शिवपुरी में फेसबुकिया पत्रकारों का कब्ज़ा, असली पत्रकारिता बंधक!
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शिवपुरी की फिज़ाओं में इन दिनों एक अजीब-सी हलचल है। सड़क किनारे चाय की दुकानों से लेकर बड़े-बड़े सरकारी कार्यक्रमों तक, हर जगह एक नई भीड़ नजर आती है। भीड़—जो खुद को पत्रकार कहती है, पर असल में पत्रकारिता से उनका उतना ही संबंध है जितना मोमबत्ती का सूरज से। एक मोबाइल, एक माइक आईडी और एक फेसबुक पेज... और बस, जन्म हो जाता है एक नए “पत्रकार” का। दिलचस्प यह है कि इनकी भीड़ अब इतनी संगठित हो चुकी है कि असली पत्रकार भी कई बार अपनी पहचान साबित करने में असहज महसूस करते हैं।
हैरानी इस बात की है कि सरकारी दफ्तरों के गलियारों में असली पत्रकारों से अधिक सम्मान और तबज्जो इन्हें मिलती है। अफसर इनके साथ तस्वीरें खिंचवाते हैं, कर्मचारी इनके आगे-पीछे घूमते हैं, मानो इन स्वयंभू “कलमधारियों” की मर्जी से ही फाइलें खुलेंगी और बंद होंगी। स्थिति यह हो गई है कि जो लोग अपना नाम ठीक से लिखने में भी पसीना बहा दें, वे अब सरकारी प्रेस कॉन्फ्रेंस की पहली पंक्ति पर बैठकर ज्ञान बरसाते नजर आते हैं। यह दृश्य जितना हास्यास्पद है, उतना ही भयावह भी।
मध्यप्रदेश जनसंपर्क विभाग के नियम साफ कहते हैं कि पत्रकार वही है जो किसी पंजीकृत अखबार, चैनल या मान्यता प्राप्त माध्यम से जुड़ा हो। लेकिन लगता है कि शिवपुरी में नियम किताबों की शोभा बढ़ाने भर को हैं, हकीकत में तो सरकारी कार्यक्रमों की शोभा बढ़ाने का काम यही फेसबुकिया पत्रकार कर रहे हैं। सवाल यह उठता है कि जब विभाग की नीतियों में सोशल मीडिया पेज को पत्रकारिता की श्रेणी में स्थान नहीं दिया गया, तो फिर यह गिरोह किस अदृश्य शक्ति से न केवल सरकारी कार्यालयों बल्कि अधिकारियों के आवासों तक निर्बाध प्रवेश पा लेता है? क्या यह सब प्रशासन की नादानी है या फिर किसी छुपी हुई मिलीभगत का खेल?
कहते हैं पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। परंतु इस स्तंभ पर जब “फेसबुकिया दीमक” चढ़ जाएँ, तो उसकी मजबूती कितनी देर टिक पाएगी? वास्तविक पत्रकार जब इनकी ओछी करतूतों पर चुप रहते हैं, तो चुप्पी से पैदा हुई खामोशी इन नकली चेहरों के लिए ताकत बन जाती है। धीरे-धीरे समाज भी असली और नकली का फर्क भूलने लगता है और फिर सबको एक ही तराजू में तौलता है। यही कारण है कि अब लोग पत्रकारिता को शक की निगाह से देखने लगे हैं।
सोचिए कैसे जिन्हें कल तक मोहल्ले के बच्चे भी गंभीरता से नहीं लेते थे, आज वही व्यक्ति प्रशासनिक दफ्तरों में सीना तानकर घूमते हैं। और प्रशासन—वह तो मानो इनका मार्गदर्शक बन बैठा हो। नीतियाँ धरी की धरी रह जाती हैं और नियमों की किताब पर धूल जमती जाती है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या जनसंपर्क विभाग अपनी ही बनाई नीतियों का मजाक उड़ाने पर मौन साधे बैठेगा?
यदि अब भी इस पर अंकुश न लगाया गया, तो आने वाले समय में पत्रकारिता एक ऐसा बाज़ार बन जाएगी जहाँ ईमानदार कलम बेचारा और ब्लैकमेलर बादशाह होगा। यही वह भयावह स्थिति है जिससे समाज और प्रशासन दोनों को सतर्क रहना चाहिए। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ अगर खोखला होगा, तो बाकी तीन स्तंभ कितनी देर खड़े रह पाएँगे?
शिवपुरी की हवा में तैरता यह सवाल आज हर सजग नागरिक के मन में है—क्या जनसंपर्क विभाग केवल नियम लिखने तक ही सीमित रहेगा, या फिर इन स्वयंभू पत्रकारों के खेल पर लगाम लगाने का साहस दिखाएगा? जवाब चाहे जो हो, पर सच यही है कि यह मौन और यह मिलीभगत पत्रकारिता के उजाले को अंधेरों में धकेल रही है। और जब अंधेरा हावी होता है, तो सच सबसे पहले दम तोड़ता है।
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