11 साल की जंग: महेंद्र कुमार दुबे ने कोर्ट में खुद लड़ा केस और जीते
साल 2014 में उनके जीवन में वह मोड़ आया, जब विभाग ने मात्र छह माह की पोस्टिंग को आधार मानते हुए लक्ष्य पूरा न होने का बहाना बनाकर उनकी दो वेतनवृद्धियां रोक दीं। यही नहीं, इस सजा में भी भेदभाव किया गया। जिन अन्य आठ अधिकारियों को दंडित किया गया था, उनकी अपील स्वीकार कर उन्हें महज़ चेतावनी देकर छोड़ दिया गया, लेकिन महेंद्र कुमार दुबे के हिस्से में केवल निराशा आई। उनकी अपील शासन ने इस तर्क के साथ खारिज कर दी कि यह तय समय सीमा के भीतर नहीं की गई।
दुबे साहब का दिल टूटा नहीं। उन्होंने न्याय का दरवाजा खटखटाने के लिए हाईकोर्ट का रुख किया। लेकिन वहां भी राह आसान नहीं थी। वकीलों से मिले, फीस दी, पर एक-एक करके सभी वकील या तो बहानेबाजी करते रहे या फिर अधिक पैसों की मांग करने लगे। यह वह क्षण था, जब अधिकांश लोग थक-हारकर हाथ खड़े कर देते। लेकिन महेंद्र कुमार दुबे ने ठान लिया—अब वे अपने केस की पैरवी खुद करेंगे।
सोचिए, कानून की जटिल भाषा, गवाही के नियम, अदालत की सख्त प्रक्रियाएं—इन सबसे जूझते हुए अकेले खड़े रहना कितना कठिन होगा। लेकिन वे डटे रहे। अपनी याचिका खुद लिखी, दस्तावेज़ खुद जुटाए और ग्वालियर हाईकोर्ट की दहलीज़ पर ग्यारह वर्षों तक लगातार उपस्थित होते रहे। एक-एक तारीख, एक-एक बहस उन्होंने अपनी कलम और जुबान से लड़ी।
आखिरकार, 22 सितंबर 2025 का दिन आया, जब न्यायालय ने उनकी तपस्या को फल दिया। हाईकोर्ट ने शासन को आदेश दिया कि एक माह के भीतर उचित कारण सहित उनके खिलाफ की गई कार्रवाई पर पुनर्विचार कर फैसला लिया जाए। यह सिर्फ़ वेतन वृद्धि की जीत नहीं थी, बल्कि यह आत्मसम्मान, धैर्य और अटूट विश्वास की जीत थी।
महेंद्र कुमार दुबे ने यह साबित कर दिया कि अगर इंसान अन्याय के आगे झुके बिना अपने विश्वास के साथ खड़ा हो जाए, तो वक्त चाहे जितना लंबा हो, सच की जीत तय है। उनकी यह कहानी न केवल आश्चर्यचकित करती है, बल्कि हर उस दिल को हिम्मत देती है जो अन्याय के सामने कमजोर पड़ जाता है।
वह ग्यारह साल की लड़ाई हमें यही सिखाती है—न्याय कभी देर से भले मिले, लेकिन वह मिलता अवश्य है। और जो व्यक्ति अपने अधिकारों की लड़ाई स्वयं लड़ लेता है, उसकी जीत केवल उसकी नहीं होती, बल्कि पूरे समाज के लिए प्रेरणा बन जाती है।
एक टिप्पणी भेजें