक समस्या नहीं, यह वैचारिक विचलन है।
और जब यह सब होता है, तब जनता सवाल पूछती है – क्या यह वही भाजपा है, जिसके लिए मुखर्जी ने जीवन दिया? क्या यह वही संगठन है, जिसकी आत्मा में उपाध्याय का एकात्म मानववाद सांस लेता था? क्या यह वही विचारधारा है, जिसके लिए वाजपेयी ने लोकसभा में हार स्वीकार कर भी गरिमा नहीं छोड़ी?
इन तमाम चिंताओं के बीच एक तथ्य निर्विवाद है – नरेंद्र मोदी का नेतृत्व आज वैश्विक स्तर पर भारत की प्रतिष्ठा का आधार बन चुका है। उन्होंने भारत को वह आत्मविश्वास, साहस और वैश्विक सम्मान दिलाया है जिसकी कल्पना भी कभी कठिन थी। उनकी राष्ट्रभक्ति पर कोई संदेह कर ही नहीं सकता – न नैतिक रूप से, न वैचारिक रूप से।
लेकिन एक बड़ा और जरूरी सवाल वहीं खड़ा है – क्या मोदी के नेतृत्व की रोशनी में नीचे तक की कुव्यवस्था को अनदेखा किया जाना चाहिए? क्या यह स्वीकार्य है कि ‘मोदी हैं तो सब ठीक है’ के नाम पर संगठन और प्रशासन की अनियमितताएं दीमक की तरह पार्टी की जड़ों को खोखला करती रहें?
क्या मोदी के मंत्रियों, विधायकों, सांसदों, जिलाध्यक्षों और उनके आगे-पीछे घूमते सलाहकारों को भी उसी राष्ट्रवाद की परिभाषा आत्मसात नहीं करनी चाहिए, जिसके लिए मोदी जी जीते हैं? क्या यह जरूरी नहीं कि प्रधानमंत्री की तरह सभी नेता कार्यकर्ता से संवाद करें, जनता के प्रति विनम्र हों और विचारधारा के प्रति ईमानदार रहें?
भाजपा को फिर से भाजपा बनाने के लिए जरूरी है कि विचारधारा को पोस्टर से निकालकर फिर से जीवन में उतारा जाए। कार्यकर्ता को फिर से गरिमा दी जाए। पुराने तपस्वियों को फिर से मंच दिया जाए। संगठन को फिर से कार्यकर्ता आधारित बनाया जाए, न कि पीआर एजेंसी आधारित।
यदि यह नहीं हुआ, तो भाजपा भी वही रास्ता चल पड़ेगी जो कांग्रेस चल चुकी है – सत्ता की चकाचौंध में विचार खो देने का, कार्यकर्ता से कट जाने का, और अंततः जनता के दिल से उतर जाने का।
यह चेतावनी नहीं, प्रेम से भरी पुकार है – संभलिए। लौटिए। पहचानिए अपनी जड़ों को। राष्ट्रवाद कोई नारा नहीं, जीवनशैली है। और वह जीवनशैली केवल ऊपर नहीं, नीचे तक दिखाई देनी चाहिए। वरना कल का इतिहास यही लिखेगा – भाजपा भी एक दिन कांग्रेस बन गई, और कार्यकर्ता फिर से दिशाहीन हो गया।
Tags :
दिवाकर की दुनाली से
एक टिप्पणी भेजें