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गरबा : भक्ति से भटक कर भोग तक की यात्रा – दिवाकर शर्मा

 


भारत भूमि अनादि काल से संस्कृति, परंपरा और धर्म का केन्द्र रही है। यहां हर पर्व और उत्सव केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं बल्कि आध्यात्मिक चेतना जागृत करने का साधन रहा है। यही कारण है कि हमारे पर्व हमें मात्र नाच-गाने की छूट नहीं देते, बल्कि आत्मानुशासन और परमात्मा के प्रति समर्पण का अवसर प्रदान करते हैं। नवरात्रि इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। शक्ति की उपासना का यह पर्व, नौ रातों तक साधना, व्रत, उपवास और देवी की आराधना का माध्यम बनता आया है। इसी पर्व से जुड़ा है "गरबा" – एक पवित्र लोकनृत्य, जिसकी उत्पत्ति देवी की भक्ति और शक्ति साधना से हुई थी। परंतु विडंबना यह है कि आज वही गरबा अपनी मूल भावना से भटककर उच्छृंखलता, अश्लीलता और फूहड़ता का पर्याय बनता जा रहा है।

गरबे का धार्मिक इतिहास

गरबा का जन्म गुजरात की पावन धरती पर हुआ। संस्कृत शब्द "गर्भदीप" से "गरबा" शब्द निकला है। इसका अर्थ है— मिट्टी का एक घड़ा जिसमें दीपक जलता है। यह दीपक मां शक्ति का प्रतीक होता है, और घड़ा सृष्टि का, जिसमें ब्रह्मांड की समग्र ऊर्जा विद्यमान है। नवरात्रि के दिनों में इस गर्भदीप की आराधना कर लोग देवी शक्ति की उपासना करते थे। महिलाएं घड़े के चारों ओर गीत गातीं, ताली बजातीं और लयबद्ध नृत्य करतीं।

पुरातत्व और लोककथाओं में इसका उल्लेख मिलता है। गुजरात की लोकपरंपरा में "गरबा" नृत्य का सबसे पुराना उल्लेख 15वीं शताब्दी में मिलता है। प्रसिद्ध संत और कवयित्री मीराबाई ने भी गरबा के रूप में भगवान कृष्ण और शक्ति की स्तुति में पद लिखे। 16वीं–17वीं शताब्दी में गुजराती कवियों के पदों में "जय अड्या शक्तिनो आड़ो" (जय अड़्या शक्ति) जैसे गीत गरबा के दौरान गाए जाते थे।

प्रारंभिक गरबा गीतों में हमेशा देवी को पुकारा जाता था, जैसे –

"गोर रे गोर मां, अंबा गोर रे गोर..."

यह गीत आज भी गुजरात के ग्रामीण अंचलों में सुना जा सकता है। इसमें देवी अम्बा की गोरी छवि का स्मरण करते हुए उन्हें शक्ति और करुणा का स्वरूप माना गया है।


गरबे का महत्व

गरबे का उद्देश्य मनोरंजन नहीं बल्कि साधना था। ताली बजाना, लय में नृत्य करना, शक्ति गीत गाना – यह सब मानसिक शुद्धि और सामूहिक भक्ति का साधन था।

एक और ऐतिहासिक संदर्भ है। मध्यकालीन ग्रंथों में वर्णन है कि नवरात्रि के समय किसान वर्ग शक्ति की आराधना कर आगामी वर्ष की समृद्धि की प्रार्थना करता था। दीपक को "जीवन" और "ऊर्जा" का प्रतीक मानकर उसके चारों ओर घूमना इस भावना का द्योतक था कि सृष्टि का हर प्राणी परमशक्ति के चारों ओर ही गतिमान है।

गरबा, नारी की शक्ति को सम्मान देने का प्रतीक था। नवरात्रि का मूल ही है – स्त्री को आदिशक्ति मानकर उसकी पूजा करना। गरबा सामूहिक रूप से यह संदेश देता था कि शक्ति की उपासना ही जीवन को संतुलित और सुरक्षित रख सकती है।


वर्तमान में गरबे का विकृत स्वरूप

लेकिन आज के समय में वही गरबा किस रूप में बदल गया है, यह देखकर आत्मा तक आहत हो जाती है। जहां पहले यह दीपक और देवी के चारों ओर मर्यादित नृत्य था, वहीं अब यह डीजे की कानफोड़ू आवाज, अश्लील गीतों और अंधाधुंध रोशनी में बदल गया है।

गुजरात के लोकगरबों की जगह अब बॉलीवुड के गीतों ने ले ली है। "जय अड्या शक्ति" की जगह "मेरी चुनरिया सर्की जाए", "दिलबर-दिलबर" और "कजरा मोहब्बत वाला" जैसे गाने गूंजते हैं। यह केवल विकृति नहीं, बल्कि मूल संस्कृति का उपहास है।

