चार लीटर पेंट और एक लाख की रंगीन लूट: मध्यप्रदेश में अफसरशाही का कमाल
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चार लीटर पेंट से कोई कितना बड़ा काम हो सकता है? एक दीवार? एक कमरा? या फिर पूरे मोहल्ले को सपने बेचने की एक सरकारी कोशिश? मध्यप्रदेश की एक चौंकाने वाली फाइल में दर्ज है – 4 लीटर पेंट के लिए 168 मजदूर, 65 मिस्त्री और ₹1,06,984 का बिल। इतना ही नहीं, जिले के जिम्मेदार अधिकारी, डीईओ साहब ने इस खर्च को आंख मूंदकर मंजूरी भी दे दी।
यह कोई मजाक नहीं, बल्कि सरकारी तंत्र की वह हकीकत है, जो आम जनता की आंखों में धूल नहीं, अब रंग डाल रही है। पेंट का काम तो नाम मात्र का था, असली रंग तो उन कागजों पर चढ़ाया गया, जिन पर हस्ताक्षर होते ही भ्रष्टाचार की एक नई परत जुड़ गई। अफसरों के दस्तखत अब योजनाओं पर नहीं, घोटालों पर होते हैं – और सिस्टम इसे ही “प्रक्रिया” कहता है।
मजदूरों की संख्या देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो किसी विशालकाय पुल की मरम्मत चल रही हो, लेकिन असल में रंगा गया महज कुछ वर्गफुट। आंकड़े इतने बेमेल हैं कि अब शक नहीं, सीधा यकीन होता है कि योजना तो पेंट की थी, पर उद्देश्य जेबें भरने का।
सवाल उठता है – क्या अधिकारी इतने अंधे हो गए हैं या यह अंधापन जानबूझकर अपनाया गया है? क्या किसी ने यह देखने की कोशिश की कि चार लीटर पेंट में असल में कितना काम हो सकता है? नहीं। क्योंकि सरकारी तंत्र में सत्य की जगह अब स्वीकृति ने ले ली है – चाहे वह कितनी ही अव्यावहारिक क्यों न हो।
यह घटना अकेली नहीं है। ऐसे उदाहरण प्रदेश के हर कोने में मिल जाएंगे, जहां छोटी योजनाओं को बड़ा दिखाकर बड़ी रकम स्वाहा कर दी जाती है। कभी रंग के नाम पर, कभी मरम्मत के नाम पर, और कभी सफाई के नाम पर – लेकिन हर बार अंत में नुकसान उसी जनता का होता है, जो ईमानदारी से टैक्स देती है।
यह सब देखकर स्पष्ट है कि अब सिर्फ दीवारें नहीं, पूरा सिस्टम रंगने की ज़रूरत है – ईमानदारी, पारदर्शिता और जवाबदेही के रंग से। वरना अगली बार अगर कोई कहे कि एक बल्ब बदलने में दस बिजली इंजीनियर और ₹50,000 खर्च हुए, तो चौंकिए मत – क्योंकि मध्यप्रदेश में सब कुछ संभव है।
और हां, आखिरी लाइन में डीईओ साहब के दस्तखत तो होंगे ही – “मंज़ूर है।”
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