शिवपुरी में गणेशोत्सव की परंपरा पर मंडराता संकट
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भारत में गणेशोत्सव की शुरुआत केवल पूजा-अर्चना भर के लिए नहीं हुई थी। जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इसे सार्वजनिक स्वरूप दिया, तब उनके मन में न कोई मंच सजाने का लोभ था, न चेहरों की चमकाने की महत्वाकांक्षा। उनका सपना था कि इस आराधना के बहाने लोग एकजुट हों, समाज जागे, और अंग्रेज़ों की गुलामी की दीवारें ढहें। परंतु आज का दृश्य देखकर लगता है मानो गणपति बप्पा को भी मंच से उतरकर यह पूछना पड़े कि “भाइयों, यह कौन-सा गणेशोत्सव है, जहां भक्ति की जगह कारोबार और एकता की जगह बंटवारा हो रहा है?”
शिवपुरी की धरती पर वर्षों से कस्टम गेट का आयोजन श्रद्धा और समाजिकता का प्रतीक रहा। यहां गांव-शहर से लोग आते, आरती की ध्वनि में एकता की गूंज सुनाई देती। किंतु इस बार भक्ति के स्वर में राजनीति की खटपट घुल गई है। अब एक ओर कस्टम गेट, तो दूसरी ओर न्यू ब्लॉक—मानो गणपति की आराधना नहीं, बल्कि गुटबाज़ी की बारात निकल पड़ी हो। असली मकसद? जिन्हें मंच पर स्थान न मिला, वे अपने-अपने गणपति के नाम पर अलग दुकान खोल बैठे। दुकान भी कैसी—जमीन सौदों की बुनियाद पर खड़ी और राजनीतिक सपनों की छत से ढकी।
कभी यह आयोजन समाज को जोड़ता था, अब चेहरा चमकाने की प्रतियोगिता बन चुका है। मंच पर भक्ति कम, ‘माइक पर नाम ऊँचा करने’ की होड़ अधिक है। आरती की पंक्तियों के बीच जब नेता लोग फोटो खिंचवाने को आतुर खड़े होते हैं, तो लगता है गणेशोत्सव कोई धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि चुनावी रैली का ट्रेलर है। जिनका मकसद बप्पा के चरणों में माथा टेकना होना चाहिए, वे कैमरे की ओर गर्दन ताने घूमते हैं।
और सबसे बड़ा दुख यह है कि समाज के वरिष्ठजन, जिनका नाम अब तक ईमानदारी और तपस्या से जुड़ा रहा, वही इस जाल में फँसते नज़र आ रहे हैं। कभी उन्होंने गणेशोत्सव को सम्मान दिया था, आज वे कुछ स्वार्थी चेहरों की कठपुतली बनकर मंच सजाने में व्यस्त हैं। सच तो यह है कि मंच अब पूजा का नहीं, सौदेबाज़ी का प्रतीक हो चला है। यहां नारियल नहीं टूटता, बल्कि जमीन के टुकड़ों पर सौदों की बोली लगती है।
गणेशोत्सव के बहाने अब समाज का नक्शा बाँटा जा रहा है—कौन इस मंच का, कौन उस मंच का। कोई जमीन कारोबारी अपनी पकड़ मजबूत करने आया है, तो कोई नेता अपनी तस्वीर चमकाने। भक्ति की मूर्ति के सामने महत्वाकांक्षा का मेला सजा है। यही क्रम चलता रहा तो आने वाले वर्षों में गणेशोत्सव की पहचान सिर्फ चंदे की गिनती, मंच की लड़ाई और पोस्टर की भीड़ तक रह जाएगी।
यही कारण है कि आज सबसे बड़ा सवाल उन्हीं वरिष्ठजनों से है—क्या वे इस षड्यंत्र का हिस्सा बनकर अपनी दशकों की कमाई छवि मिटा देंगे? क्या वे गणपति के पवित्र नाम पर राजनीति और कारोबार की मिलावट स्वीकार कर लेंगे? या फिर हिम्मत दिखाकर उन स्वार्थी चेहरों को नकार देंगे, जो समाज को तोड़ने के लिए बप्पा की आड़ ले रहे हैं?
गणेशोत्सव की आत्मा आज पुकार रही है—यह पर्व जोड़ने के लिए था, तोड़ने के लिए नहीं। इसे जमीन के सौदों और चेहरों की चमक की भेंट मत चढ़ाइए। बप्पा की मूर्ति के सामने राजनीति और महत्वाकांक्षा की बाज़ारू बोली बंद कीजिए। वरना आने वाली पीढ़ी पूछेगी कि क्या हमारे बप्पा केवल फोटो खिंचाने और सौदेबाज़ी के लिए ही पधारे थे?
हे गणपति बप्पा, हमें विवेक दो कि हम इस पावन उत्सव को उसकी मूल आत्मा लौटाएँ, जहां आरती की गूंज समाज को जोड़े, और चेहरों की चमक नहीं, भक्ति की ज्योति जगमगाए।
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दिवाकर की दुनाली से

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