आज गली-गली में गरबे के नाम पर जो आयोजन हो रहे हैं, वे न तो देवी उपासना का स्वरूप रखते हैं, न ही उनमें कोई धार्मिक भाव बचा है। खुलेआम शराब, नशा और उच्छृंखल आचरण इन आयोजनों में देखा जा सकता है। युवक-युवतियां देर रात तक अश्लील गानों पर थिरकते हैं और इसे "आधुनिक गरबा" कहकर समाज स्वीकार करता जा रहा है।


गरबे में फूहड़ता और अश्लीलता

आज के "गरबा नाइट" में युवक-युवतियों की वेशभूषा देखकर ही यह स्पष्ट हो जाता है कि यहां धर्म नहीं बल्कि शरीर प्रदर्शन ही मुख्य आकर्षण है। ऐसे वस्त्र पहनकर नृत्य करना जिनका न तो भारतीय संस्कृति से कोई संबंध है और न ही मर्यादा से, यह गरबे का अपमान है।

वास्तव में यह गरबा नहीं, बल्कि क्लब और डिस्कोथेक का "देसी संस्करण" है, जिसे नवरात्रि के नाम पर वैधता दी गई है। और दुखद बात यह है कि इसे "संस्कृति" कहकर प्रचारित किया जा रहा है।


आयोजकों और अभिभावकों की जिम्मेदारी

इस विकृति का सबसे बड़ा कारण वे आयोजक हैं, जिनके लिए धर्म केवल कमाई का साधन है। वे जानते हैं कि अश्लीलता बिकती है, इसलिए वे ऐसे ही कार्यक्रम कराते हैं। उनके लिए नवरात्रि केवल "इवेंट मैनेजमेंट" है।

लेकिन दोष केवल आयोजकों का नहीं है। दोष उन अभिभावकों का भी है, जो अपने बच्चों को देर रात तक ऐसे आयोजनों में जाने की अनुमति देते हैं। यह कैसे संभव है कि कोई बेटी या बेटा अश्लील वस्त्र पहनकर रात के दो बजे तक गरबा नाइट में थिरकता रहे और माता-पिता चुपचाप इसे "फैशन" समझकर सह लें?

और सबसे दुखद दृश्य तब सामने आता है जब समाज के तथाकथित "प्रतिष्ठित" और "स्थापित" लोग स्वयं अपने परिवार सहित मंचों पर आसीन होते हैं। वे मंच पर ऐसे बैठते हैं मानो किसी पुण्य कार्य में शरीक हुए हों, मानो कोई धार्मिक महोत्सव हो रहा हो। उनके चेहरे पर झूठा गर्व और आत्मसंतोष टपकता है कि वे "संस्कृति प्रेमी" कहलाएंगे, जबकि वास्तव में वे इस विकृति को वैधता प्रदान कर रहे होते हैं।


समाज पर पड़ता दुष्प्रभाव

गरबे की इस विकृति ने समाज पर घातक प्रभाव डाला है। युवक-युवतियों के बीच खुलेआम नजदीकियां, अश्लील हरकतें और नशाखोरी सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ रही हैं। कई बार ऐसे आयोजनों से अपराध भी जन्म लेते हैं।

लोककथाओं में गरबा नवरात्रि की पवित्रता का प्रतीक था, लेकिन आधुनिक "गरबा नाइट्स" समाज को संयमित नहीं, बल्कि उच्छृंखल बना रहे हैं। और इसमें सबसे बड़ी विडंबना यह है कि "प्रतिष्ठित वर्ग" अपनी मौन सहमति और उपस्थिति से इन आयोजनों को प्रतिष्ठा और सामाजिक मान्यता प्रदान कर रहा है।

गरबा भारतीय संस्कृति की आत्मा था। यह नवरात्रि के पावन पर्व पर देवी शक्ति की आराधना का साधन था। परंतु आज यह अपने मूल स्वरूप से भटककर पाश्चात्य मनोरंजन का साधन बन गया है।

समाज को यह समझना होगा कि यह केवल "फन" नहीं बल्कि "अपसंस्कृति" है। हमें अपने बच्चों को बताना होगा कि गरबा भक्ति का माध्यम है, न कि भोग का। आयोजकों को भी यह संकल्प लेना होगा कि वे गरबे को उसकी पवित्रता के साथ आयोजित करेंगे।

यदि हम आज नहीं जागे तो आने वाली पीढ़ियां गरबे को केवल "अश्लील नृत्य" के रूप में जानेंगी, न कि भक्ति और संस्कृति के प्रतीक के रूप में। और यह भारतीय संस्कृति के साथ सबसे बड़ा विश्वासघात होगा।

गरबे का सम्मान तभी संभव है जब हम इसे उसकी मूल भावना – भक्ति, मर्यादा और सामूहिकता – के साथ जोड़कर देखें। अन्यथा वर्तमान का यह विकृत स्वरूप समाज को केवल अधःपतन की ओर ले जाएगा।

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