सामाजिक संस्था की आड़ में फलता-फूलता भू-माफिया तंत्र
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शहर की आबोहवा में इन दिनों कुछ अलग ही खुशबू घुली है। दाल-बाटी की महक के साथ-साथ राजनीति, प्रॉपर्टी डील और पाखंड का मिश्रण ऐसा पक रहा है, जिसकी भाप में समाज की सच्ची सेवा कब की उड़ चुकी है। किसी होटल के वातानुकूलित हाल में जब "सामाजिक संस्था" की बैठक होती है, तो दरअसल वहां समाज नहीं, अपने धंधे की चिंता होती है।
कागज़ पर लिखा होता है "लोककल्याण", लेकिन मन के किसी कोने में एक टेबल और चार कुर्सियाँ बिछी होती हैं—जहाँ सौदे होते हैं, मुलाकातें होती हैं, फोटो खिंचते हैं और फिर रात की रोटियों पर लिपटकर रिश्वत और रजिस्ट्री का मसाला चुपचाप निगला जाता है।
अध्यक्ष पुनः निर्वाचित हुआ! क्या ही अद्भुत लोकतंत्र है जहां चुनाव पहले तय होते हैं, और औपचारिकता बाद में निभाई जाती है। हर साल वही नाम, वही चेहरे—जिनकी तस्वीरें आपको हर सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक या सांस्कृतिक कार्यक्रम में पहले पंक्ति में मिलेंगी।
इन चेहरों के पीछे कौन सी ज़मीन किस गरीब से हड़प ली गई? किस मज़दूर के सपनों पर प्लॉट काटे गए? कौन सा आशीर्वाद असल में एनओसी की भाषा में बोला गया? ये कोई नहीं पूछता। क्योंकि सवाल पूछना समाज की शालीनता के खिलाफ माना जाता है।
"कार्यक्रम संयोजक", "आरती प्रभारी", "प्रसाद व्यवस्था", "मंच संचालन"... ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई सामाजिक संस्थान नहीं, बल्कि किसी निजी इवेंट कंपनी की रूपरेखा पेश हो रही हो। सबको एक-एक जिम्मेदारी इसीलिए दे दी जाती है कि सबकी दुकान चलती रहे, और सबके मोबाइल में डीएम और एमएलए की सेल्फी सेव रहे।
सच्चाई यह है कि इन आयोजनों में सेवा नहीं, सौदे होते हैं। नेता आते हैं, अधिकारी बैठते हैं, और आयोजकों के चेहरे पर जो मुस्कान होती है, वो दरअसल उनके धंधे की सुरक्षा की गारंटी होती है। "सामाजिक सेवा" के नाम पर जब कभी मंच सजाया जाता है, तो उस मंच की बुनियाद में कई उजड़े परिवारों की चीखें दबी होती हैं।
जो सचमुच समाज की सेवा करते हैं, उनके पास ना होटल बुकिंग की ताकत होती है, ना मीडिया कवरेज की सुविधा। वे गुमनाम रहते हैं—सड़क किनारे, अस्पतालों के बाहर, और झुग्गियों के बीच। लेकिन वे पोस्टर पर नहीं होते, इसलिए “पदाधिकारी” नहीं बनते।
अब समय आ गया है कि समाज खुद से पूछे—ये जो संस्थाएं हर पर्व, हर उत्सव पर फोटोबाजी करती हैं, क्या वे वास्तव में हमारे बीच के संकट में खड़ी होती हैं? क्या ये नाम वही नहीं जो हर कॉलोनी में जमीन के कब्जों, प्लॉट विवादों और माफियागिरी में लिप्त पाए जाते हैं?
अगर "सेवा" की परिभाषा सिर्फ मंच, माइक और मेहंदीपुर बालाजी ट्रिप बन गई है, तो समझिए कि समाज को अब इंसानों की नहीं, ईमानदार आईनों की ज़रूरत है।
शहर को अब दाल-बाटी से नहीं, जवाबदेही से परोसे जाने की ज़रूरत है। वरना ये लोककल्याण प्रतिष्ठान नहीं, केवल "लाभ-कल्याण प्रतिष्ठान" बनकर रह जाएंगी—जहाँ हर काम अपने लिए, हर मंच अपनी तस्वीर के लिए, और हर पद अपने फायदे के लिए होता है।
और समाज...?
वो दाल-बाटी खाकर ताली बजा देता है।
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दिवाकर की दुनाली से
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