संघ की आत्मा बनाम दिखावे की राजनीति: क्या शाखा का अनुशासन हाशिए पर है?
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जिसने अनुशासन, त्याग, समर्पण और राष्ट्रधर्म को अपनी रीढ़ बनाया, आज एक अजीब से संक्रमण काल से गुजर रहा है। वह संघ, जिसकी हर शाखा में राष्ट्र निर्माण के बीज बोए जाते थे, आज अपने ही मूल स्तंभों से डगमगाता हुआ प्रतीत हो रहा है।
कभी शाखा वर्किंग स्वयंसेवक ही संघ की असली पहचान हुआ करते थे। वे स्वयंसेवक जो जीवन की चकाचौंध से दूर रहकर रोज़ की शाखा, पथ-संचलन, सेवा कार्य, बौद्धिक और आत्मिक प्रशिक्षण में लगे रहते थे, अब धीरे-धीरे संगठन के किनारे कर दिए गए हैं। वर्तमान में संघ की स्थिति यह हो चुकी है कि 75% से अधिक संगठनात्मक दायित्व अब उन लोगों को सौंप दिए गए हैं जो न तो शाखा की नियमितता से जुड़ पाए, न ही संघ के मूल संस्कारों को आत्मसात कर पाए। ये नॉन शाखा वर्किंग व्यक्ति, जिनका प्रवेश अब महज व्यक्तिगत लाभ, राजनीतिक समीकरण या व्यापारिक विस्तार का साधन बनता जा रहा है, संघ के उस वैचारिक मूल से कोसों दूर हैं जिस पर कभी यह संगठन खड़ा हुआ था।
जहां शाखा वर्किंग स्वयंसेवक 'मेरा जीवन राष्ट्र के लिए' के भाव से जीते थे, वहीं आज अनेक ऐसे चेहरे जिम्मेदारियों पर आसीन हैं जिनका उद्देश्य 'संघ के मंच से मेरा जीवन सफल कैसे हो' हो गया है। इनकी कार्यशैली में न तो तप है, न अनुशासन, न समर्पण और न ही विचारधारा के प्रति श्रद्धा। चौंकाने वाली बात यह है कि यह बदलाव अचानक नहीं हुआ। यह एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा लगता है, जिसमें संघ प्रेरित संगठनों के कुछ शीर्षस्थ चेहरों ने ऐसे लोगों को संघ की मुख्यधारा में प्रविष्ट कराया, जिन्होंने आज तहसील से लेकर अखिल भारतीय स्तर तक अपनी पकड़ बना ली है। आज उन चेहरों को मंच मिल रहा है जो कभी संघ विरोधी गतिविधियों में संलिप्त रहे, जिन्हें कभी शाखा के आदर्शों ने स्पर्श तक नहीं किया। ऐसे लोग नारद जयंती जैसे गरिमामयी आयोजनों के संचालनकर्ता बन गए हैं। ऐसे चेहरे जो जेल से छूटे अपराधी हैं, अब बैनरों पर आदर्श के रूप में प्रचारित हो रहे हैं। ऐसे व्यापारी जो करोड़ों के भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, अब संघ के मंच से सम्मानित हो रहे हैं।
वास्तविक शाखा वर्किंग स्वयंसेवक यह देखकर मौन हैं, किंतु उनका मौन पीड़ा से भरा है। वे संघ की उस आत्मा को तिल-तिल मरते देख रहे हैं जिसे उन्होंने अपने खून-पसीने से सींचा था।
जातिगत मानसिकता से ग्रसित, विचारहीन लेकिन रसूखदार लोगों को जब संगठनात्मक दायित्व सौंपे जाते हैं तो सामाजिक समरसता की भावना भी खोखली होती जाती है। और यही कारण है कि आज हजारों की संख्या में वे मूल स्वयंसेवक, जो कभी संघ की रीढ़ थे, अब घर बैठने को विवश हैं – न किसी शिकायत के साथ, बल्कि एक टूटी हुई आत्मा के साथ।
यह समय है आत्ममंथन का। संघ के उन वरिष्ठजनों को यह देखना होगा कि कहीं वह मूल आत्मा, जिसके बल पर संघ ने स्वयं को एक सांस्कृतिक राष्ट्रशक्ति के रूप में स्थापित किया, कहीं वह आज बाहरी दिखावे, राजनीतिक समीकरणों और व्यक्तिगत लाभ की चकाचौंध में खो तो नहीं रही।
संघ के इतिहास में यह क्षण एक चुनौती बनकर उभरा है – जहां उसे तय करना होगा कि क्या वह अपने उसी मूल पथ पर लौटेगा जो शाखा के अनुशासन से बनता है, या फिर उस मार्ग पर चला जाएगा जो केवल भीड़ और प्रभाव का भ्रम देता है, परंतु आत्मा से शून्य है।
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दिवाकर की दुनाली से
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